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भगवान पानाथ। [८५ देर न कगी। पर वह साधु था। उनका अभिवादन पाये बिना यह क्यों बोले ? सग्ल-सहमकी रीनि उसे पसन्द न थी। पार्थकुमाग्ने उसकी मढ़ता देखी। वह उसे भला अभिवादन क्या कानं ! हा. वह उसका सपा हित साधने के लिये तुल पड़े।
उन्होंने कहा कि यह माधुमार्ग नहीं है । ममि मुलगाकर व्यर्थ जीवोंकी हिंसा करते हो ! गजकुमारके इन शब्दोंने उस साधुको भाग-चला बना दिया। उसने कुल्हाड़ी उठाई और अधसिलगे लकड़ीके बोटको वह फाड़ने लगा। उसके भाचर्यका ठिकाना न रहा, जब उसने उस लकड़ी की खुखालमें एक मरणासन सर्पयुगल देवा ! उसका मन तो मान गया, परन्तु घमंडका भूत मिम्मे न उलग : यही कारण था कि वह भहिंसा धर्महे महत्वको न समझ सका । यर्पयुगलको भ० पाने मम्बोधा : वे समभावोसे मरे और धरणेन्द्र-पद्मावनी हुये।
इस गनिमे भ० पर्यनाथ कौमारकालमे ही जनतामें धार्मिक सुधार कर रहे थे : उन समयमें धर्म नामपर तरह नाहक मन प्रचलित होगये थे। कार्य प्रभूने उनको मेंटना मावश्यक समझा । उन्होंने देखा कि समाजमे गृहत्यागियोंकी मान्यता है और विना गृह त्याग किये सत्यके दर्शन पा लेना दुर्लभ है। इसलिये उन्हें घग्य गहना दम होगया।
नाविर में एक निमिन मिल गया-मब वे दिगम्बर मुनि होगये। मुनि अवस्थामें उनान घोर तप तपा। ज्ञान-ध्यानमें वे हीन रहे । संयमी जीवनकी पराकाहार से पहुंच गये। एक मच्छेसे