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________________ १८] - संक्षिप्त जैन इतिहास। भगवानका ध्वजचिन्ह भी · वृषम' (Bull) था। भगवान ऋषमदेवकी जो मूर्तियां मिलती हैं उनमें यह बैलका चिह्न मिलता है।' भगवान ऋषभदेव स्वयं ज्ञानी थे। मानवोंमें सर्वश्रेष्ठ थे । उनकी युवावस्थाकी चेष्टायें परोपकारके लिये होती थीं। उनसे जनताका वास्तविक हित सधा था। वे स्वयं गणित, छंद, अलंकार, व्याकरण, लेखन, चित्रलिपि मादि विद्याओं और कलाभोंके ज्ञाता थे और उन्होंने ही सबसे पहले इनका ज्ञान लोगों को कराया था। पूर्ण युवा होनेपर उनका विवाह कच्छ महाकच्छ नामक दो राजाओंकी परम सुंदरी भौर विदुषी नंदा और सुनंदा नामक दो गजकुमारियों के साथ हुआ था। रानी मुनन्दाके समस्त भरतक्षेत्रका पहला सम्राट भरत चक्रवर्ती नामका पुत्र और ब्राह्मी नामकी कन्या हुई थी। ऋषभदेवने ब्रामीको ही पहले पहले लेम्वनकळाकी शिक्षा दी थी। इसीलिये मारतीय आदि लिपि - ब्राह्मी लिपि ' कहलाती है। दूसरी रानी मुनन्दाके महाबलवान बाहुबलि और परमसुंदरी सुन्दरी नामकी कन्या हुई थी। भरतके वृषभसेन आदि अट्ठानवे भाई और थे। इन सब पुत्रोंको विविध प्रदेशोंमे गजपतिष्ठ करके ऋषभदेव निश्चित हये थे । यह हम पहले लिख चुके हैं कि प्रजाकी आदि व्यवस्था १. मोहनजोदराकी मुद्रामोपा कतिपय काय त्सर्ग मुदाकी नम मतियां अंकित है जिनपर बैठका चिह्न भी है । रा० ० रामप्रसाद चन्दा महाशय उन्हें भ. ऋषभदेवकी मूर्तिके समान प्रगट करते हैं। म. ऋषमदेवने कायोत्सर्ग मुद्रामें तपश्वाण किया था। (Modern Review, Aug: 1932, p. 159. )
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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