________________
पौराणिक काल। (" भ० ऋषभदेव और सम्राट् भरत ")
भगवान ऋषभदेव अथवा वृषभदेव जैन धर्ममें माने गये इस भवसर्पिणीकाल के पहले तीर्थकर थे। जैन धर्ममें तीर्थङ्करमे भाव उस महापुरुषसे है मो इस संसार-समुद्रमे पार उतारने के लिये और मोक्षस्थानको प्राप्त होने के लिये एक धर्म-नार्थकी स्थापना करते हैं । ऋषभदेव एक ऐसे ही तीर्थक थे । पर साथ ही उनको 'कुलकर' या 'मनु' भी कहा गया है । वह इसलिये कि उन्होंने ही वस्तुतः मनुष्यको सभ्य और संस्कृत जीवन व्यतीत करना सिखाया था। यह पहले लिखा जा चुका है कि भगवान ऋषभदेव मन्तिम कुल. कर नाभिगय और उनकी गनी मरुदेवीके सुपुत्र थे । हिन्दु पुराण प्रन्थोंमें उनकी गणना अवतारोंमें की गई है और उन्हें पाठवां अवतार कहा गया है।
भगवानका जन्म चैत्र कृष्णा २ को अयोध्यामे हुमा था और उनका जन्म-हमव खूब धूमधाम्मे मनाया गया था। वह धर्मक प्रथम उपदेष्टा ये इमलिय उनका नाम 'श्री वृषभनाथ स्वस्वा गया था । जिम समय क मी मरुदेवीक गर्भमे थे, उस समय उनकी मांने साल. शुभ स्वप्न देव 2. जिनके अंमें एक सुन्दर बैन था : संकृत बलको 'वृषम' कहने हैं और अलं. कुन भाष में वह धर्मनके लिये व्यवहृत हुआ है।' इमलिये ही १-मम० पृ० १२-१७: दो मानेन्ट हिन्दी भाव इंडिया देखो।