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________________ १५.] संक्षित जैन इतिहास । महागजने की यह प्रार्थना म्वीकार की कार 'तत्वावधिमा स्त्र' कोच दिया। · सिद्धरप' के निमित्तम इस ग्रंथगमले रचे जनक लम्ब संभवतः 'मर्वार्थसिद्धि' टी में भी है। निस्सन्ह मिद्धय्या निमित्त रचा हुआ यह प्रस्थान सिद्धांतकी नमुल्य निधि है। यही कारण है कि उपरान्त जैनाचार्यो म. हमास्वानिक! माण दे ही सम्माननीय रीतम किया और उने 'भूतवाल देशीय ' एवं 'गुणगंभीर ' भी लिम्बा।' श्रुतसागरजीने इनका भुतिमधुर नाम उमास्वामी रख दिया और तबसे दिसम्बर सीका प्रचार होगया; परन्तु प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रंथोंमें उनका नाम उमास्वाति मिलता है । म० उमास्वाति संभवत: श्री कुन्द दाचार्य शिष्य थे। इसलिये एवं उनकी सैद्धांतिक विवेचना कीमे, विमा साम्य योगसूत्र' मादिसे है. स्पष्ट है कि वह ईवी पहली शतान दिदन ये समयानुकूल भ० उमायाति पश्नत बल्लेखनीय नागार्यको समंमदम्बामी है। दिगम्बर द्विानों श्री समन्तभद्र लिये वह स्तवनाई और प्रमाणभूत है। स्वामी। पान्तु वाम्बर विद्वानों ने भी उनकी प्रमाणिता) खुके रिसे स्वीकार १-4.1, वर्ष १ पृ० १९. । २-तत्वमर्थक मुमास्वातिमुनी परं । चुतकेवलिदेशीय वन्देऽहं गुणमणिम् ॥बनेकान्त प. ३९५ ३-बनेकान्त, पृ. २६९ । -पूर्व पृष्ठ १८९-३९१ ।
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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