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________________ दक्षिण भारतका जैन-संप। [१५१ किया है.' भी शुभयान यी ६ · भरतभूषण ' कहा है। श्री समर दी गृध के वि में ! जाता है कि बहुतकर उन्होंने दक्षण11-2 बशको भने ममे सुशोमित किया । यह 2- उनी नि' भी माता नाम क्या ये; परंतु या ज्ञान है 'कन कि फणमानांतर्गत जग्गज न। :: . मद्रका बाल जैनधर्मके द्विार 3॥ में ली : म २ - तुम :: कि नाम प्रस्य न थे। उ गृश्र में पता किया नही यह गट न, किन्तु यहा कि वह वास्पकाममे की नपर्म गौर जिन्दा मन भक्त थे न बन को धाय आण र दिया था। पुमट उन जिमीक्षा बरण का भी मौकी ( कांजी३. म । उनी धर्मयाद था। 'गजाली थे ' में उनका :: बार हुन लिया। उन्होंने कहा कि “मैं पांच नम मधु ई " (च्या नमाटsis: ) नुनकला। परनय पी । यह स्पष्ट है कि वह मूलसंत्रा पर जान थे। म उनको अपन मधुनमें म दृस्मद गेग होगया था। यह मनों भोजन खा जाने थे, मग तृमि नहींनी या माविक शमन हरनेक लि उनोने पकवण मासीका भेष धान कर दिया गा।कांची उमममम शिवको नामक 'जा गय गता या चोर उसका भीमनिश' नामक शिक्षालय का। समन्तभद्रजी इसी शिवम पहुंचे और उन्होंने गजाको अपना अढाल बना पिया। सभामा प्रसार किया जिवावा । समन्तबहीने उससे
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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