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४] संमित जैन, विज्ञास। करनेकी प्रारम्भिक शिक्षा दी।' बारहवें कुलकरका नाम मरुदेव था। उन्होंने नाविक शिक्षाके साथ २ लोगोंको दाम्पत्यजीवनका महत्व हृदयङ्गम कराया। उन्हीके समयसे कहना चाहिये कि कर्मशील नर-नारियोंने घरगिरस्ती बनाकर रहना सीखा । शायद यही कारण है कि वैदिक साहित्यमें मारतके मादि निवासी ‘मुरुदेव' भी कहे गये हैं। मंतिम कुलकर नाभिराय थे जिनकी रानी मरुदेवो भी । इन्हीं दम्पतिके सुपुत्र भगवान ऋषभदेव थे।
भगवान ऋषमदेवने ही लोगोंको टीकसे सभ्य जीवन व्यतीत करना सिखाया था। उनके पूर्वोपार्जित शुभ कर्मोका ही यह सुफल था कि स्वयं इन्द्रने भाकर उनके सभ्यता और संस्कृतिके प्रसारमें सहयोग प्रदान किया था। कुटुंबोंको उनकी कार्यक्षमताके अनुसार उन्होंने तीन वर्गामें विभक्त कर दिया था, जो क्षत्री, वैश्य और शद्रवर्ण कहलाते थे । जब धर्मतीर्थकी स्थापना होचुकी तब ज्ञानप्रसारके लिये ब्राह्मणवर्ग भी स्थापित हुमा । इसतरह कुल भर वर्गों में समाज विभक्त करदी गई; किन्तु उसका यह विभाजन मात्र राष्ट्रीय मुविधा और उत्थानके लिये था। उसका माधार कोई मौलिक भेद न था। उस समय तो सब ही मनुष्य एक जैसे थे। नैतिक व अन्य शिक्षा मिलनेपर जैसी जिसमें योग्यता गौर क्षमतादृष्टि पड़ी वैसा ही उसका वर्ण स्थापित कर दिया गया; यद्यपि सामाजिक सम्बन्ध-विवाह शादी करने के लिये सब स्वाधीन थे । दक्षिण भारतमें भी इस व्यवस्थाका प्रचार था, क्योंकि वहांके साहि
१-. पर्ष ३ व १२ । २-संजा. ११२१ ।