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________________ संक्षिप्त जैन इतिहास | शौर्यपुर में राजा समुद्रविजय रहते थे। उनकी रानीका नाम शिवादेवी था। उन्होंने कार्तिक कृष्ण तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि । द्वादशीको अन्तिम रात्रिमें सुन्दर सोनह स्वप्न देखें; जिनके अर्थ सुनने से उनको विदित हुआ कि उनके बावीसवें तीर्थङ्कर जन्म लेंगे । दम्पति मह जानकर अत्यन्त हर्षित हुये । आखिर श्रावण शुक्ला पंचमीको शुभ मुहूर्तमें सती शिवादेवीने एक सुंदर और प्रतापी पुत्र प्रभव किया। देवों और मनुष्योंने उसके सन्मान में आनन्दोत्सव मनाया। उनका नाम अरिष्टनेमि खखा गया। अरिष्टनेमि युवावस्थाको पहुँचने पहुंचते एक अनुपम व प्रमाणित हुये । मगधके राजा जरासिंधुसे यादवो की हमेशा लड़ाई बनी रहती थी । अरिष्टनेमिने अपने भुज विक्रमका परिचय इन संग्रामोंमें दिया था । つ J जरासिंधु आये दिन होते हुये अक्रमणों तंम भाकर यादवोंने निश्चय किया कि वे अपने चचेरे भाई सुबारकी नाई सुराष्ट्रमें जा रमे । उन्होंने किया भी ऐसा हो। सब यादवगण खुम्बूको चले गये गये और वहां समुद्रतटपर द्वारिका बसाकर राज्य करने लगे । इस प्रसंग सु- राष्ट्रके विषय में किंचित् लिखना अनुपयुक्त नहीं है। मालूम ऐसा होता है कि सु- राष्ट्रका परिचय । यादवका सम्बन्ध सु-जातिके लोगों था; जिन्हें सु-मेर कहा जाता है बौर जो मध्य ऐशिया में फैले हुये थे । किन्तु मूलमें वे भारतवर्षके ही
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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