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पौराणिक काछ ।
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परे रहते थे । 'स्वार्थ' नहीं - 'कर्तव्य' उनका मार्गदर्शक था । इसीलिये वह एक आदर्श सम्राट् और महान योगी के रूपमें प्रसिद्ध हुए ।
'चक्रवर्ती' – पदको सार्थक बनानेके लिये अपने और पराये सब ही शासकोंको एकदफा नतमस्तक बना देना आर्य राजनीतिका ताज़ा रहा है । सम्राट् भरतको चक्रवर्ती होना था। उन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी जीत ली थी। परन्तु उनके भाई मभी बाकी थे । सम्राट्ने चाहा कि उनके भाई केवल उनकी आन मान लें । पर वे सब स्वाधीन वृत्ति क्षत्री थे । उन्होंने भाईके स्वार्थ और ऐश्वर्यमदको विवेक नेत्रसे देखा और सोचा- "यह पृथ्वी पिताजीने हमें दी है । हमारे बड़े भाई उसपर अपना अधिकार चाहते हैं । हम इसमे मोह क्यों करें ? पिताजी इसे छोड़ गये । चलो, हम भी इसे त्याग दें ।” उन्होंने जैसा सोचा वैसा कर दिखाया । वे सब तीर्थङ्कर ऋषभदेवके चरणतलमे जाकर मुनि होमये ।
भरतकं भाइयोंमें बाहुबलि बाकी रहे । भरत महाराजने मंत्रियोंकी सम्मतिको आदर देकर अपना दून उनके पास भेजा । दुतने बहुतमी उनार चढावकी बातें कहीं; परन्तु बाहुबलिपर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ । उन्होंने दूतके द्वारा भरत महाराजको रणानगर्मे आनेके लिये निमंत्रण भिजवा दिया । सम्राट् भग्त पहले से ही इस व्यवसरकी प्रतीक्षा में थे । उन्होंने अपनी चतुरंगणी सेना समाई और वह लावलश्कर लेकर पोदनपुरके लिये चल दिये ।
उधर बाहुबलिशी सेना भी शस्त्रास्त्र सुसज्जित हो रणक्षेत्र भाटी । दोनों सेनायें आमने-सामने युद्ध के लिए तैयार कीं। दो