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________________ १४६) संमिश और बिहान । ६) पांचो परिच्छे में गृहस्थ जीवन के निदेवपापतिषिसत्कार, बन्धु-बांधवों की सहायता भौर मात्मोति करना बादाम बताया है। मगवत् कुंदकुंदस्वामीने भी देवपूग करना गौर दान देना तथा जात्मोनति करना एक गृहसके लिये पुसवताये। (७) नई परिच्छेद गतिथिको भोजन देने और मेहमान दारीका विधान है। न हासोंचे गृहस्व लिये एक मग 'पतिषि संविधाय' । (८) उनीसवे परिच्छेदके अंतिम पदमें 'कु' मनुष्यको निज दोषोंकी बालोचना करनेका उपदेश देता है। बनधर्म में प्रत्येक गृहस्पके लिये प्रतिकमण-दोषों के लिये मालोचनादि करना लाजमी है। (९) बीसवे परिच्छेद छायाकी तरह पाप-कमोको मनुष्य साब लगा रहते और सर्वस्व नाश करते बताया है मो सर्वथा जैन मान्यता अनुकूल है। मरने पर भी जन्मान्तरों तक पाप कर्म मृतामासे मिल रहकर उसको कष्टका कारण बनने हैं, वह मेन मान्यता सर्वविदित है। (१०) पचीसवें परिच्छेदमें जैन सामोंके सर ही निरामिन भोजनका उपदेश है। यदि कुरखका रचयिता जैन न होकर वैदिक ब्रामण अश्या बौद्ध होता तो वह इस प्रकार सर्वथा मांस-मदिरा त्याग करने का उपदेश नहीं दे सकता था; क्योंकि उन लोगों इनका सर्वया निषेध नहीं। १-तत्वाषिराम । २-१५०, पृ. १२-१०।
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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