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________________ दक्षिण भारतका जैन-मेघ । ११ - 1. महाबीर से भी प्राचीन जैन संघ के साधु नद्म-पथः जातरूपमें ते थे- वह भनौदेशिक मोजन दिनमें एकबार करने थे- निमंत्रण स्वीकार नहीं करने थे-जनोपका में तल्लीन रहते थे। बसती से बहुत दुर एकांतवास करने थे। श्रावक और श्रविायें उनकी भक्ति - वंदना करते थे। उनमें से प्रमुख महापुरुषोंकी में मूर्तियां और निविषिकायें बनाकर उनकी भी पूजा किया करते थे। व्रती भावक श्वेत वस्त्र पहना करने थे। पकी यह रूपरेखा भी भ० महावीर के संके साधारणतः प्राचीन जैन दक्षिण भारत में नादि नीकर ऋषभदेव द्वारा ही जैनधर्मका प्रचार होगया था । यह पहले लिखा जा चुका है। और चूंकि ऋषभदेव स्वयं दिगम्बर बमें रहे थे, इसलिये दक्षिण भारतीय जैन संघके माधुगण भी उन्हींकी तरह नम मेषमें विचरते थे। दक्षिण भारतकी प्राचीन मूर्तियोंसे यही प्रगट है कि उस समय के जैन साधुगण नम रहते थे। वे साधुगण अपने प्राचीन नाम 'भ्रमण' से प्रसिद्ध थे और जैन संघ 'निर्ग्रन्थसंघ' कहलाता था। तामिलके प्राचीन काव्योंसे स्पष्ट है कि उनके रचनाकालमें दिगम्बर जैन धर्म ही दक्षिण भारतमें प्रचलित था । विज्ञानोंका मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य्यके गुरु श्रुतकेबली मद्र दक्षिण भारतीय जैन संघ । १- ममवु० पृ० ६१-६९ । २-ममबु० पृ० ६०-६१ । ३ - मेस्मा • पृष्ठ १५, ४१, १२, ६१, ६९, ७४ व १०७ ० भूमिका व चित्र देखो। ४ – साई पृ० ४७ व जेसाई० पृ० ४० ।
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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