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________________ दकि -का १५ मारश्य गती थी और जेनोंकी पापणा मी गति सरल की। हाविदोंने उसको सहमे ही अपना लिया या ! नती करणविश पूजा वीर निषि स्थापन प्रभाका मी उन लोगों का था।' परिणाम स्वरूप इस प्राचीन काल में जैनी उपगन्त.. साठवीं शताब्दिमे कहीं ज्यादा सम्मान्य और प्रतिसके। तामिक महाकाव्योमे तत्कासन बेन संपली क्रिगोंडा ठीक परिचय मिलता है। उनमे प्रगट 10 संपकी रूपरेला। निर्गन्ध साधुगण प्रमों और नगरे बाहर पल्लियों का विहार गते, को जातक छाबामे युक्त मोर का रंगसे पुती हो उनी दीगों थे। उनके मागे छोटे-छोटे बगीचे मी रोते थे। उनके मंदिर तिगो मोर चौगों पर बने होते थे। उनके गाने पर कर्म बने हुये थे जिन परमे बह पोम्देश दिया सने थे। विहारो माब माथ ही माविकायोंकि विनाम भी हुमा डरते थे, जिनसे प्रगट है कि तामिल सी समाजानी भाबिहाबोर काफी प्रभाव का। चोलोंडी राजधानी क महिनम्, सब जायेरी वटपर स्थित उपयु-में गोपनीय पतियां और किस । माग बेन संघका केन्द्र वा। यहां मविकट गुफागोवे और f १-मा . १८-R; साई. १२८....1 --उपाडवायो a का विवामोका मोर शामें मारें। (eg. प.) २-बाईक., मा. . .
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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