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________________ 180] मेमा। वहीं है। परन्तु साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि श्री मावार्य द्वारा उपर्युक प्रकार उत्सव स्थापना होने पर निक उपरान्त संभवतः उन भाचार्यी नाम मपेक्षा 'बलात्कारमय' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। कहा जाता है कि इसी समय गिरिनार पर्वत पर तीथकी वंदना पहले या पीछे करनेके मनको केकर दिगम्बर और नम्बरोंने बाद उपस्थित हुआ था । दिगम्यने वहां पर स्थित 'सरस्वती देवी कर जपनी प्राचीनता और महता स्थापित की थी। इसी कारण उनका संघ मूलसंघ सरस्वती गच्छ के नामसे प्रसिद्ध होगया था। इसके बाद मुजे श्री कुंकुंद नामके एक महान् माचार्य की मूर्ति मुखसे कह 4 १-०० भा० २० पृ० ३४२ । दिगम्बायको इन मान्यताओंका बाधार केवळ मध्यकाळीम है। इसी कारण इन मान्यताको पूर्णतया प्रमाणिक माना कान है। परंतु साथ है। यह भी एक पति साहसका काम होगा, यदि हम इनको सर्वथा अविश्वसनीय कहीं; क्योंकि इनमें जो प्र गाथायें दी गई है वह इनकी मान्यताओंका प्राचीन पुछ करती है। यही कारण है कि डॉ० इनके सा० ने मी इन बलियोको सर्वथा कुन नहीं किया था। यदि थोड़ी देने लिए हम इन हाथयोकी मान्यताओंको कपोकप रूम घोषित करदें, तो फिर वह कौनसे प्रमाण और साधन होंगे जिनके आधार से हम 'मुहसंघ, सरस्वती कारण, कुन्दकुन्दान्वय' बादि सम्बन्धी विवरण उपस्थित कर सकेंगे ! इस कये हमारे विचारसे इन पट्टाब कियों को हमें उस समय तक अवश्य मान्य करना चाहिये कि उनका वर्णन |
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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