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________________ दक्षिण भारतका जैन संघ । - [ १३१ उत्पाद, व्यय, घोष होता है। हरे चनको और चीजो साथ मिलाकर मिटई बनाकी गई परन्तु चनेका स्वभाव यहां नष्ट नहीं हुआ, यद्यपि उसका रूप बदल गया ! धर्मव्य हर ठौर है और वह प्रत्येक वस्तुको व्यवस्थित गतिमे हमेशा चलाने में कारण है। इसी अधर्मद्रव्य प्रत्येक पदार्थही स्थिर रखने कारण है और सर्व बिनाशको रोकता है। क्षण और लाग्शे म भी है। आकाश सब पदार्थों को स्थान देता है। जब एक शरीरमे प्रवेश करके पांच इन्द्रियों द्वारा चलता, सुरता, छूना, सुनता और देखता है। एक गणु शरीररूप अथवा मन्यरूप ( अनेक पाणुओंव मिलकर ) हो बाता है। पुण्य और पापमई को श्रतको गेना, संचित का परिणाम भुगता देना और सर्व कचन मुक्त होजाना मं है।" ६ मेनसिद्धांउका यह रूप ठीक वैसा ही है जैसा कि आज वह मिळ हा है। अच्छा तो, बहाक के विवेचन मे यह स्पष्ट है कि दक्षिण मारदिगम्बरधर्म ही प्राचीनकाल से श्वेताम्बर जैनो । प्रचलित था और उसकी मान्यता भी जनसमुदाय में विशेष थी। किन्तु प्रश्न बह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदापके जैदी दक्षिण भारत में कब पहुंचे ! इस प्रश्नका उत्तर देने के लिये जैन संघके इन दोनों सम्पदाका उत्पत्तिकाल हमे स्मरण रखना चाहिए। यह सर्वमान्य है कि जनसंघ मेवकी जड़ मौर्यकालमें ही पड़ गई थी। उत्तरभारतमें रहे हुवे संघवें शिविकाचार प्रवेश कर गया था मौर उस संपके सामने ब
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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