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________________ सपी हरिण। कोई नगर था । इमी नगग्में उनके पहले प्रतिनारायण तारकका मन्म हुआ था । दक्षिण भारतमें इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंका गज्य एक समय रहा था । इसलिये ही यह अनुमान ठीक है कि हरिपेण चक्रवतीका मम्बंध दक्षिण भारतसे था। हरिषेण बाल्यकालसे ही धर्मरुचिको लिये हुए थे। एक मेज वह अपने पिता राजा पद्मनामके साथ अनन्नतीर्थ मुनिराजकी वंदना करने गये। मुनिराजमे उनहोंने धर्मोपदेश सुना। राजा पद्मनाभ विरक्त होकर मुनि होगये और हरिषणने श्रावकके व्रत लिये। जब पद्मनामको केवलज्ञान उत्पन्न हुमा तब ही हरिण चक्रवर्तीको चक्ररत्नकी प्राप्ति हई। हरिषेणने पहले केवली भगवानकी वन्दना की, पश्चन षटम्वण्ड पृथ्वीको विजय किया । इम दिग्विजयमें उन्होंने निम्मन्देह दक्षिण भारतको भी विजय किया था। हरिपेग धर्मात्मा सम्राट थे ! उन्होंने एकदा अष्टालिका मह व्रतकी पूजा की, जिससे उनके परिणाम धर्मरसमे मलिक होमये। उन्होंने अट्टालिका पावट पूर्ण नन्द्रको 'दुःखेन देन्बा, जिनमे उन्हें महायान पुत्र हामी न मीमंतक पर्वतपर श्री नाग मुनाबक निकट दीक्षा ग्रहण काली। मुनि हरिषेणने खूब तर तपा और समाधिमाण द्वारा भायु समाप्त करके सर्वार्थसिदिमें महमिन्द्रपद पाया।' १-उपु०१७-८४............!
SR No.010475
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 03 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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