Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक ਧੁਧਾਈ ਸਕਣ ਕਿ निरयावलिकासूत्र / (मूल-अज्ञवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाण्ट युक्त) in Education internal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रन्यमाला : ग्रन्थाङ्क 21 [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित ] निरयावलिकासूत्र [ कप्पिया, कप्पडिसिया, पुल्फिया, पुष्फचूलिया, यहिदसा ] प्रेरणा 0 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्रीवजलालजी महाराज प्राद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक। (स्व०) युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-सम्पादक। देवकुमार शास्त्री मुख्य सम्पादक 0 पं. शोमाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक / श्री प्रागमप्रकाशन समिति, ज्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रस्थमाला : प्रन्याङ्क 21 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' - सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2511 वि. सं. 2041 ई. सन् 1985 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, च्यावर (राजस्थान) ज्यावर-३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ 0 मूल्य मूल्य (जीवकिले मूल्य 25) i पोल्य 25) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj NIRAYAVALIKA SUTRA [Kappia, Kappavadinsia, Pupphia, Pupphachulia, Vahaidasa] Inspiribg Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Conveper & Founder Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj "Madhukar Translator Deokumar Shastri Chief Editor Pt. Shobha Chandra Bharill Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 21 Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2511 Vikram Samvat 2041, Feb. 1985 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) (India) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price R p 979 25 26 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय ग्रन्थाङ्क 21 के रूप में निरयावलिका सूत्र पाठकों के समक्ष उपस्थित किया जा रहा है। इसमें पाँच आगमों का समावेश है-~-कप्पिया, कप्पडिसिया, पुफिया, पुष्पचूलिया और वहिदशा ! 'कप्पिया' का दूसरा माम निरयावलिका—निरयावलिया भी है और सामान्यरूप से ये पाँचों सूत्र 'निरयावलिया' की संज्ञा से अभिहित होते हैं। इन सभी में व्यक्तियों के चरित वर्णित है किन्तु अत्यन्त संक्षिप्त शैली में / अतएव ये आकार में बहुत इसी कारण पांचों सूत्रों को एक ही साथ-एक ही जिल्द में प्रकाशित किया जा रहा है। इससे पूर्व इन सूत्रों के जितने संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनमें भी ऐसा ही किया गया है। इन सूत्रों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी श्रद्धेय मुनिश्री देवेन्द्रमुनिजी म. की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना को पढ़कर प्राप्त की जा सकती है। मुनिश्री का अध्ययन बहुत विशाल है और प्रस्तावना-लेखनादि में प्रापका अत्यन्त मूल्यवान् सहयोग इस समिति को प्राप्त है। सचाई तो यह है कि आपका सहयोग भी प्रकाशन की त्वरित गति में एक प्रमुख निमित्त है। प्रेस में अन्य कार्यों की बहलता होने से बीच में मुद्रणकार्य कुछ विलम्बित हो गया था, पर अब वह पूर्व गति से चलता रहेगा, ऐसा प्रेस-प्रबन्धकों ने विश्वास दिया है। हमारी हार्दिक इच्छा है कि बत्तीसी-प्रकाशन का यह कार्य शीघ्र से शीघ्र सम्पन्न हो जाए और दिवंगत श्रद्धेय युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' द्वारा प्रारब्ध यह भगीरथ-कार्य सम्पन्न करके समिति उनके असीम उपकारों का यत्-किंचित् बदला चका सके। प्रस्तुत प्रकाशन में जिन-जिन महानुभावों से जिस-जिस रूप में सहयोग प्राप्त हुआ है, हम उनके प्राभारी हैं। अनुवादक के रूप में पं. देवकुमारजी शास्त्री तथा सम्पादक-संशोधक के रूप में पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल का स्थायी रूप से सहयोग हमें प्राप्त ही है। का स्तचंद्र मोदी - रतनचंद्र मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 0जतनराज महता 0चांदमल विनायकिया प्रधानमंत्री मंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर / जनजानम महता. चांदमल बिनायकिया Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति अध्यक्ष गोहाटी कार्यवाहक अध्यक्ष ब्यावर उपाध्यक्ष मद्रास उपाध्यक्ष जोधपुर उपाध्यक्ष ब्यावर उपाध्यक्ष मद्रास मेड़तासिटी महामन्त्री मन्त्री ब्यावर मन्त्री पाली सहमन्त्री ब्यावर कोषाध्यक्ष ब्यावर कोषाध्यक्ष मद्रास सदस्य मद्रास 1. श्रीमान सेठ कंवरलालजी वैताला 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी 3. सेठ खींवराजजी चोरडिया 4. श्रीमान् हुक्मीचन्दजी पारख 5. श्रीमान् धनराजजी विनायकिया 6. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चोपड़ा 11. श्रीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया 13. श्रीमान् पारसमलजी चोरड़िया 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान् भंवरलालजी गोठी 20. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल 21. श्रीमान् किशनचन्दजी चोरड़िया 22. श्रीमान् प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया 23. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 24. श्रीमान् भंवरलालजी मूथा 25. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल सदस्य नागौर सदस्य मद्रास सदस्य बैंगलौर सदस्य ब्यावर सदस्य इन्दौर सदस्य सिकन्दराबाद सदस्य मद्रास सदस्य दुर्ग सदस्य मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य नागौर सदस्य जयपुर परामर्शदाता व्यावर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग पागम है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी भगवान महावीर ने अपने पाप को निहारा और सम्पूर्ण लोक को भी निहारा / उन्होंने सत्य का प्रतिपादन किया / वे सत्य के व्याख्याकार थे, कुशल प्रवचनकार थे। उन्होंने बन्ध, बन्धहेतु, मोक्ष और मोक्षहेतु का रहस्य उद्घाटित किया। इस कारण वे तीर्थकर कहलाये। तीर्थकर शब्द में तीर्थ शब्द व्यवहुत हुग्रा है। तीर्थ शब्द के अनेक अर्थों में से एक अर्थ प्रवचन है / इस दृष्टि से प्रवचन करने वाला तीर्थकर कहलाता है। दीघनिकाय के सामनफलसुत्त में छह तीर्थंकरों का उल्लेख पा है। प्राचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कपिल प्रादि को तीर्थ कर लिखा है। सूत्रकृतांग चणि में भी प्रवचनकार के अर्थ में तीर्थकर शब्द का प्रयोग हुप्रा है।' पर यहां पर यह स्मरण रखना होगा कि जैन परम्परा में सामान्य वक्ता के लिए तीर्थंकर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। विशिष्ट महापुरुष, जो उत्कृष्ट पुण्यप्रकृति के धनी होते हैं, उन्हीं के लिए तीर्थकर शब्द व्यवहृत है। तीर्थकर के प्रवचन के आधार पर धर्म की आराधना करने वाले श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका को तीर्थ कहा जाता है। श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचन आगम के रूप में विश्रुत हैं। भगवान महावीर के पावन प्रवचनों को उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने सूत्र रूप में गया जिससे पागम के दो विभाग हो गए-सूत्रागम और अर्थागम / भगवान् का पावन उपदेश अर्थागम और उसके आधार पर की गई सूत्ररचना-सूत्रागम है। यह प्रागमसाहित्य प्राचार्यों के लिए निधि बन गया, इसलिए इसका नाम गणिपिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक भाग बारह हुए, जो द्वादशाङ्गी के नाम से जाना और पहचाना जाता है। अंग और उपांग : एक चिन्तन प्राचीन काल से आगमों का विभाजन अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में चला पा रहा है। प्राचार्य देववाचक ने अंगबाह्य का कालिक और उत्कालिक के रूप में विवेचन किया है। आज वर्तमान में जो उपांगसाहित्य उपलब्ध है उसका समावेश अंगबाह्य में किया जा सकता है। उपांग प्रागम-ग्रन्थों का निर्धारण कब हुमा, इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। मूर्धन्य मनीषियों का मन्तव्य है कि जब प्रागम-पुरुष की कल्पना की गई तब अंगस्थानीय शास्त्रों की परिकल्पना की गई। उस समय उपांग भी अमुक-अमुक स्थानों पर प्रतिष्ठापित करने के लिए परिकल्पित किये गये / हम पूर्व में बता चुके है कि अंगसाहित्य की रचना गणधरों ने की है। उनके स्वतंत्र विषय हैं / उपांग साहित्य के रचयिता स्थविर हैं। उनके अपने विषय हैं। अत: विषय, वस्तुविवेचन प्रादि की दृष्टि से अंग, उपांगों से भिन्न हैं / उदाहरण के रूप में अन्तकृदशा का उपांग निरयावलिया-कल्पिका है। उपांग का विषय विश्लेषण प्रस्तुतीकरण आदि की दृष्टि से अंग के साथ सम्बद्ध होना चाहिये पर उस प्रकार का सम्बन्ध यहां नहीं है। 1. (क) पर तत्र तीर्थकरः (ख) वयं तीर्थकरा इति -सूत्रकृतांग चणि पृष्ठ 47 -वही-पृष्ठ 322 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिकदशा का उपांग कल्पावतंसिका है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद के उपांग क्रमशः पुष्पिका पुष्पचलिका और वृष्णिदशा है। यदि गहराई से देखा जाय तो ये उपांग अंगों के वास्तविक पूरक नहीं हैं, तथापि इनकी प्रतिष्ठापना किस दृष्टि से की गई है, यह प्राग ममनीषियों के लिये चिन्तनीय और गवेषणीय है। हमारी दृष्टि से वेदों के गम्भीर अर्थ को समझने के लिए वेदांगों की परिकल्पना की गई जो शिक्षा, व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प के नाम से प्रसिद्ध है। इनके सम्यक् अध्ययन के बिना वेदों के रहस्य को समझना कठिन है और उसे बिना समझे याज्ञिक रूप में उसका क्रियान्वयन सम्भव नहीं। वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र, ये चार उपांगों की भी कल्पना की गई। और यह कल्पना वेदों के अर्थ को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिये की गई जिसके फलस्वरूप वेदाध्ययन में अधिक सुगमता हुई। इसी तरह से जैन मनीषियों ने अंग के साथ उपांग की कल्पना की हो और एक-एक अंग के साथ एक-एक उपांग का सम्बन्ध स्थापित किया हो / तर्क-कौशल, वाद-नैपुण्य की दृष्टि से परस्पर तालमेल और संगति बिठाई जा सकती है पर उपांग में पूरकता का जो विशेष गुण होना चाहिये उसका प्रायः इनमें प्रभाव है। नाम बोष निरयावलिया (निरयावलिका) श्रतस्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) निरयावलिका या कल्पिका (2) कल्पावतंसिका (3) पुष्पिका (4) पुष्पचूलिका और (5) वृष्णिदशा / विज्ञों का अभिमत है कि ये पांचों उपांग पहले निरयावलिका के नाम से ही थे; फिर 12 उपांगों का 12 अंगों से सम्बन्ध स्थापित करते समय उन्हें पृथक्-पृथक् गिना गया। प्रो. विन्टरनित्ज का भी यही अभिमत है। जिस पागम में नरक में जाने वाले जीवों का पंक्तिबद्ध वर्णन हो वह निरयावलिया है। इस पागम में एक ध तस्कन्ध है, बाबन अध्ययन हैं, पाँच वर्ग हैं, ग्यारह सौ श्लोक प्रमाण मूल पाठ है। निरयावलिया के प्रथम वर्ग के दस अध्ययन हैं। इनमें काल, सुकाल, महाकाल, कण्ह, सुकण्ह, महाकण्ह, वीरकण्ह, रामकण्ह, पिउसेनकण्ह, महासेनकण्ह का वर्णन है। सम्राट् श्रेणिक : एक अध्ययन प्राचीन मगध के इतिहास को जानने के लिये यह उपांग बहुत ही उपयोगी है / इसमें सम्राट् श्रेणिक 2. छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते / ज्योतिषामयनं चक्षनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते / / शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् / तस्मात् सांगमधीत्यव, ब्रह्मलोके महीयते // -पाणिनीय शिक्षा, 41-42 3. (क) संस्कृतहिन्दी कोष : प्राप्टे, पृष्ठ 214 / (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M. Williams, Page 213. (म) पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश / -याज्ञवल्क्य स्मृति, 1-3 [8] : Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के राज्यकाल का निरूपण हुआ है। सम्राट् श्रेणिक का जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परामों में क्रमश: 'श्रेणिक भिभिसार' और 'श्रेणिक बिंबिसार' इस प्रकार संयुक्त नाम मुख्य रूप से मिलते हैं। जैन दृष्टि से श्रेणियों की स्थापना करने से उनका श्रेणिक नाम पड़ा। बौद्ध दृष्टि से पिता के द्वारा अट्ठारह श्रेणियों का स्वामी बनाये जाने के कारण वह अंगिक बिंबिसार के रूप में विश्रत हुआ। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परामों में श्रेणियों की संख्या अट्ठारह ही मानी गई है।' श्रेणियों के नाम भी परस्पर मिलते-जुलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में नवनारू, नव-कारू,' श्रेणियों के अट्ठारह भेदों का विस्तार से निरूपण है। किन्तु बौद्धसाहित्य में श्रेणियों के नाम इस प्रकार व्यवस्थित प्राप्त नहीं हैं / 'महावस्तु' में श्रेणियों के तीस नाम मिलते हैं, उनमें से बहुत से नाम 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उल्लिखित नामों से मिलते-जुलते हैं। डॉ. आर. सी मजूमदार ने विविध ग्रन्थों के आधार से सत्ताईस श्रेणियों के नाम दिये हैं, पर वे निश्चय नहीं कर पाये कि अद्वारह श्रेणियों के नाम कौन से हैं।'० सम्भव है उन्होंने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अवलोकन न किया हो। यदि वे अवलोकन कर लेते तो इस प्रकार उनके अन्तर्मानस में शंका उबुद्ध नहीं होती। कितने ही विज्ञों का यह भी अभिमत है कि राजा श्रेणिक के पास बहुत बड़ी सेना थी और वे सेनिय गोत्र के थे इसलिये उनका नाम श्रेणिक पड़ा।" जैन साहित्य में राजा श्रेणिक की महारानियाँ जैन साहित्य के अनुसार राजा श्रेणिक की पच्चीस रानियां थीं, उनके नाम इस प्रकार हैंअन्तकृद्दशांग 2 में (1) नन्दा (2) नंदमती (3) नन्दोत्तरा (4) नन्दिसेणिया (5) मरुया (6) सुमरिया (7) महामरुता (5) मरुदेवा (9) भद्रा (10) सुभद्रा (11) सुजाता (12) सुमना (13) भूतदत्ता (14) काली (15) सुकाली (16) महाकाली (17) कृष्णा (18) सुकृष्णा (19) महाकृष्णा (20) वीरकृष्णा (21) रामकृष्णा (22) पितुसेनकृष्णा और (23) महासेनकृष्णा / इन तेईस रानियों ने सम्राट् श्रेणिक के निधन के पश्चात् भगवान् 4. श्रेणी: कायति श्रेणिको मगधेश्वरः / -अभिधानचिन्तामणिः, स्वोषज्ञवत्तिः, मर्त्य काण्ड, श्लोक 376, 5. स पित्राष्टादशसु श्रेणिस्ववतारितः, अतोऽस्य श्रव्यो बिम्बिसार इति ख्यातः // -विनयपिटक, गिलगिट मांसकृष्ट / 6. जम्बूद्वीपपण्णत्ति, वक्ष. 3; जातक, मूगपक्ख जातक, भा. 6 / 7-8. कुंभार, पट्टइल्ला, सुवण्णकारा, सूबकारा य / . गंधव्वा, कासवग्गा, मालाकारा, कच्छकरा // 1 // तंबोलिया य एए नवप्पयारा य नारुपा भणिया / अह ण णवप्पयारे कारुपवण्ण पवक्खामि // 2 // चम्मयरु, जंतपीलग, मंछिप, छिपाय, कसारे य / सीवग, गुपार, भिल्लग, धीवर वण्णइ अट्ठदस // 3 // . -जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति 9. महावस्तु भाग 3, पृष्ठ 113 तथा 442-443 10. Corporate Life in Ancient India, Vol. II. P. 18 11. Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, pp. 286-1284. 12. अन्तकृद्दशांग, वर्ग 7, अ. 1 सू. 13; वर्ग 8 अ. 1-10 [9] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के नेतृत्व में आर्हती दीक्षा ग्रहण की थी। ज्ञाताधर्मकथा' 3 में श्रेणिक की एक रानी घारिणी का भी उल्लेख है। दशाश्र तस्कन्ध'४ में महारानी चेलना का वर्णन है जिसका रूप अद्भुत और अनूठा था। जिसके दिव्य रूप को निहार कर भगवान महावीर की श्रमणियाँ ठगी-सी रह गई और वे निदान करने को तत्पर हो गईं। निशीथचूणि'" में श्रेणिक की एक रानी का नाम प्रपतगन्धा प्राप्त होता है पर यह नाम बहुत ही कम प्रसिद्ध है। बौद्ध साहित्य में महारानियां बौद्ध साहित्य विनयपिटक में राजा श्रेणिक को पांच सौ रानियों का उल्लेख है। कहा जाता है कि बिम्बिसार श्रेणिक को एक बार भगन्दर का भयंकर रोग हमा, राजा उस रोग से अत्यधिक व्यथित हो गया। जीवक को मार भत्य ने राजा को ऐसा लेप लगाया जिससे राजा रोगमुक्त हो गया। राजा की प्रसन्नसा का कोई पार नहीं रहा / राजा ने अपनी पांच सौ रानियों को बढ़िया वस्त्राभूषणों से अलंकृत करवाया और पांच सौ ही रानियों के वस्त्राभूषण उतरवाकर जीवक को उपहारस्वरूप दे दिये / विज्ञों का यह भी मंतव्य है कि वे पांच सौ महिलायें राजा की ही रानियाँ हों, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता / जातक के अनुसार राजा प्रसेनजित की भगिनी कोशला देवी का पाणिग्रहण राजा बिम्बिसार के साथ हमा था और प्रसेनजित ने एक लाख कार्षापण की आय वाला एक गांव दहेज के रूप में दिया था।' अट्ठकथा के अनुसार राजा श्रेणिक का विवाह मद्रदेश की राजकन्या खेमा के साथ हुआ था। राजकुमारी को अपने रूप पर अत्यन्त घमण्ड था। यह तथागत बुद्ध से प्रतिबुद्ध हो कर बुद्धशासन में प्रवजित हुई थी। थेरीगाथा के अनुसार उज्जयिनी की पदमावती गणिका भी श्रेणिक की पत्नी थी। अमितायुकन सूत्र के अमिमतानुसार वैदेही वासवी बिम्बिसार की रानी थी और शीलवा, जयसेना भी उनकी रानियाँ थीं।२. उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य में श्रेणिक की रानियों के जो नाम उपलब्ध हैं, वे नाम बौद्ध साहित्य में प्राप्त नहीं हैं और जो नाम बौद्ध साहित्य में हैं वे जैन साहित्य में नहीं मिलते हैं। संभव है परम्परा की दृष्टि से यह भेद हुआ हो / जैन साहित्य में श्रेणिक के पुत्र जैन साहित्य में सम्राट् श्रेणिक के छत्तीस पुत्रों का उल्लेख मिलता है। उन छत्तीस पुत्रों में राज्य का उत्तराधिकारी राजकुमार कुणिक था। इनके नामों की सूची इस प्रकार है-(१) जाली (2) मयाली (3) 13. ज्ञाताधर्म कथासूत्र अ. 1 सू. 8 (पत्र 14-1) 14. दशाशु तस्कन्ध, दसवीं दशा 15. निशीथचणि सभाष्य, भा. 1, पृष्ठ 17 16. महावग्ग 8-1-15 17. (क) जातक, 2-403 (ख) Dictionary of Pali Proper Names, Vol. II, p. 286 (ग) संयुक्त निकाय, अट्ठकथा 18. थेरीगाथा-अट्ठकथा, 139-143 19. थेरीगाथा, 31-32 20. Dictionary of Pali Proper Names, Vol. JII, P. 286 [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवयाली (4) पुरिमसेण (5) वारिसेण (6) दोहदन्त (7) लट्ठदन्त (8) वेहल्ल (9) वेहायस (10) अभयकुमार (11) दीहमेण (12) महासेण (13) लट्ठदन्त (14) गूढदन्त (15) शुद्धदन्त (16) हल्ल (17) दुम (18) दुमसेण (19) महादुमसेण (20) सीह (21) सीहसेण (22) महासीहसेण (23) पुण्णसेरण (24) कालकुमार (25) सुकाल कुमार (26) महाकाल कुमार (27) कण्ह कुमार (28) सुकण्ह कुमार (29) महाकण्ह कुमार (30) वीरकण्ह कुमार (31) रामकण्ह कुमार (32) सेणकण्ह कुमार (33) महासेणकण्ह कुमार (34) मेघ कुमार (35) नन्दीसेन और (36) कणिक / ___ इन राजकुमारों में से 23 राजकुमारों ने प्रार्हती दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट संयम की आराधना की वमानों में उत्पन्न हए। मेघ कुमार भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर अन्त में अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए / नन्दीसेन भी श्रमण बनकर साधना के पथ पर आगे बढ़े। इस प्रकार पच्चीस राजकुमारों के दीक्षा लेने का वर्णन है / ग्यारह राजकुमारों ने साधनापथ को स्वीकार नहीं किया और वे मृत्यु को प्राप्त कर नरक में उत्पन्न हुए। निरयावलिया के प्रथम वर्ग में श्रेणिक के दस पुत्रों का नरक में जाने का वर्णन है। श्रेणिक की महारानी चेलना से कणिक का जन्म हुआ। कणिक के सम्बन्ध में हम प्रौपपातिक सूत्र की प्रस्तावना में बहुत विस्तार से लिख चुके हैं, अत: जिज्ञासु पाठक विशेष परिचय के लिये वहाँ देखें / 21 कुणिक के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग प्रस्तुत प्रागम में है। कणिक अपने लघु भ्राता काल कुमार, सुकाल कुमार प्रादि के सहयोग से अपने पिता श्रेणिक को बन्दी बनाकर कारागृह में रखता है। क्योंकि उसके अन्तर्मानस में यह विचार घूम रहे थे कि राजा श्रेणिक के रहते हुए मैं राजसिंहासन पर आरूढ नहीं हो सकता। अत: उसने यह उपक्रम किया था। कूणिक अत्यन्त आह्लादित होता हुआ अपनी माँ को नमस्कार करने पहुंचा, पर माँ अत्यन्त चिन्तित थी। कूणिक ने कहा-माँ ! तुम चिन्ता-सागर में क्यों डुबकी लगा रही हो? मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, राजा बन गया हूं, तथापि तुम चिन्तित हो ! मुझे अपनी चिन्ता का कारण बतानो। मां ने कहा--तुझे धिक्कार है। तूने अपने पिता को कारागृह में बन्द किया है। जबकि तेरे पिता का तुझ पर अपार स्नेह था। जब तू मेरे गर्भ में पाया तो मुझे राजा श्रेणिक के उदर का मांस खाने का दोहद पैदा हुआ। दोहद पूर्ण न होने से मैं उदास रहने लगी। मेरी अंगपरिचारिकारों से राजा श्रेणिक को वह बात ज्ञात हो गई तथा महाराजा श्रेणिक ने अभय कुमार के सहयोग से मेरा दोहद पूर्ण किया। मुझे बहुत ही बुरा लगा, मैंने सोचा-जो गर्भ में जीव है वह गर्भ में ही पिता का मांस खाने की इच्छा करता है तो जन्म लेने के बाद पिता को कितना कष्ट देगा! यह कल्पना कर ही मैं सिहर उठी और मैंने गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न किया। पर सफल न हो सकी। तेरे जन्म लेने पर मैंने घूरे (रोड़ी) पर तुझे फिंकवा दिया। पर जब यह बात राजा श्रेणिक को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उन्होंने तुझे तुरन्त मंगवाया। घूरे पर पड़े हुए तेरे असुरक्षित शरीर पर कुक्कुट ने चोंच मार दी जिससे तेरी अंगुली पक गई और उसमें से मवाद निकलने लगा / अपार कष्ट से तू चिल्लाता था। तब तेरी वेदना को शान्त करने के लिये तेरे पिता अंगुली को मुंह में रखकर चूसते, जिससे तेरी वेदना कम होती और तू शान्त हो जाता। ऐसे महान उपकारी पिता को तूने यह कष्ट दिया है ! कणिक के मन में पिता के प्रति प्रेम उबुद्ध हुग्रा। उसे अपनी भूल का परिज्ञान हुअा। वह हाथ में परशु लेकर पिता की हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने के लिये चल पड़ा। राजा श्रेणिक ने दूर से देखा कि कणिक हाथ में परशु लिए पा रहा है तो समझा कि अब मेरा जीवनकाल समाप्त होने वाला है। पुत्र के हाथों मृत्यु प्राप्त हो, इससे तो यही श्रेयस्कर है कि मैं स्वयं कालकट विष खाकर अपने प्राणों का अन्त कर ले। 21. औपपातिक सूत्र, प्रस्तावना, पृष्ठ 20-24 (प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर) [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध साहित्य में अजातशत्रु का प्रसंग---- राजा श्रेणिक और अजातशत्रु (कूणिक) का यह प्रसंग बौद्धसाहित्य में भी मिलता है परन्तु दोनों में कुछ अन्तर है। बौद्धपरम्परा के अनुसार बैद्य ने राजा की बाहु का रक्त निकलवाकर महारानी के दोहद की पूर्ति की / महारानी को ज्योतिषी ने बताया कि यह पुत्र पिता को मारने वाला होगा अतः रानी उस गर्भस्थ शिशु को किसी भी प्रकार से नष्ट करने का प्रयास करने लगी। वह मन ही मन खिन्न थी कि इस बालक के गर्भ में प्राते ही पति के मांस को खाने का दोहद हुआ है, इसलिये इस गर्भ को गिरा देना ही श्रेयस्कर है। महारानी ने गर्भपात के लिए अनेक प्रयास किये पर वह सफन न हो सकी। जन्म लेने पर नवजात शिशु को राजा के कर्मचारी राजा के आदेश से महारानी के पास से हटा देते हैं, जिससे महारानी उसे मार न दे। कुछ समय के बाद महारानी को सौंपते हैं। पुत्रप्रेम से महारानी उसमें अनुरक्त हो जाती है। एक बार अजातशत्रु की अंगुली में फोड़ा हो गया। बालक वेदना से कराहने लगा जिससे कर्मकर उसे राज सभा में ले जाते हैं। राजा अपने प्यारे पुत्र की अंगुली मुख में रख लेता है, फोड़ा फूट जाता है। पुत्र प्रेम में पागल बना हुआ राजा उस रक्त और मवाद को निगल जाता है। अजातशत्रु जीवन के उषाकाल से ही महत्त्वाकांक्षी था। देवदत्त उसकी महत्त्वाकांक्षा को उभारता था। अतएव अपने पूज्य पिता को वह धूमगृह (लोहकर्म करने का गृह) में डलवा देता है। धूमगृह में कौशल देवी के अतिरिक्त कोई भी नहीं जा सकता था। देवदत्त ने अजातशत्र को कहा अपने पिता को पास्त्र से न मारें, उन्हें भूखे और प्यासे रखकर मारें / जब कौशल देवी राजा से मिलने को जाती तो उत्संग में भोजन छुपा कर ले जाती और राजा को दे देती। अजातशत्रु को ज्ञात होने पर उसने कर्मकरों से कहा-मेरी माता को उत्संग बांध कर मत जाने दो। तब महारानी जड़े में भोजन छिपाकर ले जाने लगी। उसका भी निषेध हुआ। तब वह सोने की पादुका में भोजन छुपा कर ले जाने लगी, जब उसका निषेध किया गया तो महारानी गन्धोदक से स्नान कर शरीर पर मधु का लेप कर राजा के पास जाने लगी। राजा उसके शरीर को चाट कर कुछ दिनों तक जीवित रहा / अजातशत्रु ने अन्त में अपनी माता को धूमगृह में जाने का निषेध किया / राजा श्रेणिक अब श्रोतापत्ति के सुख के आधार पर जीने लगा तो अजातशत्रु ने नाई को बुलाकर कहामेरे पिता के पैरों को तुम पहले शस्त्र से छील दो, उस पर नमकयुक्त तेल का लेपन करो और फिर खैर के अंगारे से उसे सेको। नाई ने वैसा ही किया जिससे राजा का निधन हो गया। जैन परम्परा की दष्टि से माता से पिता के प्रेम की बात को सुनकर कुणिक के मन में पिता की मृत्यू से पूर्व ही पश्चात्ताप हो गया था। जब कृणिक ने देखा-पिता ने आत्महत्या कर ली है तो वह मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़ा। कुछ समय के बाद जब उसे होश आया तो वह फूट-फूटकर रोने लगा-मैं कितना पुण्यहीन हूँ, मैंने अपने पूज्य पिता को बन्धनों में बांधा और मेरे निमित्त से ही पिता की मृत्यु हुई है। वह पिता के शोक से संतप्त होकर राजगृह को छोड़कर चम्पा नगरी पहुंचा और उसे मगध की राजधानी बनाया। तुलनात्मक अध्ययन-- बौद्धदृष्टि से जिस दिन बिम्बिसार की मृत्यु हुई, उस दिन अजातशत्रु के पुत्र हुआ। संवादप्रदाताओं ने लिखित रूप से संवाद प्रदान किया। पुत्र-प्रेम से राजा हर्ष से नाच उठा। उसका रोम-रोम प्रसन्न हो उठा। उसे ध्यान पाया- जब मैं जन्मा था तब मेरे पिता को भी इसी तरह आह्लाद हना होगा। उसने कर्मकारों से [ 12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा-पिता को मुक्त कर दो। संवाददाताओं ने राजा के हाथ में बिम्बिसार की मृत्यु का पत्र थमा दिया / पिता की मत्यु का संवाद पढ़ते ही वह आँसू बहाने लगा और दौड़कर मां के पास पहुंचा। मां से पूछा-माँ ! क्या मेरे पिता का भी मेरे प्रति प्रेम था ? माँ ने अंमुली चुसने की बात कही। पिता के प्रेम की बात को सुनकर वह अधिक शोकाकुल हो गया और मन ही मन दुःखी होने लगा। कणिक का दोहद, अंगुली में व्रण, कारागृह आदि प्रसंगों का वर्णन जैन और बौद्ध दोनों ही परम्परानों में प्राप्त है। परम्परा में भेद होने के कारण कुछ निमित्त पृथक हैं। जैन परम्परा की घटना 'निरयावलिका' की है और बौद्ध परम्परा में यह घटना 'अट्ठकथाओं में आई है। पं. दलसुख मालवाणिया निरयावलिका की रचना वि. सं. के पूर्व की मानते है और अट्ठकथाओं का रचनाकाल वि. की पांचवीं शती है / 23 - जैन परम्परा के साहित्य में भी कूणिक की क्रूरता का चित्रण है किन्तु बौद्ध परम्परा जैसा नहीं / बौद्ध परम्परा में अजातशत्रु अपने पिता के पैरों को छिलवाता है और उसमें नमक भरवाकर अग्नि से सेक करदाता है / यह है उसका दानवीय रूप / जैन परम्परा में श्रेणिक को कूणिक के द्वारा कारागृह में डालने की बात तो कही है पर पिता को अमानवीय तरीके से क्षुधा से पीड़ित कर मारने की बात नहीं कही। जैन दष्टि से श्रेणिक ने स्वयं ही मृत्यु को वरण किया है तो बौद्धपरम्परा में श्रेणिक अपने पुत्र अजातशत्रु द्वारा मरवाया गया।" महाशिला कंटक संग्राम पिता की मृत्यु के पश्चात् कूणिक राज्य का संचालन करने लगा। उसका सहोदर लघुभ्राता वेहल्ल कुमार था। सम्राट् श्रेणिक ने अपने पुत्र वेहल्ल कुमार को सेचनक हाथी और अट्ठारहसरा हार दिया था, जिसका मूल्य श्रेणिक के पूरे राज्य के बराबर था।५ प्रस्तुत प्रागम में हार और हाथी का प्रसंग बेहल्लकुमार के साथ बताया गया है जबकि भगवतीसूत्र की टीका, निरयावलिया की टीका, भरतेश्वरबाहुबली वृत्ति प्रभूति ग्रन्थों में हल्ल और वेहल्ल इन दोनों के साथ इस घटना को जोड़ा गया है। अनुत्तरोपपातिक में वेहल्ल और बेहायस को चेलना का पुत्र बताया गया है और हल्ल को धारिणी का पुत्र / निरयावलिका वत्ति और भगवती वृत्ति में हल्ल और वेहल्ल को चेलना का पुत्र लिखा है। प्रागममर्मज्ञों को इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता है। कुणिक ने अपना राज्य ग्यारह भागों में बांटा था।:कालकुमार, सुकाल कुमार आदि भाइयों को राज्य का हिस्सा दिया था पर हल्ल, वेहल्ल को नहीं। वेहल्लकुमार सेचनक हस्ती पर आरूढ़ होकर अपने अन्त:पुर के साथ गंगा नदी के तट पर जलक्रीड़ा के लिए ता है। उसकी प्रानन्दक्रीड़ा को निहार कर कणिक की पत्नी पद्मावती के मन में हार-हाथी प्राप्त करने की भावना जागृत हुई। उसने पुनः पुनः कुणिक को कहा कि हार-हाथी भाई से प्राप्त करो। कृणिक ने तब वेहल्ल को बुलाकर कहा-मुझे हार-हाथी दे दो। उसने कहा-मुझे ये दोनों पिता ने दिए हैं। वेहल्ल कुमार को लगा-कणिक मुझसे हार-हाथी छीन लेगा अतः वह कूणिक के भय से अपनी वस्तुओं को लेकर अपने नाना चेटक के पास वैशाली पहुंच गया। कणिक को जब ज्ञात हुआ तो उसने दूत को भेजा। चेटक ने कहा-शरणागत 22. प्रागमयुग का जैनदर्शन, सन्मतिज्ञानपीठ आगरा 1966, पृ. 29 --पं. दलसुख मालवणिया 23. प्राचार्य बुद्धघोष-महाबोधिकसभा, सारनाथ, वाराणसी, 1956 24. धर्मकथानुयोग : एक समीक्षात्मक अध्ययन-~-प्रस्तावना-पृष्ठ 117 (ले. देवेन्द्र मुनि शास्त्री) 25. आवश्यकचूणि, उत्तराद्ध, पत्र 167 [ 13 ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है / यदि कूणिक हार और हाथी के बदले आधा राज्य दे तो हम हार और हाथी लौटा सकते हैं / कूणिक को यह संदेश प्राप्त हुआ तो उसे अत्यन्त क्रोध आया। बह अपने दसों भाइयों को सेना को लेकर वैशाली पहुंचा। कूणिक की सेना में तेतीस सहस्र हस्ती, तेतीस सहस्र अश्व, तेतीस सहस्र रथ और तेतीस करोड़ पदाति थे / राजा चेटक ने नौ मल्लकी, नौ लिच्छवी, इन अदारह काशी-कौशल राजाओं को बुलाकर उन से परामर्श किया। सभी ने कहा-शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का कर्तव्य है। वे सभी युद्ध के मैदान में पाए / चेटक की सेना में सत्तावन सहस्र हाथी, सत्तावन सहस्र अश्व, सत्तावन सहस्र रथ और सत्तावन करोड़ पदाति सैनिक थे। राजा चेटक भगवान महावीर का परम उपासक था। उसने श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण किए थे। उसने एक विशेष नियम भी ले रखा था कि मैं एक दिन में एक ही बार बाण चलाऊँगा। उसका बाण कभी भी निष्फल नहीं जाता था।२६ प्रथम दिन अजातशत्रु कणिक की ओर से कालकुमार सेनापति होकर सामने आया। उसने गरुड़ व्यूह की रचना की। भयंकर युद्ध हमा। राजा चेटक ने अमोघ बाण का प्रयोग किया और कालकूमार जमीन पर लुढ़क पड़ा। इसी तरह एक-एक कर दस भाई सेनापति बन कर पाए और वे सभी राजा चेटक के अचूक बाण से मरकर नरक में उत्पन्न में हुए। उस समय भगवान महावीर चम्पा नगरी में थे। उनकी माताओं को ज्ञात हा कि हमारे पुत्र युद्ध के मैदान में मर चुके हैं, अतः वे सभी आहती दीक्षा ग्रहण कर लेती हैं / भगवती सूत्र में उसके पश्चात रथमूसल संग्राम और महाशिला कंटक संग्राम का उल्लेख है। ये दोनों संग्राम आधुनिक विश्व युद्ध की तरह घोर विनाशकर्ता थे। बौद्ध साहित्य वैशालीनाश का प्रसंग बौद्ध साहित्य में भी यह प्रकरण कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित है-गंगातट के एक पट्टन के सन्निकट पर्वत में रत्नों की खान थी। 27 अजातशत्रु और लिच्छवियों में यह समझौता हुआ था कि आधे-आधे रत्न परस्पर ले लेंगे। अजातशत्रु ढीला था। आज या कल करते हुए वह समय पर नहीं पहुँचता। लिच्छवी सभी रत्न लेकर चले जाते / अनेक बार ऐसा होने से उसे बहुत ही क्रोध आया पर गणतन्त्र के साथ युद्ध कैसे किया जाय ? उनके बाण निष्फल नहीं जाते।८ यह सोचकर वह हर बार युद्ध का विचार स्थगित करता रहा, पर जब वह अत्यधिक परेशान हो गया तब उसने मन ही मन निश्चय किया कि मैं यज्जियों का अवश्य विनाश करूंगा। उसने अपने महामन्त्री 'वस्सकार' को बुलाकर तथागत बुद्ध के पास भेजा।२० वज्जी-लिच्छवी-चिन्तनीय तथागत बुद्ध ने कहा-बज्जियों में सात बातें हैं 1. सन्निपात-बहल हैं अर्थात वे अधिवेशन में सभी उपस्थित रहते हैं। 2. उनमें एकमत है। जब सन्निपात भेरी बजती है तब वे चाहे जिस स्थिति में हों, सभी एक हो जाते हैं। 3. वज्जी अप्रज्ञप्त (अवैधानिक) 26. चेटकराजस्य तु प्रतिपन्नं व्रतत्वेन दिनमध्ये एकमेव शरं मुञ्चति अमोघबाणश्च / -~-निरयावलिका सटीक, पत्र 6-1 27. बुद्धचर्या (पृष्ठ 484) के अनुसार-पर्वत के पास बहुमूल्य सुगन्ध वाला माल उतरता था। 28. (क) दीघनिकाय अट्ठ कथा (सुमंगल विलासिनी) खण्ड 2, पृ. 526 (ख) Dr. B. C Law : Budhoghosa, Page III (घ) हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ 118 29. दीघनिकाय, महापरिनिव्वाणसुत्त, 223 (16) [ 14 ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात को स्वीकार नहीं करते और वैधनिक बात का उच्छेद नहीं करते। 4. वज्जी वृद्ध व गुरुजनों का सत्कार-सम्मान करते हैं। 5. वज्जी कुल-स्त्रियों और कुल-कुमारियों के साथ न तो बलात्कार करते हैं और न बलपूर्वक विवाह करते हैं। 6. वज्जी अपनी मर्यादानों का उल्लंघन नहीं करते / 7. वज्जी अर्हतों के नियमों का पालन करते हैं, इसलिये अर्हत उनके वहाँ पर प्राते रहते हैं। ये सात नियम जब तक वज्जियों में हैं और रहेंगे, तब तक कोई भी शक्ति उन्हें पराजित नहीं कर सकती।३. प्रधान अमात्य 'वस्सकार' ने आकर अजातशत्रु से कहा-और कोई उपाय नहीं है, जब तक उनमें भेद नहीं पड़ता, तब तक उनको कोई भी शक्ति हानि नहीं पहुंचा सकती / वस्सकार के संकेत से अजातशत्रु ने राजसभा में 'वस्सकार' को इस आरोप से अमात्य पद से पृथक कर दिया कि यह वज्जियों का पक्ष लेता है। वस्सकार को पृथक् करने की सूचना वज्जियों को प्राप्त हुई। कुछ अनुभवियों ने कहा-उसे अपने यहाँ स्थान न दिया जाये। कुछ लोगों ने कहा-नहीं, वह मगधों का शत्रु है, इसलिये वह हमारे लिये बहुत ही उपयोगी है। उन्होंने 'वस्सकार' को अपने पास बुलाया और उसे 'अमात्य' पद दे दिया। वस्सकार ने अपने बुद्धि बल से वज्जियों पर अपना प्रभाव जमाया। जब बज्जी गण एकत्रित होते, तब किसी एक को वस्सकार अपने पास बुलाता और उसके कान में पूछता—क्या तुम खेत जोतते हो? वह उत्तर देता-हाँ, जोतता है। महामात्य का दूसरा प्रश्न होतादो बैल से जोतते हो या एक बैल से? दूसरे लिच्छवी उस व्यक्ति से पूछते-बतायो, महामात्य ने तुम्हें एकान्त में ले जाकर क्या कहा? वह सारी बात कह देता। पर वे कहते- तुम सत्य को छिपा रहे हो। वह कहता-यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है तो मैं क्या कहूँ ? इस प्रकार एक-दूसरे में अविश्वास की भावना पैदा की गई और एक दिन उन सभी में इतना मनोमालिन्य हो गया कि एक लिच्छवीं दूसरे लिच्छवी से बोलना भी पसन्द नहीं करता / सन्निपात भेरी बजाई गई, किन्तु कोई भी नहीं पाया। 'वस्सकार' ने अजातशत्रु को प्रच्छन्न रूप से सूचना भेज दी। उसने ससैन्य आक्रमण किया / भेरी बजायी गयी पर कोई भी तैयार नहीं हया। प्रजातशत्रु ने नगर में प्रवेश किया और वैशाली का सर्वनाश कर दिया। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं ने मगधविजय और वैशाली के नष्ट होने के विवरण प्रस्तुत किए हैं। जैन दृष्टि से चेटक अट्ठारह गणदेशों का नायक था। बौद्ध परम्परा उसे केवल प्रतिपक्षी ही मानती है। जैन दृष्टि कणिक के पास तेतीस करोड़ सेना थी तो चेटक के पास सत्तावन करोड़ सेना थी। दोनो ही युद्धों में एक करोड़ प्रस्सी लाख मानवों का संहार हमा। बौद्ध दृष्टि से युद्ध का निमित्त रत्नराशि है। जैन परम्परा ने जैसे चेटक का प्रहार अमोघ बताया है वैसे ही बौद्ध ग्रन्थों की दृष्टि से वज्जी लोगों के प्रहार अचूक थे। नगर की रक्षा का मूल आधार जैन दृष्टि से स्तूप को माना है तो बौद्ध दृष्टि से पारस्परिक एकता, मुरुजनों का सम्मान प्रादि बताया गया है। जितना व्यवस्थित वर्णन जैन परम्परा में है उतना बौद्ध परम्परा में नहीं हो पाया है। वैशाली की पराजय में दोनों ही परम्पराओं में छद्म भाव का उपयोग हुआ है। वैशाली का युद्ध कितने समय तक चला ? इस सम्बन्ध में जैन दृष्टि से एक पक्ष तक तो प्रत्यक्ष युद्ध हुआ और कुछ समय प्राकार-भंग में लगा। बौद्ध दृष्टि से गोन वर्ष तक वैशाली में रहा और लिच्छिवियों में भेद उत्पन्न करता रहा। डा. राधाकुमुद मुखर्जी के अभिमतानुसार युद्ध की अवधि कम से कम सोलह वर्ष तक की है / 32 30. दीघनिकाय, महापरिनिम्बाणसुत, 2 / 3 (16) 31. दीघनिकाय अट्ठकथा, खण्ड 1, पृष्ठ 523 32. हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ 189 - राधाकुमुदमुखर्जी [15] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में नरक वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में रणक्षेत्र में मरने वाले व्यक्ति की देवगति मानी है। वीर रस के कवियों ने इस बात को लेकर हजारों कविताएँ लिखी हैं। उन कविताओं का एक ही उद्देश्य था कि योद्धा रणक्षेत्र में पीछे न हटें। यदि योद्धा रणक्षेत्र में पीछे हट गया तो उसकी पराजय निश्चित है। इसलिए उसके सामने स्वर्ग की रंगीन कल्पनाएँ प्रस्तुत की जाती थीं। किन्तु जैन धर्म ने इस प्रकार की रंगीन कल्पना नहीं दी। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि रणक्षेत्र में जो वीर मत्यु को वरण करता है वह नरक, तिर्यच आदि किसी भी गति में पैदा हो सकता है / क्योंकि युद्ध में कषाय की तीव्रता होती है और जहाँ कषाय की तीव्रता होती है, वहाँ जीवों की सुगति सम्भव नहीं है। जैन परम्परा में स्वर्ग और नरक दोनों का ही वर्णन विस्तार के साथ उपलब्ध है। नरक के सात भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:-१. रत्नप्रभा 2. शर्कराप्रभा 3. वालुप्रभा 4. पंकप्रभा 5. धूमप्रभा 6. तमःप्रभा 7. महातमःप्रभा (तमतमाप्रभा)।33 नरक शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य प्रकलङ्क देव ने लिखा है असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुई शीत व उष्ण आदि की वेदना से जो नरों को-जीवों को-शब्द कराते हैंरुलाते हैं वे नरक कहलाते हैं। प्रथा जो पाप करने वाले प्राणियों को अतिशय दुःख को प्राप्त कराते हैं उन्हें नरक कहा जाता है / 34 नारकों का निवास स्थान अधोलोक में है। ये सातों नरक समवेणि में न होकर एक दूसरे के नीचे हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई समान नहीं है पर नीचे-नीचे की भूमि की लम्बाई-चौड़ाई एक दूसरी से अधिक है। सातवें नरक की लम्बाई-चौड़ाई सबसे अधिक है। ये सातों भूमियों एक दूसरे से सटी हुई नहीं है। एक-दूसरी के बीच अन्तराल है। उस अन्तराल में घनोदधि, धनवात, तनुवात आदि हैं। बौद्ध साहित्य में नरकनिरूपण बौद्ध परम्परा के जातकअट्ठकथा के अनुसार नरक पाठ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं---१. संजीव 2. कालसुत 3. संपात 4. जालौरव 5. धुमरीरव 6. महामवीचि 7. तपन 8. पतापन 131 दिव्यावदान में नरक के यही नाम मिलते हैं पर जालौरव के स्थान पर रौरव और धमरीरव के स्थान पर महारौरव, ये नाम मिलते हैं। संयुक्तनिकाय,३७ अंगुत्तरनिकाय और सुत्तनिपात3 में नरकों के दस नाम आये हैं—१. अव्वुद 2. निरवुद 3. अवब 4. अटट 5. अहह 6. कुमुद 7, सोगन्धिक 8. उप्पल 9. पुण्डरीक 10 पदुम / 33. भगवती सूत्र, शतक 1, उद्देशक 5 34. नरान कायन्तीति नरकाणि / शीतोष्णासवद्योदयापादितवेदनया नरान कायन्ति शब्दायन्त इति नरकाणि, नृणन्तीति वा / अथवा पापकृतः प्राणिनः प्रात्यन्तिकं दुःखं नृणन्ति नयन्तीति नरकाणि / -~-तत्त्वार्थराजवातिक 2150 / 2-3 35. जातक अट्ठकथा, खण्ड 5, पृष्ठ 266-271 36. दिव्यावदान 67 37. संयुक्तनिकाय 6 / 1 / 10 38. अंगुत्तरनिकाय (P.T.S.) खण्ड 5, पृष्ठ 173 39. सुत्तनिपात, महावग्ग, कोकालियसूत्त 3136 [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठकथा के अभिमतानुसार ये नरकों के नाम नहीं हैं अपितु नरक में रहने की अवधि के नाम हैं। मझिमनिकाय आदि में नरकों के पांच नाम मिलते हैं। जातक अट्ठकथा,"सुत्तनिपात अट्ठकथा प्रादि में नरक के लोहकुम्भीनिरय आदि नाम मिलते हैं / वैदिक परम्परा में नरक निरूपण वैदिक परम्परा के आधारभूत ग्रन्थ ऋगवेद प्रादि में नरक आदि का उल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु उपनिषद्साहित्य में नरक का वर्णन है। वहाँ उल्लेख है--नरक में अन्धकार का साम्राज्य है, वहाँ अानन्द नामक कोई वस्तु नहीं है। जो अविद्या के उपासक हैं, आत्मघाती हैं, बुढ़ी गाय आदि का दान देते हैं, वे नरक में जाकर पैदा होते हैं। अपने पिता को वृद्ध गायों का दान देते हुए देखकर बालक नचिकेता के मन में इसलिये संक्लेश पैदा हुआ था कि कहीं पिता को नरक न मिले / इसीलिये उसने अपने आप को दान में देने की बात कही थी।४३ पर उपनिषदों में, नरक कहाँ है ? इस सम्बन्ध में कोई वर्णन नहीं है। और न यह वर्णन है कि उस अन्धकार लोक से जीव निकल कर पुन: अन्य लोक में जाते हैं या नहीं। योगदर्शन व्यासभाष्य" में 1. महाकाल 2. अम्बरीष 3. रौरव 4, महारौरव 5, कालसूत्र 6. अन्धतामिस्र 7. अवीचि, इन सात नरकों के नाम निर्दिष्ट हैं। वहाँ पर जीवों को अपने कृत कर्मों के कटु फल प्राप्त होते हैं / नारकीय जीवों की प्रायु भी अत्यधिक लम्बी होती है। दीर्घ-प्रायु भोग कर वहाँ से जीव पुनः निकलते हैं / ये नरक पाताल लोक के नीचे प्रवस्थित हैं। 5 योगदर्शन व्यासभाष्य की टीका में इन नरकों के अतिरिक्त कुम्भीपाक प्रादि उप-नरकों का भी वर्णन है। वाचस्पति ने उनकी संख्या अनेक लिखी है पर भाष्य वातिककार ने उनकी संख्या अनन्त लिखी है। श्रीमद्भागवत४६ में नरकों की संख्या अट्ठाईस है। उनमें इक्कीस नरकों के नाम इस प्रकार हैं--१. तामिस्र 2. अन्धतामिस्र 3. रौरव 4. महारौरव 5. कुम्भीपाक 6. कालसूत्र 7. असिपत्रवन 8, सूकरमुख 9. अन्धकप 10. कृमिभोजन 11. संदेश 12. तप्तसूमि 13. वचकष्टशाल्मली 14. वैतरणी 15. पुयोद 16. प्राणरोध 17. विशसन 48. लालाभक्ष 19. सारमेयादन 20. अवीचि 21. अयःपान / इन इक्कीस नरकों के अतिरिक्त भी सात नरक और है, ऐसी मान्यता भी प्रचलित हैं। ये इस प्रकार हैं--१. क्षार-कर्दम 1. रक्षोगण-भोजन 3. शूलपोत 4. दन्दशूक 5. अवटनिरोधन 6. पयोवर्तन 7. सूचीमुख / इस प्रकार जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में नरकों का निरूपण है। नरक जीवों के दारुण कष्टों को भोगने का स्थान है। पापकृत्य करने वाली आत्माएँ नरक में उत्पन्न होती हैं। निरयाबलिका में, युद्धभूमि में मृत्यु को प्राप्त कर नरक में गए श्रेणिक के दस पुत्रों का दस अध्ययनों में वर्णन है। जबकि उनके अन्य 40. मज्झिमनिकाय, देवदुत सुत्त 41. जातक अट्ठकथा, खण्ड 3, पृ. 22; खण्ड 5 पृ. 269 42. सुत्तनिपात अट्ठकथा, खण्ड 1, पृ. 59 / / 43. कठोपनिषद् 1.1.3; बृहदारण्यक 4. 4. 10-11, ईशावास्योपनिषद् 3-9 44. योगदर्शन-व्यासभाष्य, विभूतिपाद 26 45. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृष्ठ 157 46. श्रीमद्भागवत (छायानुवाद) प्र. 164, पंचमस्कंध 26, 5-36 [ 17 ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्राता श्रमणधर्म को स्वीकार कर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए थे। उनकी माताएँ भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर मुक्त हुई थीं। पुत्र और माताओं के नाम भी एक सदृश हैं। इस प्रकार निरयावलिका सूत्र यहाँ पर समाप्त होता है।४७ इस उपांग में मगधनरेश श्रेणिक और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन है। कणिक का जीवनपरिचय है। वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक के साथ कुणिक के युद्ध का वर्णन है। पुत्र के प्रति पिता का अपार स्नेह भी इसमें वर्णित है, जिससे यह उपांग बहुत ही आकर्षक बन गया है। कप्पवडंसिया : कल्पावतंसिका कल्प शब्द का प्रयोग सौधर्म ले अच्युत तक जो बारह स्वर्ग हैं, उनके लिए प्रयुक्त हुआ है।४८ देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों का जिसमें वर्णन है वह कल्पावतंसिका है। इस उपांग में दस अध्ययन हैं। उनके नाम पर हैं--१. पउम, 2. महापउम, 3. भट्ट. 4. सभह, 5. पउमभदृ 6. पउमसेन 7. पउमगल्म 8. नलिनीगुल्म 9. आणंद 10. नंदन / निरयावलिका में राजा श्रेणिक के पूत्र कालकूमार, सुकालकुमार आदि दस राजपुत्रों का वर्णन है। उन्हीं दस राजकुमारों के दस पुत्रों का वर्णन कल्पावतंसिका में है। दसों राजकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचन को सुनकर श्रमण बनते हैं। अंग साहित्य का गहन अध्ययन करते हैं। उग्र तप की साधना कर जीवन की सांध्य बेला में पंडितमरण को वरण करते हैं। सभी स्वर्ग में जाते हैं। इस प्रकार इस उपांग में व्रताचरण से जीवन के शोधन की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। जहाँ पिता कषाय के वशीभूत होकर नरक में जाते हैं वहां उन्हीं के पुत्र सत्कर्मों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं। उत्थान और पतन का दायित्व मानव के स्वयं के कर्मों पर पाधत है। मानव साधना से भगवान् बन सकता है वहीं विराधना से नरक का कोट भी बन जाता है। जैन साहित्य में स्वर्ग भारतीय साहित्य में जहाँ नरक का निरूपण हुआ है वहाँ स्वर्ग का भी वर्णन है। जैन दृष्टि से देवों के मुख्य चार भेद हैं.-१. भवनपति 2. व्यंतर 3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक / इनके अवान्तर भेद निन्यानवे हैं। आगमसाहित्य में उनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है। ये देव कहाँ पर रहते हैं ? उनकी कितनी देवियाँ होती हैं ? किस प्रकार का वैभव होता है ? कितना आयुष्य होता है?४६ प्रादि-यादि सभी प्रश्नों पर बहत ही विस्तार से विवेचन किया गया है। बौद्ध साहित्य में स्वर्ग बौद्धपरम्परा में भी स्वर्ग के सम्बन्ध में वर्णन उपलब्ध है। तथागत बुद्ध से जब कभी कोई जिज्ञासु स्वर्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त करता तो तथामत बुद्ध उन जिज्ञासुओं से कहते-परोक्ष पदार्थों के सम्बन्ध में चिन्ता न करो।५० जो दुःख और दुःख के कारण हैं, उनके निवारण का प्रयत्न करो। जब बौद्धधर्म ने दर्शन का 47. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नायब्वा पढमसरिसा, णबर माताओ सरिसणामा। णिरयावलियानो समत्तायो / -निरयावलिया समाप्तिप्रसंग 48. तत्त्वार्थसूत्र 4-3 49. भगवती, जीवाभिगम, लोकप्रकाश, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, तिलोयपण्णति आदि ग्रन्थ देखें। 50. (क) दीघनिकाय तेविज्जसुत्त (ख) मज्झिमनिकाय चूल मालुक्य सुत्त 63 [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप लिया जब स्वर्ग और नरक का चिन्तन उनके लिये आवश्यक हो गया। बौद्ध विज्ञों ने कथाओं के माध्यम से स्वर्ग, नरक और प्रेत योनि का वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। अभिधम्मत्थसंग्रह में सत्त्वों की दृष्टि से कामावचर, रूपावचर और अरूपावचर इन तीन भूमियों के रूप में विभाजन किया है। तावतिस, याम, तुसित, निम्मानरति, परिनिम्नितवसवत्ति नाम के देवनिकायों का समावेश कामावचार भूमि में मिलता है। रूपावचार भूमि में सोलह देवनिकायों का समावेश है, जिनके नाम इस प्रकार हैं-१. ब्रह्मपारिसज्ज 2. ब्रह्मपुरोहित 3. महाब्रह्म 4. परिताभ 5. अप्पमाणाभ 6. प्राभस्सर 7. परित्तसुभा 8. अप्पमाणसुभा 9. सुभकिम्हा 10. वेहष्फला 11. असजसत्ता 12. अविहा 13. अतप्पा 14. सुदस्सा 15. सुदस्सी 16. अकनिट्ठा / अरूपावचार भूमि में उत्तरोत्तर अधिक अधिक सुख वाली चार भूमि हैं-१. पाकासानंचायतन 2. वित्राणञ्चायतन 3. अकिंचंबायतन 4. नेबसमाना सञायतन / / बौद्धों ने देवलोकों के अतिरिक्त प्रेत योनि भी मानी है। पेतवत्थु५१ ग्रन्थ में उनकी दिलचस्प कथाएं भी हैं। दीघनिकाय के प्राटानाटिय सूत्त में लिखा है-चगलखोर, खनी, लुब्ध, तस्कर, दगाबाज आदि व्यक्ति प्रेतयोनि में जन्म ग्रहण करते हैं। प्रत पूर्व जन्म के मकान की दीवार के पीछे चौक में मार्ग में आकर खड़े होते हैं जहाँ पर भोज की व्यवस्था होती है। यदि लोग उनका स्मरण करके भी उन्हें भोग नहीं चढ़ाते हैं तो वे बहुत ही दुःखी होते हैं और जो उन्हें भोग देते हैं, उन्हें वे आशीर्वाद प्रदान करते हैं। प्रेतों के शरीर में सदा जलन होती रहती है। वे सदा भ्रमणशील होते हैं। इनके अतिरिक्त पाली ग्रन्थों में खुप्पिपास, कालङ्कजक उतूपजीवी आदि प्रेत जातियों का भी उल्लेख है। वैदिक साहित्य में स्वर्ग वेदों में देव-देवियों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद आदि के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि मानव ने प्राकृतिक वैभव को निहार कर उसमें देव और देवियों की कल्पना की। उषा को देवताओं की माता कहा है।५3 उसके बाद उषा को धे की पुत्री भी मानी है। "अदिति और दक्ष को भी देवताओं के माता-पिता माना गया है। तो कहीं पर सोम को अग्नि सूर्य इन्द्र विष्ण द्य और पृथ्वी का जनक कहा है। देवताओं में परस्पर पितापुत्र का सम्बन्ध भी बताया गया है। देव उत्पन्न होते हैं। देवता अमर भी हैं, अमरता उनका स्वाभाविक धर्म भी है, यह उन्होंने स्वीकार नहीं किया है। देव सोम का पान करके अमर बनते हैं। यह भी बताया गया हैअग्नि और सविता उन्हें अमरत्व प्रदान करती हैं। देवता नीतिसम्पन्न हैं, बे प्रामाणिक और चरित्रनिष्ठ व्यक्तियों की रक्षा करते हैं, अपने भक्तों पर अनुग्रह करते हैं। शक्ति सौन्दर्य और तेज के वे अधिपति हैं। इस प्रकार ऋगवेद में देवताओं का एक निश्चित क्रम निरूपित नहीं है। सभी देवों का निवास घ लोक में ही माना गया है। वैदिक ऋषियों ने लोक को तीन भागों में विभक्त किया है। द्यो, वरुण, सूर्य, मित्र, विष्णु, दक्ष प्रभति देव द्यु लोक में रहते हैं। इन्द्र, मरुत, रुद्र, पर्जन्य, प्रापः आदि देव अन्तरिक्ष में निवास करते हैं। अग्नि सोम बहस्पति प्रादि देवों का निवास पृथिवी है। 51. पेतवत्थु 1-5 52. Buddhist Conception of Spirits, p. 24 53. देवानां माता -ऋग्वेद 1-113-19 55. देवानां पितरं --ऋग्वेद 2-26-3 54. ऋग्वेद 1-30-22 [ 19 ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो मानव वर्तमान जीवन में शुभ कृत्य करता है, वह मानव स्वर्गलोक में जाता है। वहाँ पर उसे प्रचुर मात्रा में अन्न और सोम मिलता है जिससे उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। कितने ही व्यक्ति विष्णुलोक५७ में जाते हैं तो कितने ही व्यक्ति वरुणलोक५६ में जाते हैं। वरुणलोक सर्वोच्च स्वर्ग है। बहदारण्यक उपनिषद् में ब्रह्मलोक का अानन्द सर्वाधिक माना है।६० बहदारण्यक छान्दोग्योपनिषद् और कौषीतकी उपनिषद् 3 में देवयान और पितृयान मार्गों का विशद वर्णन है। पौराणिक युग में तीनों लोकों में देवों का निवास माना गया है / प्राचार्य व्यास ने योगदर्शन व्यासभाष्य 4 के अनुसार पाताल, जलधि और पर्वतों में असुर, गन्धर्व किन्नर, किंपुरुष, यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, अपस्मारक, अप्सरस, ब्रह्म राक्षस, कुष्माण्ड, विनायक निवास करते हैं। भूलोक के सभी द्वीपों में पुण्यात्मा देवों का निवास है। सुमेरु पर्वत पर देवों के उद्यान हैं। सूधर्मा नाम की देवसभा है, सूदर्श उस नगरी में वैजयन्त नामक प्रासाद है। अन्तरिक्ष लोक के देवों में ग्रह, नक्षत्र, तारागण पाते अग्निष्वात्ता, याम्या, तुषित, अपरिनिर्मितवशवर्ती, परिनिर्मितवशवर्ती, महेन्द्र स्वर्ग में इन छह देवों का निवास है। कुमुद, ऋभु, प्रतर्दन, अंजनाभ, प्रचिताभ, ये पांच देव निकाय प्रजापति लोक में रहते हैं। ब्रह्मपुरोहित, ब्रह्मकायिक, ब्रह्ममहाकायिक और अमर, ये चार देव निकाय ब्रह्मा के प्रथम जनलोक में रहते हैं / आभास्वर महाभास्वर, सत्यमहाभास्वर ये तीन देव निकाय ब्रह्मा के द्वितीय तपोलोक में रहते हैं। अच्युत, शुद्धनिवास, सत्याभ संज्ञा संज्ञी, ये चार देव निकाय ब्रह्मा के तृतीय सत्य लोक में रहते हैं। पहले ब्रह्मा विष्णु और महेश ये तीन देव माने गए और उसके पश्चात् तेतीस प्रधान देव माने गए। फिर अक्षपाद आदि ने देवों की संख्या तेतीस करोड़ मानी / इस प्रकार देवों के तथा स्वर्ग के सम्बन्ध में वैदिक परभरा के महर्षियों की धारणा रही है।५ गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि इन धारणामों में समय-समय पर परिवर्तन और विकास हुआ है। यह स्पष्ट है कि भारतीय साहित्य में देव और देवलोक की चर्चाएँ अतीतकाल से ही थीं। जैन परम्परा के वाङमय में उसका जो व्यवस्थित क्रम मिलता है, उतना व्यवस्थित क्रम न बौद्ध परम्परा के साहित्य में है और न ही वैदिक परम्परा के साहित्य में। कल्पावतंसिका उपांग में श्रेणिक के दस पौत्रों की कथाएँ हैं, जिन्होंने अपने सत्कृत्यों से स्वर्ग प्राप्त किया था। इसमें व्रताचरण की उपयोगिता बताई है। पिताओं के नरक में रहने पर भी पुत्रों का सत्कर्म से स्वर्गलाभ बताया गया है। पिता का जीवन पतन की ओर बढ़ा और पुत्रों का जीवन उत्थान की ओर / पुरुषार्थ 56. ऋग्वेद 9-113-7 57. ऋग्वेद 1-1-54 58. ऋग्वेद 7-8-5 59. ऋगवेद 10-14-8; 10-15-7 60. बृहदारण्यक उपनिषद्, 4-3-33 61. बृहदारण्यक उपनिषद् 5-10-1 62. छान्दोग्योपनिषद् 4-15, 5-6; 521011-6. 63. कौषीतकी श२-४ 64. योगदर्शन व्यास-भाष्य, विभूतिपाद, 26 65. हिन्दू धर्म कोश, डा. राजबली पाण्डेय पृ. 326, देवता शब्द [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से व्यक्ति अपने जीवन के नक्शे को बदल सकता है, यह इस उपांग में स्पष्ट किया गया है। श्रमण भगवान महावीर और तथागत बुद्ध के समय मगध में एकतन्त्रीय राज्यप्रणाली थी। यह पागम उस युग की सामाजिक स्थिति को जानने के लिये अत्यन्त उपयोगी है। पुफिया : पुष्पिका तृतीय उपांग पुष्पिका है। इस उपांग में भी चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिक, पूर्णभद्र, मणिभद्र, दत्त, शिव, बल और अनादृत, ये दस अध्ययन हैं। / प्रथम अध्ययन में वर्णित है-भगवान् महावीर एक बार राजगृह में विराज रहे थे। उस समय ज्योतिष्क इन्द्रचन्द्र भगवान के दर्शन हेतु प्राया / उसने विविध प्रकार के नाट्य किये / गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् ने उसके पूर्व भव का कथन किया। इसी प्रकार दूसरे अध्ययन में सूर्य के भगवान् के समवसरण में विमान सहित आगमन, नाट्य विधि और भगवान का पूर्वभवकथन आदि का वर्णन है। तीसरे अध्ययन में शुक्र महाग्रह का वर्णन है / इस अध्ययन में भगवान महावीर के दर्शन हेतु शुक्र पाया और पूर्ववत् नाट्य विधि दिखाकर पुनः अपने स्थान पर लौट गया / भगवान् ने उसके पूर्वभव का कथन करते हुए कहा-यह वाराणसी में सोमिल नामक ब्राह्मण था। वेदशास्त्रों में निष्णात था / एक बार भगवान पार्श्व वाराणसी पधारे / सोमिल, भगवान पार्श्व के दर्शन हेतु गया और उसने भगवान से प्रश्न किये-भगवन ! आपकी यात्रा है ? आपके यापनीय हैं ? सरिसव, मास और कुलत्थ भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? आप एक हैं या दो हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर भगवान ने स्याद्वाद की भाषा में दिया। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिये कि यह सोमिल जिसने भगवान पार्श्व से प्रश्न किये, और भगवतीसूत्र के 18 वें शतक के 10 वें उद्देशक में वणित सोमिल ब्राह्मण, जिसने इसी प्रकार के प्रश्न भगवान महावीर से किये थे, दोनों दो भिन्न व्यक्ति थे। क्योंकि भगवान पार्श्व से प्रश्न करने वाला सोमिल ब्राह्मण वाराणसी का था और महावीर से प्रश्न करने वाला सोमिल ब्राह्मण वाणिज्यग्राम का था। काल व घटना की दृष्टि से भी दोनों पृथक-पृथक ही सिद्ध होते हैं / नामसाम्य से भ्रम में पड़ना उचित नहीं।। भगवान् पार्श्व के वाराणसी से विहार करने के पश्चात् सोमिल कुसंगति के कारण पुनः मिथ्यात्वी बन गया और उसने दिशाप्रोक्षक तापसों के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रस्तुत कथानक में चालीस प्रकार के तापसों का विवरण प्राप्त होता है। उनमें से कितने ही तापस इस प्रकार थे१. केवल एक कमण्डलु धारण करने वाले। 2. केवल फलों पर निर्वाह करने वाले / 3. एक बार जल में डुबकी लगाकर तत्काल बाहर निकलने वाले / 4. बार-बार जल में डुबकी लगाने वाले / 5. जल में ही गले तक डूबे रहने वाले / 6. सभी वस्त्रों, पात्रों और देह को प्रक्षालित रखने वाले। 7. शंख-ध्वनि कर भोजन करने वाले। 8. सदा खड़े रहने वाले। 9. मग-मांस के भक्षण पर निर्बाह करने वाले। 10. हाथी का मांस खाकर रहने वाले। [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले। 12. वल्कल-वस्त्र धारण करने वाले / 13. सदा पानी में रहने वाले। 14. सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले। 15. केवल जल पर निर्वाह करने वाले। 16. जल के ऊपर पाने वाली शैवाल खाकर जीवन चलाने वाले। 17. वायु भक्षण करने वाले। 18. वृक्ष-मूल का ग्राहार करने वाले। 19. वृक्ष के कन्द का प्राहार करने वाले। 20. वृक्ष के पत्तों का प्राहार करने वाले / 21. वृक्ष की छाल का आहार करने वाले / 22. पुष्पों का आहार करने वाले / 23. बीजों का आहार करने वाले / 24. स्वतः टूट कर गिरे पत्रों-पुष्पों और फलों का आहार करने वाले। 25. दूसरों के द्वारा फैके हुए पदार्थों का पाहार करने वाले। 26. सूर्य की प्रातापना लेने वाले। 27. कष्ट सहकर शरीर को पत्थर जैसा कठोर बनाने वाले। 28. पंचाग्नि तापने वाले / 29. गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने बाले / ये तापसों के विविध रूप और साधना के ये विविध प्रकार इस बात के द्योतक हैं कि उस युग में तापसों का ध्यान कायक्लेश और हठयोग की अोर अधिक था। वे सोचते थे—यही मोक्ष का मार्ग है। भगवान् पार्श्वनाथ ने स्पष्ट शब्दों में, इस प्रकार की हठयोग-साधना का खण्डन किया था। भगवान ने कहा-तप के साथ ज्ञान आवश्यक है / अज्ञानियों का तप ताप है। इन तापसों का किन दार्शनिक परम्पराओं से सम्बन्ध था, यह अन्वेषणीय है। हमने औपपातिकसूत्र और ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना में तापसों के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है, अतः विशेष जिज्ञासु उन प्रस्तावनामों का अवलोकन करें। चतुर्थ अध्ययन में बहुत ही सरस और मनोरंजक कथा है। जब भगवान् महावीर राजगृह में थे तब बहुपुत्रिका नाम देवी समवसरण में आती है और वह अपनी दाहिनी भुजा से 108 देवकुमारों को और बाँयी भुजा से 108 देवकुमारियों को निकालती है, तथा अन्य अनेक बालक बालिकाओं को निकालती है और नाटक करती है / गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् उसका पूर्व भव सुनाते हैं-भद्र नाम सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा थी। वंध्या होने से वह बहुत खिन्न रहती थी और सदा मन में यह चिन्तन करती थी कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने प्यारे पुत्रों पर बात्सल्य बरसाती हैं और सन्तानजन्य अनुपम प्रानन्द का अनुभव करती है। मैं भाग्यहीन हैं। एक बार वाराणसी में सुव्रता प्रार्या अपनी शिष्याओं के साथ पाई। सन्तानोत्पत्ति के लिए आयिकाओं से सुभद्रा ने उपाय पूछा / प्रायिकानों ने कहा-इस प्रकार का उपाय वगैरह बताना हमारे नियम के प्रतिकूल है। प्रायिकाओं के उपदेश से सुभद्रा श्रमणी बनी पर उसका बालकों के प्रति अत्यन्त स्नेह था। वह बालकों का उबटन करती, श्रृंगार करती, भोजन कराती, जो श्रमणमर्यादाओं के प्रतिकल था। वह सद्गुरुनी की प्राज्ञा की अवहेलना कर [ 22 ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाकी रहने लगी। वह बिना पालोचना किये प्रायु पूर्ण कर सौधर्म कल्प में बहुपुत्रिका देवी हुई। वहाँ से वह सोमा नामक ब्राह्मणी होगी। उसके सोलह वर्ष के वैवाहिक जीवन में बत्तीस सन्तान होगी, जिससे वह बहुत परेशान होगी। वहाँ पर भी श्रमणधर्म को ग्रहण करेगी। मृत्यु के पश्चात् देव होगी और अन्त में मुक्त होगी। इस प्रकार इस कथा में कौतूहल की प्रधानता है। सांसारिक मोह-ममता का सफल चित्रण हुआ है। कथा के माध्यम से पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धान्त को भी प्रतिपादित किया गया है। स्थानाङ्ग में वर्णन स्थानांग सूत्र के 10 वें स्थान में दीर्घदशा के दश अध्ययन इस प्रकार बताये हैं--१. चन्द्र 2. सूर्य 3. शुक्र 4. श्री देवी 5. प्रभावती 6. द्वीपसमुद्रोपपत्ति 7. बहुपुत्री मन्दरा 8. स्थविर सम्भूतविजय 9, स्थविर पक्ष्म 10. उच्छ्वास-नि:श्वास / 66 प्राचार्य अभयदेव ने दीर्घदशा को स्वरूपतः अज्ञात बतलाया है और दीर्घदशा के अध्ययनों के सम्बन्ध में कुछ सम्भावनायें प्रस्तुत की हैं।६७ नन्दी की आगम-सूची में भी इनका उल्लेख नहीं है। दीर्घदशा में पाये हुए पांच अध्ययनों का नामसाम्य निरयावलिका के साथ है। दीर्घदशा में चन्द्र, सूर्य, शुक्र और श्री देवी अध्ययन हैं, तो निरयावलिका में चन्द्र तीसरे वर्ग का पहला अध्ययन है। सूर्य, तीसरे वर्ग का दूसरा अध्ययन है / शुक्र, तीसरे वर्ग का तीसरा अध्ययन है। श्री देवी चौथे वर्ग का पहला अध्ययन है। दीर्घदशा में बहपुत्री मन्दरा सातवाँ अध्ययन है तो निरयावलिका में बहपूत्रिका, यह तीसरे वगं का चौथा अध्ययन है। प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांग वत्ति में निरयावलिका के नामसाम्य वाले पांच और अन्य दो अध्ययनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। और शेष तीन अध्ययनों को अप्रतीत कहा है। प्राचार्य अभयदेव के अनुसार इन अध्ययनों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है चन्द्र-भगवान महावीर राजगृह में समवसत थे। ज्योतिष्कराज चन्द्र का आगमन, नाट्यविधि का प्रदर्शन / गौतम गणधर की जिज्ञासा पर महावीर ने कहा-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में अंगति नामक श्रावक था / पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हया / श्रामण्य की एक बार बिराधना की, वहाँ से मर कर यह चन्द्र हुआ / सूर्य-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में सुप्रतिष्ठित नाम का श्राबक था। पार्श्वनाथ के पास संयम लिया / विराधना करके सूर्य हुआ / शुक्र---शुक्र ग्रह भगवान को नमस्कार कर लौटा। गौतम की जिज्ञासा पर भगवान ने कहा--यह पूर्वभव में वाराणसी में सोमिल ब्राह्मण था। दिप्रोक्षक तापस बना। विविध तप करने लगा। एक बार उसने यह प्रतिज्ञा की जहाँ कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊँगा, वहीं प्राण छोड़ दूगा। इस प्रतिज्ञा को लेकर काष्ठमुद्रा से मुह को बांध कर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। पहले दिन एक अशोक बक्ष के नीचे होम ग्रादि से निवृत्त होकर बैठा था। उस समय एक देव ने वहाँ प्रकट होकर कहा—अहो सोमिल ब्राह्मण महर्षे ! तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है। पांच दिनों तक भिन्न-भिन्न स्थानों में उसको यही देववाणी सुनाई दी। पांचवें दिन उसने देव से पूछा-. मेरी 66. स्थानाङ्ग 10 सू. 119 67. दीर्घदशा: स्वरूपतोऽवनगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्र तस्कन्धे उपलभ्यन्ते / -स्थानाङ्ग, पत्र 485 68. शेषाणि श्रीण्यप्रतीतानि / - स्थानांगवृत्ति, पत्र 486 [ 23 ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ? उत्तर में देव ने कहा-तुमने अपने गृहीत अणुव्रतों की विराधना की है। अभी भी समय है / उसे पुनः स्वीकार करो। देव के कहने से तापस ने वैसा ही किया। श्रावकत्व का पालन कर यह शुक्र देव बना है। श्री देवी-एक बार श्री देवी भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए राजगह में आई। जब वह नाटक दिखा कर लौट गई तो गणधर गौतम ने उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछा। भगवान ने सुदर्शन श्रेष्ठी की ज्येष्ठ पुत्री का नाम भूता था। वह पार्श्वनाथ के पास प्रवजित हुई पर उसका अपने शरीर पर ममत्व था। वह उसकी सार सम्भाल में लगी रहती। उसने अतिचार की आलोचना नहीं की। मरकर सौधर्म देवलोक में देवी हुई। पुत्रिका-यह देवी भगवान् को वन्दन करने राजगृह में आई। भगवान ने इसका पूर्वभव बताते हुए कहा-बाराणसी नगरी में भद्र सार्थवाह था। सुभद्रा उसकी भार्या थी। वह वंध्या थी। उसके मन में सन्तान की / साध्वियां एक बार भिक्षा के लिए गईं। उनसे पुत्र-प्राप्ति का उपाय पूछा। उन्होंने धर्म की बात कही। वह प्रवजित हुई। दीक्षित होने पर भी वह बालकों से बहुत प्यार करती। अतिचार का सेवन किया। मरकर सौधर्म में देवी हुई / प्रस्तुत उपांग में जो चरित्र हैं वे कथा की दृष्टि से सांगोपांग नहीं है। कथा का उतना ही भाग दिया गया है जितने से उनके नायकों के परलोक के जीवन पर प्रकाश पड़ता है। वर्तमान जीवन का चित्रण बहुत ही कम हसा है। जीवन के मर्मस्थल को यत्र-तत्र छा गया है। साधकों की साधना इतनी अधिक प्रबल है कि उसमें कथातत्त्व दब गया है। तथापि यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि इस उपांग की कथानों से स्वसमय और परसमय का ज्ञान सहज हो जाता है। पुप्फचूला : पुष्पचूला इस उपांग के भी दस अध्ययन हैं। इन दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं-१. श्रीदेवी 2. ह्रीदेवी 3. धृतिदेवी 4. कीर्तिदेवो 5. बुद्धिदेवी 6. लक्ष्मीदेवी 7. इलादेवी 6. सुरादेवी 9. रसदेवी 10. गन्धदेवी / प्रथम अध्ययन की कथा का सार इस प्रकार है-एक बार भगवान् महाबीर राजगृह नगर में विराजमान थे। श्रीदेवी सौधर्म कल्प से दर्शनार्थ पाई। उसने दिव्य नाटक किए। गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् ने कहापूर्व भव में यह सुदर्शन श्रेष्ठी की भूता नामक पुत्री थी। युवावस्था में भी वह बद्धा दिखाई देती थी जिससे उसका पाणिग्रहण नहीं हो सका। भगवान पार्श्व का आगमन हुआ। भूता ने महासती पुष्पचूलिका के पास श्रमण धर्म स्वीकार किया। परन्तु भूता रात-दिन अपने शरीर को सजाने में लगी रहती / पुष्पचुलिका आयिका ने उसे बताया कि यह श्रमणाचार नहीं है। इन पापों की मालोचना कर तुम्हें शुद्धीकरण करना चाहिये। परन्तु उसने अाज्ञा की अवहेलना की और पृथक रहने लगी। बिना अालोचना किए मरकर यह श्रीदेवी हुई। तत्पश्चात् वह महाविदेह में जन्म लेकर निर्वाण प्राप्त करेगी। इसी प्रकार अवशिष्ट नौ अध्ययनों के ही देवी, धति देवी, कीति देवी आदि का वर्णन है। वे सभी सौधर्म कल्प में निवास करने वाली थी। वे सभी पूर्व भव में भगवान पार्श्वनाथ की शिष्या पुष्पचूला के पास दीक्षित हई थी और सभी शौच-क्रिया प्रधान थीं। शरीर आदि की शुद्धि पर उनका विशेष लक्ष्य था / ये सभी देवियां देवलोक से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र से सिद्धि प्राप्त करेंगी। [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार उपांग में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित होने वाली दस श्रमरिणयों की चर्चा है / ऐतिहासिक दृष्टि से इस उपांग का अत्यधिक महत्त्व है। वर्तमान युग में भी साध्वियों का इतिहास मिलने में कठिनता हो रही है तो इस उपांग में भगवान् पार्श्व के युग की साध्वियों का वर्णन है। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदि जितनी भी विशिष्ट शक्तियाँ हैं, उनकी अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। वहिदसा (वृष्णिदशा) नन्दी चूणि के अनुसार प्रस्तुत उपांग का नाम अंधकवृष्णिदशा था। बाद में उसमें से 'अंधक' शब्द लुप्त हो गया। केवल वृष्णिदशा ही अवशेष रहा। आज यह उपांग इसी नाम से विश्रुत है। इस उपांग में वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन बारह अध्ययनों के द्वारा किया गया है। उन अध्ययनों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-१. निषधकुमार 2. मातली कुमार 3. वह कुमार 4. वेहकुमार 5. प्रगति (पगय) कुमार 6. ज्योति (युचिकि) कुमार 7. दशरथ कुमार 8 दृढ़रथ कुमार 9. महाधनु कुमार 10. सप्तधनु कुमार, 11. दशधनु कुमार, 12. शतधनु कुमार / द्वारका में वासुदेव श्रीकृष्ण का राज्य था। राजा बलदेव की रानी रेवती थी। उसने निषध कुमार को जन्म दिया। भगवान् अरिष्टनेमि एक बार द्वारका में पधारे। उनका प्रागमन सुन श्रीकृष्ण ने सामुदानिक भेरी द्वारा भगवान् के प्रागमन को उद्घोषणा करवायी और सपरिवार दल-बल सहित वे वन्दना के लिये गये / निषधकुमार भी भगवान् को नमस्कार करने के लिये पहुंचा। निषधकुमार के दिव्य रूप को देखकर भगवान् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य बरदत्त मुनि ने उसके दिव्यरूप आदि के सम्बन्ध में पूछा। भगवान् ने बताया कि रोहीतक नगर में महाबल राजा राज्य करता था। उसकी रानी पद्मावती से वीरांगद नाम का पुत्र हुआ / युवावस्था में वह मनुष्य सम्बन्धी भोगों को भोग रहा था। एक बार सिद्धार्थ प्राचार्य उस नगर में पाये / उनका उपदेश श्रवण कर वीरांगद ने श्रवण-प्रवज्या ग्रहण की। अनेक प्रकार के तपादि अनुष्ठान किए और 11 प्रङ्गों का अध्ययन किया। इस प्रकार 45 वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया। उसके बाद दो मास की संलेखना कर पापस्थानकों की आलोचना और शुद्धि करके समाधिभाव से कालधर्म प्राप्त करके ब्रह्म नामक पाँचवें देवलोक में देव हुआ। वहाँ देवायु पूर्ण करके यहाँ यह निषधकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ है और ऐसी मानुषी ऋद्धि प्राप्त की है। वह निषधकुमार भगवान अरिष्टनेमि के समीप अनगार होकर कालान्तर में निर्वाणप्राप्त हुए। इसी प्रकार अन्य अध्ययनों में भी प्रसंग हैं / इस प्रकार वृष्णिदशा का समापन हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि वृष्णिदशा में यदुवंशीय राजारों के इतिवृत्त का अंकन है। इसमें कथा णक तत्वों का प्राधान्य है। भगवान् अरिष्टनेमि का महत्त्व कई दृष्टियों से प्रतिपादित किया गया है। इसमें पाए हुए यदुवंशीय राजामों की तुलना श्रीमद् भागवत में पाए हए यदुवंशीय चरित्रों से की जा सकती है। हरिवंश पुराण के निर्माण के बीज भी यहाँ पर विद्यमान हैं। वृष्णिवंश को, जिसका पागे जाकर हरिवंश नामकरण हुआ, स्थापना हरि नामक पूर्व पुरुष से हुई, इसलिये स्पष्ट है कि वृष्णिवंश, हरिवंश का ही एक अंग है। प्रस्तुत उपांग के उपसंहार में लिखा है-निरयावलिका श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। उपांग समाप्त हुए। 69. एवं सेसा वि एकारस अज्झयणा नेयवा संगहणीअणुसारेणं अहीणमइरित्तं एक्कारससु वि / -वृष्णिदशा सूत्र, अन्तिम अंश, [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका उपांग का एक ही श्रुतस्कन्ध है। इसके पाँच वर्ग हैं। ये पाँच वर्ग पाँच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं। पहले से चौथे तक के वर्गों में दस-दस अध्ययन हैं और पांचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरवालिका श्रुतस्कन्ध समाप्त हुन्मा / यहां यह चिन्तनीय है कि निरयावलिका के उपसंहार में निरयावलिका की समाप्ति की सूचना दी गई। पुनः वृष्णिदशा के अन्त में भी निरयावलिका के समाप्त होने की सूचना दी गई है। दो बार एक ही बात की सूचना कैसे आई ? इस सूचना में उपांग समाप्त हुए यह भी सूचन किया गया है। इससे यह तो स्पष्ट है ही कि वर्तमान में जो पृथक-पृथक कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचलिका और वृष्णिदशा, ये पांचों उपांग किसी समय एक ही उपांग के रूप में प्रतिष्ठित थे। व्याख्यासाहित्य कथा प्रधान होने के कारण निरयावलिका पर न नियुक्तियाँ लिखी गईं, न भाष्य और न चूर्णियों का ही निर्माण हुआ / केवल श्रीचन्द्रसूरि ने संस्कृत भाषा में निरयावलिका कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचला और वृष्णिदशा पर संक्षिप्त और शब्दार्थस्पर्शी वृत्ति लिखी है। श्रीचन्द्र सूरि का ही अपर नाम पार्श्वदेवगणि था / ये शीलभद्र सूरि के शिष्य थे। उन्होंने विक्रम संवत् 1174 में निशीथचूमि पर दुर्गपद व्याख्या लिखी थी और श्रमणोपासकप्रतिक्रमण, नन्दी, जीतकल्प बृहच्चूणि आदि आगमों पर भी इनकी टीकाएँ हैं। प्रस्तुत प्रागमों की वत्ति के प्रारम्भ में प्राचार्य ने भगवान् पार्श्व को नमस्कार किया पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता / निरयावलिथ त स्कन्ध-व्याख्या काचित प्रकाश्यते // वत्ति के अन्त में वत्तिकार ने न स्वयं का नाम दिया है, न अपने गुरु का ही निर्देश किया है, न बत्ति के लेखन का समय ही सूचित किया है / ग्रन्थ की जो मुद्रित प्रति है उसमें 'इति श्रीचन्द्रसूरि विरचितं निरयावलिकाश्र तस्कन्धविवरणं समाप्त मिति / श्रीरस्तु / ' इतना उल्लेख है / वृत्ति का ग्रन्थमान 600 श्लोक प्रमाण है। मरी संस्कृत टीका का निर्माण किया है स्थानकवासी जैन परम्परा के प्राचार्य घासीलालजी महाराज ने। उनकी टीका सरल और सुबोध है / इस टीका में राजा कूणिक के पूर्वभव का भी वर्णन है। और भी कई प्रसंग हैं। इन दो संस्कृत टीकाओं के अतिरिक्त इन आगमों पर अन्य कोई संस्कृत टीकाएँ नहीं लिखी गई हैं। सन् 1922 में आगमोदय समिति सूरत ने चन्द्रसूरिकृत बत्ति सहित निरयावलिका का प्रकाशन किया। इससे पूर्व, सन् 1885 में प्रागमसंग्रह बनारस से चन्द्रसूरिकृत वृत्ति, गुजराती विवेचन के साथ, एक संस्करण प्रकाशित हुआ था। सन् 1932 में श्री पी. एल. वैद्य, पूना एवं सन् 1934 में ए. एस. गोपाणी और बी. जे. चोकसी अहमदाबाद द्वारा प्रस्तावना के साथ वृत्ति प्रकाशित की गई। वि. सं. 1890 में मूल व टीका के गुजराती अर्थ के साथ जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा एक संस्करण प्रकाशित हुआ। सन् 1934 में गुर्जर ग्रन्थ कार्यालय अहमदाबाद से भावानुवाद निकला। वि. सं. 3445 में हिन्दी अनुवाद के साथ हैदराबाद से प्राचार्य अमोलक ऋषि जी म. ने एक संस्करण निकाला था / सन् 1960 में जैन शास्त्रोद्धारक समिति, राजकोट से प्राचार्य घासीसालजी महाराज ने संस्कृत व्याख्या हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाया। पुष्फभिक्खुजी 70. निरयावलिया, (बहिनदसा), अन्तिम भाग, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने सन् 1954 में 32 आगमों के साथ इन आगमों का भी प्रकाशन करवाया। इस तरह निरयावलिका और शेष उपांगों का समय-समय पर प्रकाशन हुआ है। प्रस्तुत संस्करण श्रमणसंघीय युवाचार्य मधुकर मुनिजी महाराज के कुशल नेतृत्व में आगम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा 32 आगमों के प्रकाशन का महान कार्य चल रहा है। इस आगम प्रकाशन माला से अभी तक अनेक प्रागम विविध विद्वानों के द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हो चुके हैं। जिन आगमों की मूर्धन्य मनीषियों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, उसी पागम माला के प्रकाशन की कड़ी की लड़ी में निरयावलिका, कल्पावत सिका, पुष्पिका, पुष्पचुला और वृष्णिदशा इन पांचों उपागों का एक जिल्द में प्रकाशन हो रहा है। इसमें शुद्ध मूलपाठ है, अर्थ है और परिशिष्ट हैं। इसके अनुवादक और संपादक हैं-श्री देवकुमार जैन, जो पहले अनेक ग्रन्थों का संपादन कर चुके हैं। संपादन का श्रम यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। साथ ही संपादनकलामर्मज्ञ, लेखन-शिल्पी पंडित शोभाचन्दजी भारिल्ल की सूक्ष्म-मेधा-शक्ति का चमत्कार भी हगोचर होता है। प्रस्तावना लिखते समय स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक व्यवधान उपस्थित हुए जिनके कारण चाहते हुए भी अधिक विस्तृत प्रस्तावना मैं नहीं लिख सका। इस प्रागम में ऐसे अनेक जीवन-बिन्दु हैं जिनकी तुलना अन्य ग्रन्थों के साथ सहज की जा सकती है। इन आगमों में भगवान महावीर, भगवान पार्श्व और भगवान् अरिष्टनेमि के युग के कुछ पात्रों का निरूपण है। तथापि संक्षेप में कुछ पंक्तियाँ लिख गया है। आशा है जिज्ञासुमों के लिये ये पंक्तियाँ सम्बल रूप में उपयोगी होंगी। परम श्रद्धय राजस्थानकेसरी अध्यात्मयोगी उपाध्याय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज के हार्दिक आशीर्वाद के कारण ही आगम साहित्य में अवगाहन करने के सुनहरे क्षण प्राप्त हुए हैं, जिसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि पूर्व प्रागमों की तरह ये पागम भी पाठकों के लिये प्रकाश-स्तम्भ की तरह उपयोगी सिद्ध होंगे। --- देवेन्द्रमुनि शास्त्री जन स्थानक मदनगंज दि. 6-11-83 [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम वर्ग : कल्पिका (निरयावलिका) प्रथम अध्ययन राजगृहनगर, चैत्य, अशोकवृक्ष पृथ्वीशिलापट्टक आर्य सुधर्मा स्वामी का पदार्पण जम्बू अनगार की जिज्ञासा सुधर्मा स्वामी का उत्तर कुमार काल का परिचय कुमार काल की रथ-मूसल संग्रामप्रवृत्ति काली देवी की चिन्ता चिन्तानिवारण हेतु काली का भगवान् के समीप गमन भगवान् की देशनाः काली की जिज्ञासा का समाधान गौतम की जिज्ञासा : भगवान् का समाधान चेलना का दोहद श्रेणिक का आश्वासन अभयकुमार का आगमन: दोहदपूत्ति का उपाय चेलना देवी का विचार बालक का जन्मः एकान्त में फेंकना श्रेणिक द्वारा भर्त्सना कूणिक का कुविचार कालादि द्वारा स्वीकृति कणिक का चेलना के पादवन्दनार्थ गमन श्रेणिक का मनोविचार कुमार वेहल्ल की क्रीडा पद्मावती की ईवेहल्ल कुमार का मनोमन्थन कणिक राजा की प्रतिक्रिया चेटक राजा का उत्तर कणिक राजा की चेतावनी युद्ध की तैयारी www or own rm Y" mr Xr99 ruxurs00MMMMx24 [28] . Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Ym mm Xx2 काल आदि दस कुमारों को युद्धार्थ सज्जा कूणिक : युद्ध प्रयाण से पूर्व चेटक का मण-राजानों से परामर्श चेटक राजा का युद्धक्षेत्र में प्रागमन युद्धार्थ व्यूहरचना द्वितीय अध्ययन सुकाल कुमार का परिचय तृतीय से दशम अध्ययन महाकाल आदि कुमारों सम्बन्धी वक्तव्यता 40 41 द्वितीय वर्ग: कल्पावतंसिका प्रथम अध्ययन उत्क्षेप : जम्बू स्वामी का प्रश्न सुधर्मा स्वामी का उत्तर पद्मावती का स्वप्नदर्शन पद्म अनगार की साधना द्वितीय अध्ययन महापद्मकुमार को जन्म-दीक्षा-साधना आदि तृतीय से दशम अध्ययन शेष कुमारों का अतिदेशपूर्वक कथन तृतीय वर्ग : पुष्पिका प्रथम अध्ययन उत्क्षेपः जम्बू स्वामी का प्रश्न, सूधर्मा स्वामी का उत्तर चन्द्रविमान में ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र श्रावस्ती नगरी का अंगति (अंगजित) गाथापति अर्हत् पार्श्व का पदार्पण अंगजित की प्रवज्या, उपपात चन्द्र का भावी जन्म द्वितीय अध्ययन सूर्य देव का समवसरण में प्रागमन सूर्य देव का भविष्य [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन उत्क्षेप शुक्र महाग्रह का पूर्वभव सोमिल का गृहत्याग का विचार सोमिल की दिशाप्रोक्षिक साधना सोमिल का नया संकल्प देव द्वारा सोमिल को प्रतिबोध सोमिल द्वारा पुनः श्रावकधर्म ग्रहण सोमिल की शुक्र महाग्रह में उत्पत्ति चतुर्थ अध्ययन : बहुपुत्रिका देवी बहुपुत्रिका देवी गौतम की जिज्ञासा सुभद्रा सार्थवाही की चिन्ता सुव्रता आर्या का प्रागमन सुभद्रा की जिज्ञासा: प्रार्यानों का उत्तर प्रार्यानों का उपदेशः सुभद्रा का श्रमणोपासिकाव्रतग्रहण सुभद्रा का दीक्षा का संकल्प दीक्षाग्रहण सुभद्रा आर्या की अनुरागवृत्ति सुभद्रा का पृथक् आवास बहुपुत्रिका देवी रूप में उत्पत्ति गौतम की पुन: जिज्ञासा सोमा की युवावस्था सोमा द्वारा बहुसन्तान-प्रसव सोमा का विचार सुव्रता आर्या का आगमन सोमा का श्रावकधर्मग्रहण सोमा का राष्ट्रकूट से दीक्षा के लिए पूछना सोमा की प्रव्रज्या पंचम अध्ययन : पूर्णभद्र देव उत्क्षेप पूर्णभद्र देव का नाट्यप्रदर्शन षष्ठ अध्ययन : मणिभद्र देव उत्क्षेप अध्ययन 7 से 10 दत्तादि का वृत्तान्त HWANWW.GXWWW [ 30 ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वर्ग : पुष्पचूलिका प्रथम अध्ययन उत्क्षेप भूता का दर्शनार्थ गमन भूता का प्रव्रज्याग्रहण शरीरबकुशिका भूता भूता का अवसान और सिद्धिगमन अध्ययन 2-10 ह्री देवी प्रादि का वृत्तान्त 101 पंचम वर्ग : वह्निदशा प्रथम अध्ययन 102 103 103 उत्क्षेप द्वारका नगरी रैवतक पर्वत नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन द्वारका नगरी में कृष्ण वासुदेव, बलदेव ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति 103 104 परिशिष्ट १-महाबलचरितम् परिशिष्ट २--दृढप्रतिज्ञ परिशिष्ट ३–व्यक्तिनामसूची 131 136 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलियाओ निरयावलिका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // निरयावलियाओ। प्रथम वर्ग : कल्पिका प्रथम अध्ययन राजगृहनगर, चैत्य, अशोकवृक्ष, पृथ्वीशिलापट्टक 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था। ऋद्धिथिमियसमिद्ध गुणसिलए चेइए। [वण्णओ] असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए / [1] उस काल अर्थात् चौथे पारे में और उस समय में अर्थात् भगवान् महावीर जब इस धरा पर विचरण कर रहे थे, राजगृह नाम का नगर था / वह धन-धान्य वैभव आदि ऋद्धि-समृद्धि से सम्पन्न था / वहाँ उसके उत्तर-पूर्व में गुणशिलक चैत्य था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये / ' वहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था और उसके नीचे एक पृथ्वीशिलापट्टक रखा था / इनका औपपातिक सूत्र के अनुसार वर्णन समझ लेना चाहिए / विवेचन-इस सूत्र में औपपातिक सूत्र के अतिदेशपूर्वक नगर प्रादि का वर्णन करने का संकेत किया है। उसका संक्षेप में सारांश इस प्रकार है राजगृहनगर-भवनादि वैभव से सम्पन्न सुशासित सुरक्षित एवं धन-धान्य से समृद्ध था। वहाँ नगर-जन और जानपद प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते थे। निकटवर्ती कृषिभूमि अतीव रमणीय थी। उसके चारों ओर पास-पास ग्राम बसे हुए थे / सुन्दर स्थापत्य कला से सुशोभित चैत्यों और पण्यतरुणियों के सन्निवेशों का वहाँ बाहुल्य था। तस्करों आदि का अभाव होने से नगर क्षेमरूप सुख-शांतिमय था। सुभिक्ष होने से भिक्षुओं को वहाँ सुगमता से भिक्षा मिल जाती थी। वह नट-नर्तक आदि मनोरंजन करने वालों से व्याप्त-सेवित था। उद्यानों आदि की अधिकता से नन्दनवन सा प्रतीत होता था / सुरक्षा की दृष्टि से वह नगर खात, परिखा एवं प्राकार से परिवेष्टित था। नगर में शृगाटक-सिंघाड़े जैसे आकार वाले त्रिकोणाकार, चौराहे तथा राजमार्ग बने थे। वह नगर अपनी सन्दरता से दर्शनीय, मनोरम और मनोहर था। 1. प्रौप. पृष्ठ 4-0 आगमप्रकाशनसमिति ब्यावर 2. प्रौप. पृष्ठ 12 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिकासूत्र गुणशिलक चैत्य-नगर के बाहर ईशान कोण में था / वह चैत्य अत्यन्त प्राचीन था, विख्यात था। भेंट के रूप में प्रचुर धन-सम्पत्ति उसे प्राप्त होती थी। जनसमूह द्वारा प्रशंसित था। छत्र, वजा, घंटा. पताका आदि से परिमंडित था। उसका आँगन लिपा-पूता था और दीवालों पर लम्बीलम्बी मालाएँ लटकी रहती थीं। वहाँ स्थान-स्थान पर गोरोचन, चंदन आदि के थापे लगे हुए थे। काले अगर प्रादि की धूप की मधमधाती महक से वहाँ का वातावरण गंधतिका जैसा प्रतीत होता था। नट, नर्तक, भोजक मागध-चारण आदि यशोगायकों से व्याप्त रहता था। दूर-दूर तक के देशवासियों में उसकी कीर्ति बखानी जाती थी और बहुत से लोग वहाँ मनौती पूर्ण होने पर 'जात' देने आते थे। वे उसे अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, कल्याणकारक, मंगलरूप एवं दिव्य मानकर विशेष रूप से उपासनीय मानते थे / विशेष पर्व-त्यौहारों पर हजारों प्रकार की पूजा-उपासना वहाँ की जाती थी। बहुत से लोग वहाँ प्राकर जय-जयकार करते हुए उसकी पूजा-अर्चना करते थे। वनखण्ड-वह गुणशिलक चैत्य चारों ओर से एक वनखण्ड से घिरा हुआ था। वृक्षों की सघनता से वह काला, काली आभावाला, शीतल, शीतल आभावाला, सलौना, एवं सलौनी आभावाला दिखता था। वहाँ के सघन एवं विशाल वृक्षों की शाखाओं-प्रशाखाओं के परस्पर गुथ जाने से ऐसा रमणीक दिखता था मानों सघन मेघघटाएँ घिरी हुई हों। - अशोक वृक्ष-उस वनखण्ड के बीचों-बीच एक विशाल एवं रमणीय अशोक वृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कन्ध, शाखानों, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था / उसका सुघड और विशाल तना इतना विशाल था कि अनेक मनुष्यों द्वारा भुजाएँ फैलाए जाने पर भी घेरा नहीं जा सकता था। उसके पत्ते एक दूसरे से सटे हुए, अधोमुख और निर्दोष थे। नवीन पत्तों, कोमल किसलयों आदि से उसका शिखर भाग सुशोभित था। तोता, मैना, तीतर, वटेर, कोयल, मयूर आदि पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। वहाँ मधुलोलुप भ्रमर-समूह मस्ती में गुनगुनाते रहते थे। उसके आस-पास में अन्यान्य वृक्ष, लताकुज, मंडप आदि शोभायमान थे। वह अतीव तृप्तिप्रद विपुल सुगंध को फैला रहा था। अतिविशाल परिधिवाला होने से उसके नीचे अनेक रथ, डोलियाँ, पालकियाँ आदि ठहर सकती थीं। पृथ्वीशिलापट्टक-उस अशोक वृक्ष के नीचे स्कन्ध से सटा हुआ एक पृथ्वी शिलापट्टक रखा था। उसका वर्ण काला था और उसकी प्रभा अंजन, मेघमाला, नीलकमल, केशराशि, खंजनपक्षी, सींग के गर्भभाग, जामुन के फल अथवा अलसी के फूल जैसी थी / वह अतीव स्निग्ध था। वह अष्टकोण था और दर्पण के समान सम, सुरम्य एवं चमकदार था। उस पर ईहामृग-भेडिया, वृषभ, अश्व, मगर, विहग (पक्षी), व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (हिरण विशेष) शरभ, कुजर, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र विचित्र चित्राम बने हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, रुई, मक्खन और अर्कतूल (पाक की रुई) आदि के समान सुकोमल था। इस प्रकार का वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनीय मोहक और अतीव मनोहर था।' 1. नगर, चैत्य, अशोक वक्ष, पृथ्वीशिलापट्टक के विस्तृत वर्णन के लिए देखिए औप. सूत्र पृष्ठ 4-12 प्रागमप्रकाशनसमिति, ब्यावर / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] प्रार्य सुधर्मा स्वामी का पदार्पण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवप्रो महावीरस्स अन्तेवासी अज्जसुहम्मे नामं अणगारे जाइसंपन्ने, जहा केसी [जाव] पञ्चहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडे, पुष्वाणुपुब्धि चरमाणे, जेणेव रायगिहे नयरे, [जाव] प्रहापडिहवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं [तवसा अप्पाणं भावेमाणे] जाव विहरइ / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। [2] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अंतेवासी (शिष्य) जाति (मातपक्ष) कल (पितपक्ष) इत्यादि से सम्पन्न प्रार्य सधर्मा स्वामी नामक अनगार यावत पांच सो अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी के क्रम से चलते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ पधारे यावत् यथाप्रतिरूप (साधुमर्यादानुरूप) अवग्रह (वसति) प्राप्त करके संयम एवं तपश्चर्या से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उनका शेष वर्णन केशीकुमार के समान जानना चाहिए / उनके दर्शनार्थ परिषद् निकली-जनसमूह नगर से आया। आर्य सुधर्मा ने धर्मोपदेश दिया और परिषद् वापिस लौट गई। विवेचन--प्रस्तुत पाठ में तीन विषयों का उल्लेख किया गया है (1) श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मास्वामी का राजगृह नगर में पधारना। उनकी वंदना करने के लिए तथा धर्मदेशना श्रवण करने के लिए राजगृह नगर के जनसमूह का पहुंचना / (2) आर्य सुधर्मा स्वामी द्वारा धर्मदेशना देना और (3) धर्मोपदेश सुनकर जनसमूह का वापिस नगर में लोट जाना। आर्य सुधर्मा स्वामी का परिचय देने के लिए केशीकुमार श्रमण का उल्लेख किया गया है / उसका आशय यह है कि भगवान पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के केशीकुमार श्रमण का वर्णन राजप्रशनीय सूत्र में विस्तार से किया गया है। वह समस्त वर्णन, उनके माहात्म्य को प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त किए गए विशेषण आर्य सुधर्मा स्वामी के लिए भी समझ लेने चाहिए।' जम्बू अनगार की जिज्ञासा 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अन्तेवासी जम्बू नाम अणगारे समचउरससंठाणसंठिए, [जाव] संखित्तविउलतेउलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामन्ते उड्ढंजाणू, [जाव] विहरइ / तए णं से जम्बू जायसवे, [जाब] पज्जुवासमाणे एवं वयासी-- "उवङ्गाणं भन्ते समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नते?"। "एवं खलु, जम्बू, समणेणं भगवया [जाव] संपत्तेणं एवं उवङ्गाणं पञ्च वग्गा पन्नत्ता / तं जहा-निरयावलियासो, कापडिसियाओ, पुफियाओ, पुष्फलियाओ, बहिवसानो॥" "अइ णं, भन्ते ! समणेणं जाव संपत्तेण उवङ्गाणं पञ्च वग्गा पन्नत्ता, तं जहा-निरया 1. देखें-राजप्रश्नीय सूत्र पृ. 136 -आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिकासूत्र वलियाओ [जाव] वहिवसाओ, पढमस्स गं भन्ते ! वग्गस्स उवङ्गाणं निरयावलियाण समणेणं भगक्या जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पन्नत्ता ?" 3. उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी अनगार के शिष्य समचतुरस्त्र संस्थान वाले यावत् अपने अन्तर में विपुल तेजोलेश्या को समाहित किये हुए जम्बू नामक अनगार आर्य सुधर्मा स्वामी के न अति निकट, न अति दूर-थोड़ी दूरी पर ऊपर को घुटने किए हुए अर्थात् उत्तान आसन से बैठे हए और सिर को नमाकर यावत् विचरण कर रहे थे। उस समय जम्बू स्वामी को श्रद्धा-संकल्प-विचार उत्पन्न हुना यावत् पर्युपासना करते हुए उन्होंने इस प्रकार निवेदन किया-- 'भदन्त ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त–निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने उपांगों का क्या प्राशय प्रतिपादन किया है ?' जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सुधर्मा स्वामी ने कहा-'आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपांगों के पाँच वर्ग कहे हैं। उनके नाम ये हैं-१. निरयावलिका (कल्पिका) 2. कल्पावतंसिका 3. पुष्पिका 4. पुष्पचूलिका 5. वृष्णिदशा / ' __भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान ने निरयावलिका यावत् वृष्णिदशा पर्यन्त उपांगों के पांच वर्ग कहे हैं तो हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् ने निरयावलिका नामक प्रथम उपांग-वर्ग के कितने अध्ययन प्रतिपादन किए हैं ?' विवेचन- इस गद्यांश में विषय-विवेचन प्रारम्भ करने की एक विशिष्ट प्राचीन साहित्यिक विधा को बताया है कि जिज्ञासु प्रश्न करता है और उत्तर में वक्ता उस विषय का प्रतिपादन करता है। सुधर्मा स्वामी का उत्तर 4. "एवं खलु, जम्बू, समणेणं [जाव] संपत्तेणं उवङ्गाणं पढमस्स बग्गस निरयावलियाणं दस अज्शयणा पन्नत्ता / तं जहा काले सुकाले महाकाले कण्हे सुकण्हे / तहा महाकण्हे वीरकण्हे य बोद्धब्बे / रामकण्हे तहेव य पिउसेणकण्हे नवमे, दसमे महासेणकण्हे उ" / / "जइ णं भन्ते, समणेणं [जाव] संपत्तेणं उवगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस प्रशयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भन्ते, अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं [जाव] संपत्तेणं के अट्ठे पन्नते?" 4. श्रीसुधर्मा स्वामी ने उत्तर में कहा-'पायुष्मन् जम्बू ! उन श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने प्रथम उपांग निरयावलिया-निरयावलिका के दस अध्ययन इस प्रकार से प्रतिपादित किए हैं Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] 1. कालकुमार 2. सुकालकुमार 3. महाकालकुमार 4. कृष्णकुमार 5. सुकृष्णकुमार 6. महाकृष्णकुमार 7. वीरकृष्णकुमार 8. रामकृष्णकुमार 6. पितृसेनकृष्णकुमार 10. महासेनकृष्णकुमार / " जम्बू अनगार ने इस पर पुनः निवेदन किया-'भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् महावीर ने उपांगों के प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं तो निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का क्या प्राशय निरूपित किया है ?' कुमार काल का परिचय 5. एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब अम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे चम्पा नाम नपरी होत्था / रिद्ध० / पुण्णभद्दे चेइए / तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणिए नामं राया होत्था। महया० / तस्स गं कूणियस्त रन्नो पउमावई नाम देवी होत्था, सोमाल० [जाव] विहरइ। तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो मज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्या, सोमाल० [जाव] सुरुवा। तोसे णं कालीए देवीए पुते काले नाम कुमारे होत्था, सोमाल० [जाव] सुरुवे // 5. सुधर्मा स्वामी ने कहा---उस काल और उस समय में इसी जम्बुद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में ऋद्धि आदि से सम्पन्न चम्पा नाम की नगरी थी। उसके उत्तर-पूर्व दिग्भाग में पूर्णभद्र यक्ष का यक्षायतन था। उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र एवं चेलना देवी का अंगजात-पात्मज कूणिक नाम का महामहिमाशाली राजा राज्य करता था। कूणिक राजा की रानी का नाम पद्मावती था। वह अतीव सुकुमाल अंगोपांगों वाली थी इत्यादि यावत् मानवीय काम-भोगों का उपभोगपरिभोग करती हुई समय व्यतीत कर रही थी। __ उसी चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की पत्नी और कुणिक राजा की छोटी माता (विमाता) काली नाम की रानी थी, जो हाथ पैर आदि सुकोमल अंग-प्रत्यंगों वाली थी यावत् सुरूपा थी। - उस काली देवी का पुत्र काल नामक कुमार था / वह सुकोमल यावत् रूप-सौन्दर्यशाली था। कुमार काल की रथ मूसल संग्राम प्रवृत्ति 6. तए णं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दन्तिसहस्सेहि, तिहि रहसहस्सेहि, तिहिं आससहस्सेहि, तिहि मणुयकोडोहि, गरुलवू हे एक्कारसमेणं खण्डेणं कूणिएणं रम्ना सद्धि रहमुसलं संगामं ओयाए / 6. तदनन्तर किसी समय काल कुमार तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार अश्वों और तीन कोटि मनुष्यों (तीन करोड़ सैनिकों) को लेकर गरुड व्यूह में, ग्यारहवें खण्ड-अंश के भागीदार कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम' में प्रवृत्त हुआ। 1. रथमूसल संग्राम-~-इस प्रकार के नामकरण का कारण भगवती सूत्र श. 7-9 में देखिए / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिकासूत्र काली देवी की चिन्ता 7. तए णं तोसे कालोए देवीए अन्नया कयाइ कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयाख्वे अज्झथिए [जाव] समुपज्जित्था---'एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहि [जाव] प्रोयाए / से मन्ने, कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ ? नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? नो पराजिणिस्सइ ? काले णं कुमारे अहं जोवमाणं पासिज्जा ?' ओहयमण• [जाव] झियाइ // 7. तब एक बार अपने कुटुम्ब-परिवार की स्थिति पर विचार करते हुए काली देवी के मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुअा-'मेरा पुत्र कुमार काल तीन हजार हाथियों आदि को लेकर यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुया है। तो क्या वह विजय प्राप्त करेगा अथवा विजय प्राप्त नहीं करेगा? वह जीवित रहेगा अथवा जीवित नहीं रहेगा? शत्र को पराजित करेगा या पराजित नहीं करेगा? क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी?' इत्यादि विचारों से वह उदास हो गई। निरुत्साहित-सी होती हुई यावत् आर्त ध्यान में मग्न हो गई। चिन्तानिवारण हेतु काली का भगवान के समीप गमन 8. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसा निग्गया। तए णं तीसे कालीए देवीए इमोसे कहाए लट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए, [जाव] समुप्पज्जित्था'एवं खलु, समणे भगवं पुव्वाणुपुतिय [जाव] विहरइ / तं महाफलं खलु तहारूवाणं [जाय] विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए। तं गच्छामि णं समणं [जाव] पज्जुवासामि, इमं च णं एयारूवं कागरण पुच्छिस्सामि' त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं क्यासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह" / उवट्ठवित्ता [जाव] पच्चप्पिणन्ति / तए गं सा काली देवी व्हाया कयबलिकम्मा [जाव] अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहूहि खुज्जाहिं [जाव] महत्तरगविन्दपरिखित्ता अन्तेउराओ निग्गच्छइ, 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, 2 त्ता नियगपरियालसंपरिबुडा चम्पं नार मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, 2 ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, २त्ता छत्ताईए [जाव] धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, 2 ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरहइ, २त्ता बहूहि जाव खुज्जाहि० विन्दपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छद। २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ। ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी नमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पञ्जलिउडा पज्जुवासइ / 8. उसी समय में श्रमण भगवान महावीर का चम्पा नगरी में पदार्पण हुआ। भगवान् को वन्दना-नमस्कार करने एवं धर्मोपदेश सुनने के लिए जन-परिषद् निकली। तब वह काली देवी भी इस संवाद-समाचार को जान कर हर्षित हुई और उसे इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् संकल्प-विचार उत्पन्न हुअा-पूर्वानुपूर्वी क्रम से विहार करते हुए यावत् श्रमण भगवान् महावीर यहाँ विराज रहे हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] तथारूप श्रमण भगवन्तों का नामश्रवण ही महान् फलप्रद है तो उनके समीप पहुँच कर वन्दननमस्कार करने के फल के विषय में तो कहना ही क्या है ? यावत् उनके पास से श्रुत-विपुल श्रत के अर्थ को ग्रहण करने की महिमा तो अपार है। अतएव मैं श्रमण भगवान् के समीप जाऊँ, यावत् उनकी पर्युपासना करूँ और उनसे पूर्वोल्लिखित प्रश्न पूछ। काली रानी ने इस प्रकार का विचार किया। विचार करके उसने कौटुम्बिक पुरुषों सेवकों को बुलाया। उन्हें बुलाकर यह आज्ञा दी–'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही धार्मिक कार्यों में प्रयोग किये जाने वाले श्रेष्ठ रथ को जोत कर लाओ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने जुते हुए रथ को उपस्थित किया / यावत् आज्ञानुरूप कार्य किये जाने की सूचना दी। तत्पश्चात् स्नान की हुई एवं बलिकर्म कर चुकी काली देवी यावत् महामूल्यवान् किन्तु अल्प-थोड़े से या थोड़े भार वाले आभूषणों से विभूषित हो अनेक कुब्जा दासियों यावत् महत्तरकवृन्द (अन्तःपुर रक्षिकाओं) को साथ लेकर अन्तःपुर से निकली। निकल कर अपने परिजनों एवं परिवार से परिवेष्टित होकर चम्पा नगरी के बीचों-बीच होकर निकली और निकल कर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पहुँची। वहाँ पहुँच कर तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशयों-प्रातिहार्यों के दृष्टिगत होते ही धार्मिक श्रेष्ठ रथ को रोका। रथ को रोक कर उस धार्मिक प्रवर रथ से नीचे उतरी और उतर कर बहुत-सी कुब्जा प्रादि दासियों यावत् महत्तरकवृन्द के साथ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पहुँची / फिर तीन बार पादक्षिण प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया और वहीं बैठ कर सपरिवार भगवान् की देशना सुनने के लिए उत्सुक होकर नमस्कार करती हुई, अञ्जलि करके विनयपूर्वक सन्मुख पर्युपासना करने लगी। विवेचन-उक्त गद्यांशों में सन्तान के प्रति मातृहृदय की मनोभावनाओं का चित्रण किया गया है। माता का हृदय सन्तान के लिए किचित मात्र अनिष्ट की प्राशंका होने पर चिन्तित-विकल हो उठता है। जब वह विकलता शमित न हो तो अनिष्ट के निवारण के लिए वह मनौती करती है / आप्तजनों की सेवा में पहुँचती है और उस कल्पित अनिष्ट के निवारण के किसी न किसी उपाय को जानने के लिए उत्सक रहती है। काली रानी भी इसी भावना को मन में संजोये हुए भगवान् के समवसरण में उपस्थित भगवान् को देशना : काली की जिज्ञासा का समाधान 9. तए णं समणे भगवं [जाव] कालीए देवीए तोसे य महइमहालियाए परिसाए धम्मकहा भाणियन्या [जाव] समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणा आणाए आराहए भवइ / तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ [जाव] हियया समणं भगवं तिक्खुत्तो, एवं वयासी-"एवं खलु, भन्ते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहिं [जाव] रहमुसलं संगामं ओयाए / से गं भंते ! कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ, [जाव] काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा? "काली" इ समणे भगवं कालि देवि एवं वयासी “एवं खलु, काली तव पुत्ते काले कुमारे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [निरयावलिकासूत्र तिहिं दन्तिसहस्सेहि [जाव] कूणिएणं रन्ना सद्धि रहमुसलं संगाम संगामेमाणिणे हयमहियपवरवीरघाइयणिवडियचिन्धज्मयपडागे निरालोयानो दिसाम्रो करेमाणे चेडगस्स रनो सपषखं सपडिदिसि रहेण पडिरहं हब्वमागए / तए णं से चेडए राया कालं कुमारं एज्जमाणं पासइ, 2 ता प्रासुरुते जाव] मिसिमिसेमाणे धणु परामुसइ, २त्ता उसुपरामुसह, २त्ता वसाहं ठाणं ठाइ, 2 त्ता आययकण्णाययं उसुकरेइ, 2 त्ता कालं कुमारं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियानो ववरोवेइ / तं कालगए णं काली ! काले कुमारे, नो चेव णं तुमं कालं कुमारं जीवमाणं पासिहिसि" / / 6. तत्पश्चात् श्रमण भगवान ने यावत् उस काली देवी और विशाल जनपरिषद् को धर्मदेशना सुनाई / यहाँ औपपातिक सूत्र के अनुसार धर्मदेशना का कथन करना चाहिए।' यावत् श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका आज्ञा के आराधक होते हैं। इसके बाद श्रमण भगवान महावीर से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में अवधारित कर काली रानी ने हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय होकर श्रमण भगवान् को तीन वार वंदना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-भदन्त ! मेरा पुत्र काल कुमार तीन हजार हाथियों यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ है / तो हे भगवन् ! क्या वह विजयी होगा अथवा विजयी नहीं होगा ? यावत् क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूगी ? . प्रत्युत्तर में 'हे काली !' इस प्रकार से संबोधित कर श्रमण भगवान् ने काली देवी से कहाकाली ! तुम्हारा पुत्र काल कुमार, जो तीन हजार हाथियों यावत् कुणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम में जूझते हुए वीरवरों को पाहत, मर्दित, घातित करते हुए और उनकी संकेतसूचक ध्वजापताकाओं को भूमिसात करते हुए-गिराते हुए, दिशा विदिशाओं को पालोकशून्य करते हुए रथ से रथ को अड़ाते हुए चेटक राजा के सामने आया। तब चेटक राजा ने कुमार काल को आते हए देखा, देखकर क्रोधाभिभूत हो यावत् मिसमिसाते हए धनुष को उठाया। उठाकर बाण को हाथ में लिया, लेकर धनुष पर बाण चढ़ाया, चढ़ाकर उसे कान तक खींचा और खींचकर एक ही वार में प्राहत करके, रक्तरंजित करके निष्प्राण कर दिया / अतएव हे काली ! वह काल कुमार कालकवलित-मरण को प्राप्त हो गया है। अब तुम काल कुमार को जीवित नहीं देख सकती हो। विवेचन-महापुरुषों का यह उपदेश और नीति है कि प्रिय एवं सत्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए। तब भगवान् ने ऐसा अनिष्ट और अप्रिय उत्तर क्यों दिया? इसका समाधान यह है कि भगवान् सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। उस समय जो कुछ हो रहा या हो चुका था, उसको न तो वे बदल सकते थे और न छिपा सकते थे / अतएव भगवान् ने वही स्पष्ट किया जो हो रहा था। भगवान् ने तो युद्ध का जो परिणाम कालकुमार के लिए हुआ, उसी को स्पष्ट करने के लिए प्रज्ञापनी भाषा में काली देवी को बतलाया कि अब तुम्हारा पुत्र कालगत हो गया है. अतः तुम उसे जीवित नहीं देख सकोगी। साथ ही भगवान् ने यह भी देखा कि पुत्र-वियोग ही काली रानी के वैराग्य का कारण बनेगा। 1. औपपा. पृ. 108 (आगमप्रकाशनसमिति, ब्यावर) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] [11 काली का दुखित होना 10. तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ अन्तियं एयम सोच्चा निसम्म महया पुतसोएणं अफ्फुन्ना समाणी परसुनियत्ता विव चम्पगलया धस ति धरणीयलंसि सव्वङ्गहि संनिवडिया। तए णं सा काली देवी मुहत्तन्तरेण आसत्था समाणी उढाए उट्ठइ 2 ता समणं भगवं वन्दइ, नमसइ, २त्ता एवं वयासी--"एवमेयं भंते, तहमेयं भंते, अवितहमेयं भंते, असंदिद्धमेयं भंते, सच्चे गं भंते ! एसम8, जहेयं तुम्भे वयह" त्ति कटु समणं भगवं वन्दइ नमसइ, 2 ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ 2 त्ता जामेव दिसि पाउम्भूया तामेव दिसि पडिगया। 10. श्रमण भगवान महावीर के इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके काली रानी घोर पुत्र-शोक से अभिभूत-उद्विग्न होकर कुल्हाड़ी से खंडित काटी गई–चम्पकलता के समान पछाड़ खाकर धड़ाम-से सर्वांगों से पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ समय के पश्चात् जब काली देवो कुछ प्राश्वस्त--स्वस्थ-सी-हुई तब खड़ी हुई और खड़ी होकर उसने भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके (रुधे स्वर से) इस प्रकार कहाभगवन् यह इसी प्रकार है, भगवन् ! ऐसा ही है, भगवन् ! यह अवितथ-असत्य नहीं है / भगवन् ! यह असंदिग्ध है / भगवन् ! यह सत्य है / यह बात ऐसी ही है, जैसी आपने बतलाई है / ' ऐसा कहकर उसने श्रमण भगवान् को पुन: बंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके उसी धार्मिक यान पर आरूढ होकर, (जिस में बैठकर भगवान् के पास आई थी) जिस दिशा से आई थी वापिस उसी दिशा में लौट गई। गौतम की जिज्ञासा : भगवान का समाधान 11. "भंते" ति भगवं गोयमे [जाव] वन्दइ नमसइ, २त्ता एवं वयासो-"काले गं भंते ! कुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगाम संगामेमाणे चेडएणं रन्ना एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाग्रो ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने ?" / ___ "गोयमा" इ समणे भगवं गोयम एवं वयासी-"एवं खलु, गोयमा ! काले कुमार तिहि दन्तिसहस्सेहि जीवियाओ बवरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पङ्कप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरगे दससागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / " "काले णं भंते ! कुमारे केरिसएहि आरम्भेहिं केरिसएहि समारम्भेहि केरिसएहि आरम्भसमारम्भेहि केरिसरहिं भोगेहि, केरिसरहिं संभोगेहि केरिसएहि भोगसंभोगेहि केरिसएण वा असुभकडकम्मपनमारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पङ्कप्पभाए पुढवीए जाव नेरइयत्ताए उववन्ने ?" एवं खलु, गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्ध। तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए नामं राया होत्था, महया। तस्स णं सेणियस्स रनो नन्दा नामं देवी होत्था, सोमाला० [जाव] विहरइ / तस्स णं सेणियस्स रन्नो नन्दाए देवीए अत्तए अभए नाम कुमारे - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [निरयावलिकासूत्र होत्था, सोमाले० [जाव] सुरुवे, सामदामभेयदण्ड० जहा चित्तो, [जाव] रज्जधुराए चिन्तए यावि होत्था / तस्स णं सेणियस्स रन्नो चेल्लणा नाम देवी होत्था, सोमाला [जाव] विहरइ // तए णं सा चेल्लणा देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसयंसि वासघरंसि जाव सोहं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, जहा पभावई, [जाव] सुमिणपाढगा पडिविसज्जिया, [जाव] चेल्लणा से वयणं पडिच्छिता जेणेव सए भवणे तेणेव अणुपविट्ठा / 11. भगवान् गौतम, श्रमण भगवान महावीर के समीप पाए और 'भदन्त !' इस प्रकार करते हुए उन्होंने यावत् वंदन नमस्कार किया / वंदन नमस्कार करके अपनी जिज्ञासा व्यक्त करते हुए इस प्रकार निवेदन किया-भगवन् ! तीन हजार हाथियों आदि के साथ जो काल कुमार रथमूसल संग्राम करते हुए चेटक राजा के एक ही प्राधात-प्रहार से रक्तरंजित हो, जीवनरहित-निष्प्राण होकर मरण के अवसर पर मृत्यु को प्राप्त करके कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुप्रा है ? 'गौतम !' इस प्रकार से संबोधित कर भगवान् ने गौतम स्वामी से कहा-'गौतम ! तीन हजार हाथियों आदि के साथ युद्धप्रवृत्त वह काल कुमार जीवनरहित होकर कालमास में काल करके चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नरक में दस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुआ है। ____ गौतम ने पुनः पूछा--भदन्त ! किस प्रकार के भोगों संभोगों, भोग-संभोगों को भोगने से, कैसे-कैसे प्रारम्भों और प्रारम्भ-समारंभों से तथा कैसे आचारित अशुभ कर्मों के भार से मरणसमय में मरण करके वह काल कुमार चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में यावत् नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ है ? गौतम स्वामी के उक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बताया--गौतम ! उसका कारण इस प्रकार है - उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। वह नगर वैभव से सम्पन्न, शत्रुओं के भय से रहित और धन-धान्यादि की समृद्धि से युक्त था। उस राजगृह नगर में हिमवान् शैल के सदृश महान श्रेणिक राजा राज्य करता था। श्रेणिक राजा की अंग-प्रत्यंगों से सूकमाल नन्दा नाम की रानी थी, जो मानवीय कामभोगों को भोगती हुई यावत् समय व्यतीत करती थी / उस श्रेणिक राजा का पुत्र और नन्दा रानी का पात्मज अभय नामक राजकुमार था, जो सुकमाल यावत् सुरूप था तथा साम, दाम, भेद और दण्ड की राजनीति में चित्तं सारथि के समान' निष्णात था यावत राज्यधुरा-शासन का चिन्तक था-चतुर संचालक था। उस श्रेणिक राजा की चेलना नामकी एक दूसरी रानी थी। वह सुकुमाल हाथ-पैर वाली थी इत्यादि उसका वर्णन समझ लेना चाहिए, यावत् सुखपूर्वक विचरण करती थी। किसी समय शयनगह में चिन्ताओं आदि से मुक्त सुख-शय्या पर सोते हुए वह चेलन. देवी प्रभावती देवी के समान स्वप्न में सिंह को देखकर जागृत हुई, यावत् स्वप्न-पाठकों को आमंत्रित 1 चित्त सारथि का परिचय देखिए राजप्रश्नीय पृ. 131 (आ. प्र. समिति, ब्यावर) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन [13 करके राजा ने उसका फल पूछा। स्वप्नपाठकों ने स्वप्न का फल बतलाया। स्वप्न-पाठकों को विदा किया यावत् चेलना देवी उन स्वप्नपाठकों के वचनों को सहर्ष स्वीकार करके अपने वासभवन के अन्दर चली गई। विवेचन-उक्त गद्यांश में प्रागत-जहाचित्तो, जहापभावई और 'जाव' शब्द से संकेतित प्राशय इस प्रकार है जहा चित्तो-राजप्रश्नीयसूत्र में प्रदेशी राजा के वृत्तान्त में चित्त सारथि का वर्णन किया गया है। यह प्रदेशी राजा का मंत्री सरीखा था, जो साम आदि चार प्रकार की राजनीतियों का जानकार था। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कामिकी और पारिणामिकी, इन चार प्रकार की बुद्धियों से सम्पन्न था (जिनसे कठिन से कठिन कार्य करने का सही उपाय निकाल लेता था) पारिवारिक समस्याओं, गोपनीय कार्यों और रहस्यमय अवसरों पर राजा को सच्ची सलाह देता था / राज्यशासन का प्रमुख था इत्यादि / इसी प्रकार से अभय कमार भी राजा श्रेणिक के प्रत्येक कार्य का कर्ता था। राज्य के गुप्त से गुप्त रहस्य को जानता था। जहा पभावई-यह हस्निापुर नगर के बल राजा की रानी थी। भगवती सूत्र शतक 11 उ. 11 में महाबल के जन्मादि का विस्तार से वर्णन किया गया है / महाबल के गर्भ में पाने पर प्रभावती देवी ने प्रशस्त लक्षणों से युक्त सिंह को स्वप्न में देखा था / स्वप्न-दर्शन के बाद स्वप्न की बात अपने पति राजा बल को बतलाई। राजा बल ने अपने बुद्धि-ज्ञान के आधार से उस स्वप्न का शुभ फल बताया और कहा कि कुल के भूषणरूप पुत्र का जन्म होगा। फिर राजा ने स्वप्न-पाठकों को बुलाया। उन्होंने विस्तार से स्वप्नशास्त्र का वर्णन करके कहा कि प्रापको राजकुमार की प्राप्ति होगी। वह या तो विशाल राज्य का स्वामी होगा अथवा महान् ज्ञान-ध्यान-तप से सम्पन्न अनगार होगा इत्यादि। महाबल कुमार का वृत्तान्त परिशिष्ट में दिया जा रहा है / चेलना का दोहद 12. तए गं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे वोहले पाउम्भूए-"धन्नाओ णं ताम्रो अम्मयाओ, [जाव] जम्मजीवियफले जाओ णं सेणियस्स रन्नो उयरवलीमसेहि सोल्लेहि य तलिएहि य भाज्जिएहि य सुरं च [जाव] पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव विसाएमाणीनो परिभुजेमाणीओ परिभाएमाणीमो दोहलं पविणेन्ति / " तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि प्रविणिज्जमाणंसि सुक्का मुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलग्गसरीरा नित्तया वीणविमणवयणा पण्डुइयमुही ओमन्थियनयणक्यणकमला जहोचियं पुप्फवस्थगन्धमल्लालंकारं अपरिभुजमाणी करतलमलिय व्य कमलमाला ओहयमणसंकप्पा [जाव] झियाइ। तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अङ्गपडियारियाओ चेल्लणं देवि सुक्कं भुक्खं [जाव] झियायमाणि पासन्ति 2 ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता करयलपरिरगहियं सिरसावत्तं मत्थए उजलि क्टु सेणियं रायं एवं क्यासी-‘एवं खलु, सामी! चेल्लणा देवी, न याणामो केणइ कारणेणं सुक्का मुक्खा जाव झियाइ / ' Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [निरयावलिकासूत्र ___तए णं सेणिए राया तासि अङ्गमडियारियाणं अन्तिए एयम सोच्चा निसम्म तहेव संभन्ते समाणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ 2 ता चेल्लणं देवि सुक्कं भुक्खं [जाव] झियायमाणि पासित्ता एवं क्यासी-"fक णं तुमं देवाणुप्पिए ! सुक्का भुक्खा जाव झियासि ?" तए णं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो एयम नो पाढाइ, नो परियाणाइ, तुसिणिया संचिट्ठइ। . तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवि दोच्चं पि तच्चपि एवं क्यासी-किं णं अहं देवाणुप्पिए, एयम नो अरिहे सवणयाए, जं णं तुमं एयमट्ठ रहस्सीकरेसि ?" तए णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं वयासी-नस्थि णं सामी! से केइ अट्ट, जस्स गं तुब्भे अणरिहे सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए / एवं खलु सामो! ममं तस्स ओरालस्स [जाब] महासुमिणरस तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्मूए 'धन्नानो णं ताओ अम्मयाओ, जाओ णं तुम्भं उपरवलिमंसेहि सोल्लएहि य [जाव] दोहलं विणेन्ति / ' तए णं अहं, सामी ! तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा जाव झियामि / " [12] तत्पश्चात् परिपूर्ण तीन मास बीतने पर चेलना देवी को इस प्रकार का दोहद (गर्भवती माता का विशेष मनोरथ) उत्पन्न हुआ-वे माताएँ धन्य हैं यावत् वे पुण्यशालिनी हैं, उन्होंने पूर्व में पुण्य उपाजित किया है, उनका वैभव सफल है, मानवजन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया है जो श्रेणिक राजा की उदरावली के शूल पर सेके हुए, तले हुए, भूने हुए मांस का तथा सुरा यावत् मधु, मेरक, मध, सीधु और प्रसन्ना नामक मदिराओं का आस्वादन यावत् विस्वादन तथा उपभोग करती हुई और अपनी सहेलियों को आपस में वितरित करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं—अपनी अभिलाषा को तृप्त करती हैं। किन्तु इस अयोग्य एवं अनिष्ट दोहद के पूर्ण न होने से चेलना देवी (मनः-संताप के कारण रक्त का शोषण हो जाने से) शुष्क-सूखी-सी हो गई, भूख से पीड़ित-सी हो गई, मांसरहित हो गई, जीर्ण और जीर्ण शरीर वाली हो गई, निस्तेज-निष्प्रभ दीन, विमनस्क जैसी हो गई, विवर्णमुखी, नेत्र और मुखकमल को नमाकर यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलंकारों का उपभोग नहीं करती हुई, हथेलियों से मसलो हुई कमल की माला जैसी मुरझाई हुई, पाहतमनोरथा यावत् चिन्ताशोक-सागर में निमग्न हो, हथेली पर मुख को टिकाकर प्रार्तध्यान में डूब गई। तब चेलना देवी की अंगपरिचारिकामों (प्राभ्यन्तर दासियों) ने चेलना देवी को सूखी-सी, भूख से ग्रस्त-सी यावत् चिन्तित देखा / देखकर वे श्रेणिक राजा के पास पहुँची। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर प्रावर्तपूर्वक, मस्तक पर अंजलि करके श्रेणिक राजा से इस प्रकार निवेदन किया'स्वामिन् ! न मालूम किस कारण से चेलना देवी शुष्क बुभुक्षित जैसी होकर यावत् अार्तध्यान में डूबी हुई हैं। श्रेणिक राजा उन अंगपरिचारिकाओं की इस बात को सुनकर और समझकर आकुल-व्याकुल होता हुआ, जहाँ चेलना देवो थी, वहाँ आया। चेलना देवो को सूखी-सो, भूख से पीड़ित जैसी, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [15 यावत् प्रार्तध्यान करती हुई देखकर इस प्रकार बोला--'देवानुप्रिये ! तुम क्यों शुष्कशरीर, भूखी-सी यावत् चिन्ताग्रस्त हो रही हो ?' लेकिन चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस प्रश्न का आदर नहीं किया अर्थात् उत्तर नहीं दिया / वह चुपचाप बैठी रही। तब श्रेणिक राजा ने पुनः दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी यही प्रश्न चेलना देवी से पूछा और कहा-देवानुप्रिये ! क्या मैं इस बात को सुनने के योग्य नहीं हूँ जो तुम मुझसे इसे छिपा रही हो? दूसरी और तीसरी बार कही श्रेणिक राजा की इस बात को सुनकर चेलना देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहा---'स्वामिन् ! ऐसी तो कोई भी बात नहीं है जिसे आप सुनने के योग्य न हों और न इस बात को सुनने के लिए ही आप अयोग्य हैं / परन्तु स्वामिन् ! बात यह है कि उस उदार यावत् महास्वप्न को देखने के तीन मास पूर्ण होने पर मुझे इस प्रकार का यह दोहद उत्पन्न हझा है'वे माताएँ धन्य हैं जो आपकी उदरावलि के, शूल पर सेके हुए यावत् मांस द्वारा तथा मदिरा द्वारा अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। लेकिन स्वामिन् ! उस दोहद को पूर्ण न कर सकने के कारण मैं शुरुकशरीरी, भूखी-सी यावत् चिन्तित हो रही हूँ। श्रेणिक का प्राश्वासन 13. तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी "मा णं तुमं, देवाणुप्पिए ! आहय [जाव] झियाहि / अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ" त्ति कटु चेल्लणं देखि ताहि इट्टाहि कन्ताहिं पियाहिं मणुन्नाहि मणामाहिं मोरालाहि कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहि मङ्गल्लाहि मियमहरसस्सिरीयाहि वहिं समासासेइ, 2 ता चेल्लणाए देवीए अन्तियाओ पडिणिक्खमइ, 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सीहासणे, तेणेव उवामच्छइ, 2 ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयइ, तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहि पाहि उवाएहि य, उम्पत्तियाए य येणइयाए य कम्मियाए य पारिणामियाए य परिणामेमाणे 2 तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा अविन्दमाणे ओहयमणसंकप्पे [जाव] झियाइ। [13] तब श्रेणिक राजा ने चेलना देवी की उक्त बात को सुनकर उसे आश्वासन देते हुए कहा-देवानुप्रिये ! तुम हतोत्साह एवं चिन्तित न होओ। मैं कोई ऐसा जतन (उपाय) करूगा जिससे तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो सकेगी। ऐसा कहकर चेलनादेवी को इष्ट (अभिलषित), कान्त (इच्छित), प्रिय, मनोज्ञ, मणाम, प्रभावक, कल्याणप्रद, शिव (सुखद) धन्य, मंगलरूप मृदु-मधुर वाणी से आश्वस्त किया। तत्पश्चात् वह चेलना देवी के पास से निकला। निकलकर जहाँ बाह्य सभाभवन था और उसमें जहाँ उत्तम सिंहासन रक्खा था वहाँ पाया। आकर पूर्व की ओर मुख करके उस उत्तम सिंहासन पर आसीन हो गया। वह दोहद की संपूर्ति के प्रायों से उपायों से (युक्तियोंप्रयुक्तियों से) औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-इन चार प्रकार की बुद्धियों से वारंवार विचार करते हुए भी इस के आय-उपाय, स्थिति एवं निष्पत्ति को समझ न पाने के कारण उत्साहहीन यावत् चिन्ताग्रस्त हो उठा। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [निरयावलिकासूत्र अभयकुमार का आगमन : दोहदपूर्ति का उपाय 14. इमं च णं अभए कुमारे हाए [जाव] सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, 2 त्ता जेणेव वाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छइ / सेणियं रायं प्रोहय० [जाव] झियायमाणं पासइ, 2 ता एवं बयासी-"अन्नया णं, ताम्रो ! तुझे ममं पासित्ता हट्ट [जाव] हियया भवह, कि णं, ताओ ! अज्ज तुम्भे ओहय० [जाव] झियाह ? तं जइ णं अहं, ताओ एयमस्स अरिहे सवणयाए, तो गं तुभे ममं एयम४ जहाभूयमवितहं असंदिद्ध परिकहेह, जा णं अहं तस्स अट्ठस्स अन्तगमणं करेमि"। तए णं से सेणिए राया अभयं कुमारं एवं वयासी-"नस्थि णं, पुत्ता! से केइ अट्ठ, जस्स णं तुम अणरिहे सवणयाए। एवं खलु, पुत्ता! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवोए तस्स पोरालस्स [जाव] महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं, [जाव] जाओ णं मम उयरवलोमंसेहि सोल्लेहि य [जाय] दोहलं विन्ति / तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि प्रविणिजमाणंसि सुक्का [जाव] झियाइ। तए गं अहं पुत्ता! तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहूहि आएहि य [जाव] ठिई वा अविन्दमाणे ओहय० [जाव] झियामि"। तए णं से अमए कुमारे सेणियं रायं एवं क्यासी-'मा णं, ताओ, तुम्भे ओहय० [जाय] झियाह, अहं णं, तहा जत्तिहामि, जहा णं मम चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ' त्ति कटु सेणियं रायं ताहि इट्ठाहिं [जाव] वहि समासासेइ / समासासित्ता जेणेव सए गिहे, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता अभिन्तरए रहस्सियए ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं बयासी-'गच्छह णं तुन्भे, देवाणुप्पिया ! सूणाम्रो अल्लं मंसं रुहिरं बस्थिपुडगं च गिण्हह' / तए णं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभएण कुमारेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ [जाव] पडिसुणेत्ता अमयस्स कुमारस्स अन्तियाओ पडिणिक्खमन्ति / जेणेव सूणा तेणेव उवागच्छन्ति, अल्लं मंसं रुहिरं बस्थिपुडगं च गिण्हन्ति / २त्ता जेणेव अभए कुमारे, तेणेव उवागच्छन्ति, 2 ता करयल० तं अल्लं मंसं रुहिरं बत्थिपुडगं च उवणेन्ति / तए णं से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिरं कप्पणोकप्पियं करेइ / 2 ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, 2 ता सेणियं रायं रहसिगयं सणिज्जंसि उत्ताणयं निवज्जावेइ, 2 ता सेणियस्स उयरवलीसु तं अल्लं मंसं रुहिरं विरवेइ / २त्ता बत्थिपुडएणं वेढेइ / 2 त्ता सवन्तीकरणेणं करेइ / 2 ता चेल्लणं देवि प्पि पासाए अवलोयणवरगयं ठवावेइ। 2 ता चेल्लणाए देवीए अहे समक्खं सपडिदिसि सेणियं रायं सयणिज्जसि उत्ताणगं निवज्जावेइ / सेणियस्स रनो उयरवलिमसाई कप्पणिकप्पियाई करेइ / 2 ता से य मायणसि पक्खिवइ / तए णं से सेणिए राया अलियमुच्छियं करेइ / 2 त्ता मुहत्तन्तरेण अन्नमन्नेण सद्धि संलवमाणे चिट्ठइ। तए णं से अभयकुमारे सेणियस्स रनो Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [17 उयरवलिमसाई गिण्हेइ, २त्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ / २त्ता चेल्लणाए देवीए उवणेइ। तए णं सा चेल्लणा देवो सेणियस्स रन्नो तेहिं उयरवलिमसेहि सोल्लेहिं [जाव] दोहलं विणेई। तए णं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / [14] इधर अभयकुमार स्नान करके यावत् अपने शरीर को अलंकृत करके अपने आवासगृह से बाहर निकला। निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभाभवन) थी और उसमें जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ प्राया / उसने श्रेणिक राजा को निरुत्साहित जैसा देखा, यह देखकर वह बोला--तात ! पहले जब कभी आप मुझे प्राता हुआ देखते थे तो हर्षित यावत् सन्तुष्टहृदय होते थे. किन्त आज ऐसी क्या बात है जो आप उदास यावत् चिन्ता में डूबे हुए हैं हैं ? तात ! यदि मैं इस अर्थ (बात) को सुनने के योग्य हूँ तो आप इस बात को जैसा का तैसा, सत्य एवं बिना किसी संकोच संदेह के कहिए, जिससे मैं उसका अन्तगमन करू अर्थात् हल करने का उपाय करूं / अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से कहा---पुत्र ! ऐसी तो कोई भी बात नहीं है जिसे सुनने योग्य तुम नहीं हो, लेकिन बात यह है पुत्र ! तुम्हारी विमाता चलना देवी को उस उदार यावत महास्वप्न को देखे तीन मास बीतने पर यावत् ऐसा दोहद उत्पन्न हुअा है कि जो माताएँ मेरी उदरावलि के शूलित आदि मांस से अपने दोहद को पूर्ण करती हैं वे धन्य हैं, आदि / लेकिन चेलना देवी उस दोहद के पूर्ण न हो सकने के कारण शुष्क यावत् चिन्तित हो रही है / इसलिए पुत्र ! उस दोहद की पूर्ति के निमित्त प्रायों (उपायों) यावत स्थिति को समझ नहीं सकने के कारण मैं भग्नमनोरथ यावत चिन्तित हो रहा हूँ। श्रेणिक राजा के इस मनोगत भाव को सुनने के बाद अभयकुमार ने श्रेणिक राजा से इस भाँति कहा-~-'तात ! आप भग्नमनोरथ यावत चिन्तित न हों, मैं ऐसा कोई जतन (उपाय) करूंगा कि जिससे मेरी छोटी माता चेलना देवी के उस दोहद की पूर्ति हो सकेगी। इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा को इष्ट यावत वाणी से सान्त्वना दी-प्राश्वस्त किया। श्रेणिक राजा को आश्वस्त करने के पश्चात अभय कुमार जहाँ अपना भवन था वहाँ पाया / पाकर गुप्त रहस्यों के जानकार प्रान्तरिक विश्वस्त पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा...देवानुप्रियो ! तुम जाओ और सूनागार (वध-स्थान) में जाकर गीला मांस, रुधिर और वस्तिपुटक (पेट का भीतरी भाग, प्रांतें) लामो / ' वे रहस्यज्ञाता पुरुष अभय कुमार की इस बात को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट हुए यावत अभयकुमार के पास से निकले / निकलकर जहाँ वध-स्थल था, वहाँ पहुँचे और उन्होंने वहाँ मे गीला मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को लिया। लेकर जहाँ अभयकुमार था, वहाँ पाये / आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत उस मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को रख दिया / तब अभय कुमार ने उस रक्त और मांस में से थोड़ा भाग कैंची से काटा। काटकर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ पाया और श्रेणिक राजा को एकान्त में शैया पर चित (ऊपर की ओर मुख Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [निरयावलिकासूत्र करके) लिटाया। लिटाकर श्रेणिक राजा की उदरावली पर उस पा रक्त-मांस को फैला दिया--रख दिया और फिर वस्तिपुटक को लपेट दिया। वह ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे रक्त-धारा बह रही हो / और फिर ऊपर के माले में चेलना देवी को अवलोकन करने के आसन से बैठाया। अर्थात् ऐसे स्थान पर बिठलाया जहाँ से वह दश्य को देख सके। बैठाकर चलना देवी के ठीक नीचे सामने की ओर श्रेणिक राजा को शैया पर चित लिटा दिया। कतरनी से श्रेणिक राजा की उदरावली का मांस काटा, काटकर उसे एक बर्तन में रखा / तब श्रेणिक राजा ने झूठ-मूठ मूच्छित होने का दिखावा किया और उसके बाद कुछ समय के अनन्तर आपस में बातचीत करने में लीन हो गए। तत्पश्चात् अभयकुमार ने श्रेणिक राजा की उदरावली के मांस-खण्डों को लिया, लेकर जहाँ चेलना देवी थी, वहाँ पाया और पाकर चेलना देवी के सामने रख दिया। तब चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के उस उदरावली के मांस के लोथड़े से यावत् अपना दोहद पूर्ण किया। दोहद पूर्ण होने पर चेलना देवी का दोहद संपन्न, सम्मानित और निवृत्त हो गया अर्थात् उसकी इच्छा पूर्ण हो गई / तब वह उस गर्भ का सुखपूर्वक वहन करने लगी। चेलना देवी का विचार 15. तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुटवरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे [जाव] समुप्पज्जित्था-"जइ ताव इमेणं दारएणं गभगएणं चेव पिउणो उयरवलिमंसाणि खाइयाणि, तं सेयं खलु मए एयं गम्भं साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा विद्ध सित्तए का", एवं संपेहेइ; 2 त्ता तं गम्भं बहूहिं गन्मसाडणेहि य गडभपाडणेहि य गभगालणेहि य गम्भविद्धसणेहि य इच्छइ तं गम्भं साडित्तए वा पाडिसए वा गालित्तए वा विद्ध सित्तए वा, नो चेव णं से गम्भे सडइ वा पडइ वा गलइ वा विद्धसइ वा। तए णं सा चेल्लणा देवी तं गन्मं जाहे नो संचाएइ बहूहि गम्भसाडएहि य जाव गब्भविद्धसणेहि य साडित्तए वा [जाव] विद्ध सित्तए वा, ताहे सन्ता तन्ता परितन्ता निविण्णा समाणी अकामिया अवसवसा अट्टवसदृदुहट्टा तं गन्मं परिवहइ। [15] कुछ समय व्यतीत होने पर एक बार चेलना देवी को मध्य रात्रि में जागते हुए इस प्रकार का यह यावत् विचार उत्पन्न हुआ-'इस बालक ने गर्भ में रहते ही पिता की उदरावलि का मांस खाया है, अतएव इस गर्भ को नष्ट कर देना, गिरा देना, गला देना एवं विध्वस्त कर देना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा (क्योंकि जन्म लेने और बड़ा होने पर न जाने यह पिता का या कुल का क्या अनिष्ट करेगा !) उसने ऐसा निश्चय किया। निश्चय करके बहुत सी गर्भ को नष्ट करने वाली गिराने वाली, गलाने वाली और विध्वस्त करने वाली औषधियों से उस गर्भ को नष्ट करना, गिराना, गलाना और विध्वस्त करना चाहा, किन्तु वह गर्भ न नष्ट हुअा, न गिरा, न गला और न विध्वस्त ही हुअा। तदनन्तर जब चेलना देवी उस गर्भ को बहुत सी गर्भ नष्ट करने वाली यावत् विध्वस्त करने वाली औषधियों से नष्ट करने यावत् विध्वस्त करने में समर्थ सफल नहीं हुई तब श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और उदास होकर अनिच्छापूर्वक विवशता से दुस्सह आत ध्यान से ग्रस्त हो उस गर्भ को परिवहन-धारण करने लगी। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग : प्रथम अध्ययन] [19 बालक का जन्म : एकान्त में फेंकना 16. तए णं सा चेल्लणा देवो नवव्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं [जाव] सोमालं सुरूवं दारगं पयाया। तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए इमे एयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-"जइ जाव इमेण दारएणं गभगएणं चेव पिउणो उयरबलिमसाई खाइयाई, तं न नज्जइ णं एस दारए संबड्ढमाणे अम्हं कुलस्स अन्तकरे भविस्सइ / तं सेयं खलु अम्हं एवं दारगं एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झावित्तए" एवं संपेहेइ, २त्ता दासचेडि सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी-"गच्छह गं तुमं, देवाणुप्पिए, एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि।" [16] तत्पश्चात् नौ मास पूर्ण होने पर चेलना देवी ने एक सुकुमार एवं रूपवान् बालक का प्रसव किया-उसे जन्म दिया। बालक का प्रसव होने के पश्चात चेलना देवी को इस प्रकार का यह विचार आया-'यदि इस बालक ने गर्भ में रहते ही पिता की उदरावलि का मांस खाया है तो हो सकता है कि यह बालक संवर्धित-सवयस्क होने पर हमारे कुल का भी अंत करने वाला हो जाय ! अतएव इस बालक को एकान्त उकरड़े (कूड़े-कचरे के ढेर) में फेंक देना ही उचित-श्रेयस्कर होगा।' इस प्रकार का संकल्प -विचार किया। संकल्प करके अपनी दासी-चेटी को बुलाया, बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिये ! तुम जानो और इस बालक को एकान्त में उकरड़े में फेंक प्रायो।' श्रेणिक द्वारा भर्त्सना 17. तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वुत्ता समाणो करयलं [जाव] कट्ट चेल्लणाए देवीए एयमट्ठविणएणं पडिसुणेइ, 2 तातं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ, 2 त्ता जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, 2 ता तं दारगं एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झाइ / तए णं तेणं दारणेणं एगन्ते उक्कुरुडियाए उझिएणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोविया यावि होत्था / तए णं से सेणिए राया इमोसे कहाए लट्ठ समाणे, जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता तं दारगं एगन्ते उक्कुरुडियाए उझियं पासेइ, 2 त्ता आसुरुत्ते [जाव] मिसिमिसेमाणे तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ, 2 ता जेणेव चेल्लणा देवी, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता चेल्लणं देविं उच्चावयाहि पाओसणाहिं आओसइ, 2 ता उच्चावयाहि निभच्छणाहिं निभच्छेइ / एवं उद्धसणाहिं उद्ध'सेइ, 2 ता एवं क्यासी- "किस्स णं तुमं मम पुत्ते एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झावेसि" त्ति कट्ट चेल्लणं देवि उच्चावयसवहसावियं करेइ, 2 ता एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए, एयं दारगं अणुपुग्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेहि / तए णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी लज्जिया विलिया विड्डा करयलपरिग्गहियं सेणियस्स रन्नो विणएणं एयमट्ठ पडिसुणेइ, 2 तं दारगं अणुपुवेणं सारखमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेइ। तए णं तस्स दारगस्त एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अग्गंगुलिया कुक्कुडपिच्छएण Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [निरयावलिकासूत्र दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिनिस्सवइ / तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सद्देणं पारसइ / तए णं सेणिए राया तस्स दारगस्स प्रारसियसह सोच्चा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हइ, 2 ता सं अगङ्गलियं आसयंसि पक्खिवइ, 2 ता पूयं च सोणियं च प्रासएणं प्रामुसेइ / तए णं से दारए निव्वुए निवेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ / ताहे वि य णं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ, ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, 2 ता तं दारगं करयलपुडेणं गिण्हह तं चेव [जाब] निव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चन्दसूरदरिसणियं करेन्ति, [जाव] संपत्ते बारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुणणिप्फन्नं नामधेज्जं करेन्ति-"जहा णं अम्हं इमस्स दारगस्स एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया, तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्ज कणिए / " तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति 'फणिय' त्ति / तए गं तस्स कूणियस्स आणुपुब्वेणं ठिइडियं च, जहा मेहस्स [जाव] उप्पि पासायवरगए विहरइ / अटुनो दाओ। [18] तत्पश्चात् उस दास चेटी ने चेलना देवी की इस प्राज्ञा को सुनकर दोनों हाथ जोड़ यावत् चेलना देवी की इस प्राज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार करके उस बालक को हथेलियों में लिया / लेकर वह अशोक-बाटिका में गई और उस बालक को एकान्त में उकरडे पर फेंक दिया / उस बालक के एकान्त के उकरड़े पर फेंके जाने पर वह अशोक वाटिका प्रकाश से व्याप्त हो गई। इस समाचार को सुनकर राजा श्रेणिक अशोक-वाटिका में गया। वहाँ उस बालक को एकान्त में उकरडे पर पड़ा हुआ देखकर क्रोधित हो उठा यावत् रुष्ट, कुपित और चंडिकावत् रौद्र होकर दांतों को मिसमिसाते हुए उस बालक को उसने हथेलियों में ले लिया और जहाँ चेलना देवी थी, वहाँ आया / प्राकर चेलना देवी को भले-बुरे शब्दों से फटकारा, परुष वचनों से अपमानित किया और धमकाया। फिर इस प्रकार कहा–'तुमने क्यों मेरे पुत्र को एकान्त-उकरड़े पर फिकवाया ?' इस तरह कहकर चेलना देवी को भली-बुरी सौगंध-- शपथ दिलाई और कहा-- देवानुप्रिये ! इस बालक की देखरेख करती हुई इसका पालन-पोषण करो और संवर्धन करो। तब चेलना देवी ने श्रेणिक राजा के इस आदेश को सनकर लज्जित, प्रताडित और अपराधिनी-सी हो कर दोनों हाथ जोड़कर श्रेणिक राजा के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार किया और अनुक्रम से उस बालक की देखरेख, लालन-पालन करती हुई वधित करने लगी। एकान्त उकरड़े पर फेंके जाने के कारण उस बालक की अंगुली का आगे का भाग मुर्गे की चोंच से छिल गया था और उससे वार-वार पीव और खन बहता रहता था। इस कारण वह बालक वेदना से चीख-चीख कर रोता था। उस बालक के रोने को सुन और समझकर श्रेणिक राजा बालक के पास पाता और उसे गोदी में लेता। लेकर उस अंगुली को मुख में लेता और उस पीव और खून को मुख से चूस लेता (और थूक देता)! ऐसा करने से वह बालक शांति का अनुभव कर चुपशांत हो जाता / इस प्रकार जब-जब भी वह बालक वेदना के कारण जोर-जोर से रोने लगता Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [21 तब-तब श्रेणिक राजा उस बालक के पास पाता, उसे हाथों में लेता और उसी प्रकार चूसता यावत् वेदना शान्त हो जाने से वह चुप हो जाता था। तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने तीसरे दिन चन्द्र सूर्य दर्शन का संस्कार किया, यावत् ग्यारह दिन के बाद बारहवें दिन इस प्रकार का गुण-निष्पन्न नामकरण किया-क्योंकि हमारे इस बालक की एकान्त उकरड़े में फेंके जाने से अंगुली का ऊपरी भाग मुर्गे की चोंच से छिल गया था इसलिए हमारे इस बालक का नाम 'कूणिक' हो / इस प्रकार उस बालक के माता-पिता ने उसका 'कुणिक' यह नामकरण किया। तत्पश्चात् उस बालक का जन्मोत्सव आदि मनाया गया। यावत् (वह बड़ा होकर) मेधकुमार के समान राजप्रासाद में ग्रामोद-प्रमोदपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। (पाठ कन्याओं के माथ उसका पाणिग्रहण हुअा और) माता-पिता ने पाठ-पाठ वस्तुएँ प्रीतिदान (दहेज) में प्रदान की। कूणिक का कुविचार तए णं तस्स कणियस्स कुमारस्स अन्नया पुटवरत्ता० [जाव] समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं सेणियस्स रम्रो वाधारणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, त सेयं खलु मम सेणियं रायं नियलबन्धणं करेता अप्पाणं महया महया रायाभिसेएणं अमिसिञ्चावितए" त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 त्ता सेणियस्स रन्नो अन्तराणि य छिड्डाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे विहरइ। तए णं से कूणिए कुमारे सेणियस्स रन्नो अन्तरं वा [जाव] मम्मं वा अलभमाणं अन्नया कयाइ कालाईए दस कुमारे नियघरे सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पिया, अम्हे सेणियस्स रन्नो वाघाएणं नो संचाएमो सयमेव रज्जसिरि करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं खलु देवाणुपिया! अम्हं सेणियं रायं नियलबघणं करेत्ता रज्जंच रट्टं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जणवयं च एक्कारसभाए विरिञ्चित्ता सयमेय रज्जसिरि करेमाणाणं पालेमाणाणं [जाव] विहरित्तए"। [18] तत्पश्चात् उस कुमार कुणिक को किसी समय मध्यरात्रि में यावत् ऐसा विचार पाया कि श्रेणिक राजा के विघ्न के कारण मैं स्वयं राज्यशासन और राज्यवैभव का उपभोग नहीं कर पाता हूँ, अतएव श्रेणिक राजा को बेड़ी में डाल देना (कारागार में बन्द कर देना) और महान् राज्याभिषेक से अपना अभिषेक कर लेना मेरे लिए श्रेयस्कर-लाभदायक होगा।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया और संकल्प करके श्रेणिक राजा के अन्तर (अवसर—मौका) छिद्र (दोष) और विरह (एकान्त) की ताक के रहता हुमा समय-यापन करने लगा। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा के अवसरों यावत् मर्मों को जान न सकने के कारण अर्थात् अवसर न पाकर कूणिक कुमार ने एक दिन काल आदि दस राजकुमारों को (अपने भाइयों को) अपने घर आमंत्रित किया और आमंत्रित करके उनको अपने विचार बताए-हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा के कारण हम स्वयं राजश्री का उपभोग और राज्य का पालन नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए हे Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [निरयावलिकासूत्र देवानुप्रियो ! हमारे लिए श्रेयस्कर यह होगा कि श्रेणिक राजा को बेड़ी में डालकर और राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, धान्यभंडार और जनपद को ग्यारह भागों में बांट करके हम लोग स्वयं राजश्री का उपभोग करें और राज्य का पालन करें। काल आदि द्वारा स्वीकृति 19. तए णं ते कालाईया दस कुमारा कणियस्स कुमारस्स एयम? विणएणं पडिसुगंति / तए णं से कुणिए कुमारे अन्नया कयाइ सेणियस्स रन्नो अन्तरं जाणाइ, 2 ता सेणियं रायं नियलबन्धणं करेइ, 2 ता अप्पाणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिञ्चावेइ / तए णं से कूणिए कुमारे राया जाए महया महया [.] / [16] कृणिक का कथन सुनकर उन काल आदि दस राजपुत्रों ने उसके इस विचार को विनयपूर्वक स्वीकार किया। इसके बाद कूणिक कुमार ने किसी समय श्रेणिक राजा के अंदरूनी रहस्यों को जाना और जानकर श्रेणिक राजा को बेड़ी से बाँध दिया / बाँधकर महान राज्याभिषेक से अपना अभिषेक कराया, जिससे वह कणिक कुमार स्वयं राजा बन गया / कृणिक का चेलना के पादवंदनार्थ गमन 20. तए णं से कुणिए राया अन्नया कयाइ हाए जाव कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए सव्वालंकारविभूसिए चेल्लणाए देवीए पायवन्दए हव्वमागच्छइ / तए णं से कूणिए राया चेल्लणं देवि ओहय० [जाव] शियायमाणि पासइ, 2 ता चेल्लणाए देवीए पायग्गहणं करेइ, 2 ता चेल्लणं देवि एवं वयासी—कि णं अम्मो ! तुम्हें न तुट्ठी वा न ऊसए वा न हरिसे वा न आणन्दे वा, जं णं अहं सयमेव रज्जसिरि [जाव] विहरामि ? तए णं सा चेल्लणा देवी कणियं रायं एवं क्यासी-"कहं णं पुत्ता! ममं तुट्ठी वा ऊसए का हरिसे वा प्राणन्दे वा भविस्सइ, ज णं तुम सेणियं रायं पियं देवयं गुरु-जणगं प्रच्चन्तनेहाणुरागरत्तं नियलबन्धणं करित्ता अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसिञ्चावेसि ?" तए णं से कूणिए राया चेल्लणं देवि एवं क्यासी-"घाएउकामे गं, अम्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारेउ बन्धिउ० निच्छुभिउकामे णं अम्मो ! ममं सेणिए राया / तं कहं णं अम्मो ! मम सेणिए राया प्रच्चन्तनेहाणुरागरते ?" तए णं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमार एवं वयासो-"एवं खलु, पुत्ता ! तुमंसि ममं गन्भे आभूए समाणे तिण्हं मासाणं बहुपडिपुष्णाणं ममं अय मेयारूवे दोहले पाउन्भूए 'धन्नाओ णं तापो अम्मयानो, [जाव] अंगपडिचारियाओ, निरवसेसं भाणियब्वं [जाव], जाहे वि य गं तुम वेयणाए अभिभूए महया [जाव] तुसिणीए संचिट्ठसि / एवं खलु पुत्ता ! सेणिए राया प्रच्चन्तनेहाणुरागरत्ते"। तए णं से कृणिए राया चेल्लणाए देवीए अन्तिए, एयम8 सोच्चा निसम्म चेल्लणं देवि एवं वयासी-"दुठु णं अम्मो! मए कयं सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चन्तनेहाणुरागरत्तं नियलबन्धणं करन्तेणं / तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो सयमेव नियलाणि छिन्दामि" ति कट्ट परसुहत्थगए जेणेव घारगसाला तेणेव पहारेत्थ गमणाए / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [23 [20] तदनन्तर किसी दिन कुणिक राजा स्नान करके, बलिकर्म करके विघ्नविनाशक उपाय कर, मंगल एवं प्रायश्चित्त कर और फिर अवसर के अनुकूल शुद्ध मांगलिक वस्त्रों को पहनकर, सर्व अलंकारों से अलंकृत होकर चेलना देवी के चरणवंदनार्थ पहुँचा / उस समय कणिक राजा ने चेलना देवी को उदासीन यावत् चिन्ताग्रस्त देखा / देखकर चेलना देवी के पाँव पकड़ लिए और चेलना देवी से इस प्रकार पूछा–माता ! ऐसी क्या बात है कि तुम्हारे चित्त में संतोष, उत्साह, हर्ष और प्रानन्द नहीं है कि मैं स्वयं राज्यश्री का उपभोग करते हए यावत समय बिता रहा हूँ ? अर्थात मेरा राजा होना क्या आपको अच्छा नहीं लग रहा है ? तब चेलना देवी ने कूणिक राजा से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! मुझे तुष्टि, उत्साह, हर्ष अथवा आनन्द कैसे हो सकता है, जबकि तुमने देवता स्वरूप, गुरुजन जैसे, अत्यन्त स्नेहानुराग युक्त पिता श्रेणिक राजा को बन्धन में डालकर अपना निज का महान् राज्याभिषेक से अभिषेक कराया। तब कणिक राजा ने चेलना देवी से इस प्रकार कहा-माताजी ! श्रेणिक राजा तो मेरा घात करने के इच्छुक थे। हे अम्मा ! श्रेणिक राजा तो मुझे मार डालना चाहते थे, बांधना चाहते थे और निर्वासित कर देना चाहते थे / तो फिर हे माता ! कैसे मान लिया जाए यह कि श्रेणिक राजा मेरे प्रति अतीव स्नेहानुराग वाले थे ? यह सुनकर चेलना देवी ने कणिक कुमार से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! जब तुम्हें मेरे गर्भ में आने पर तीन मास पूरे हए तो मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुमा कि-- माताएँ धन्य हैं, यावत् अंगपरिचारिकाओं से मैंने तुम्हें उकरड़े में फिकवा दिया, आदि-आदि, यावत् जब भी तुम वेदना से पीड़ित होते और जोर-जोर से रोते तब श्रेणिक राजा तुम्हारी अंगली मुख में लेते और मवाद चूसते / तब तुम चुप-शांत हो जाते, इत्यादि सब वृत्तान्त चेलता ने कूणिक को सुनाया। फिर कहा-इसी कारण हे पुत्र ! मैंने कहा कि श्रेणिक राजा तुम्हारे प्रति अत्यन्त स्नेहानुराग से युक्त हैं।' कणिक राजा ने चेलना रानी से इस पूर्ववृत्तान्त को सुनकर और ध्यान में लेकर चेलना देवी से इस प्रकार कहा-माता! मैंने बरा किया जो देवतास्वरूप, गुरुजन जैसे अत्यन्त स्नेहानुराग से अनुरक्त अपने पिता श्रेणिक राजा को बेड़ियों से बाँधा / अब मैं जाता हूँ और स्वयं ही श्रेणिक राजा की बेड़ियों को काटता हूँ, ऐसा कहकर कुल्हाड़ी हाथ में ले जहाँ कारागृह था, उस ओर चलने के लिए उद्यत हुआ, चल दिया। श्रेणिक का मनोविचार 21. तए णं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एज्जमाणं पासइ, 2 ता एवं वयासी"एस गं कूणिए कुमारे अपस्थियपस्थिए [जाव] दुरन्तपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसिए हिरिसिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हवमागच्छद / तं न नज्जइ णं ममं केणइ कु-मारेणं मारिस्सइ" ति कट्ट भीए [जाव] तत्थे तसिए उनिग्गे संजायभये तालपुडगं विसं आसगंसि पविखवइ / ___ तए णं से सेणिए राया तालपुडगविसंसि आसगंसि पविखत्ते समाणे मुहत्तन्तरेण परिणममाणंसि निप्पाणे निच्चे? जीवविप्पजढे ओइण्णे। तए णं से कुणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागए, 2 ता सेणियं रायं निप्पाणं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [निरयावलिकासूत्र निच्चेटु जीवविप्पजढं प्रोइण्णं पासइ, 2 ता महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्ते विव चम्पगवरपायवे धस त्ति धरणीयलंसि सवङ्ग हिं संनिवडिए / तए णं से कूणिए कुमारे मुहुत्तन्तरेण आसत्थे समाणे रोयमाणे कन्दमाणे सोयमाणे विलवमाणे एवं वयासी-"अहो णं मए अधन्नेणं अपुग्णणं अकयपुण्णणं दुठुकयं सेणियं रायं पियं देवयं अच्चन्तनेहाणुरागरत्तं नियलबन्धणं करन्तेणं / मममूलागं चेव णं सेणिए:राया कालगए" त्ति कटु राईसरतलवर जाव माडम्बिग-कोडुम्बिय-इन्भ-सेट्ठिसेणावइ-सत्यवाह-मान्ति-गणगदोबारिय-प्रमच्च-चेड-पोढमद-नगर-निगम-दूय-संधिवालसद्धि संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे विलबमाणे महया इनोसक्कारसमुदएणं सेणियस्स रन्नो नीहरणं * करेइ। तए णं से कूणिए कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अन्नया कयाइ अन्तेउरपरियाल-संपरिवुडे सभण्डमत्तोवगरणमायाए रायगिहाओ पडिनिक्खमइ, जेणेव चम्पानयरी तेणेव उवागच्छइ, तत्थ वि णं विउलभोगसमिइसमानागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था। तए णं से कूणिए राया अन्नया कयाइ कालाईए दस कुमारे सद्दावेइ, 2 त्ता रज्जं च जाव रटु च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च अंतेउरं च जणवयं च एक्कारसभाए विरिञ्चइ, 2 ता सयमेव रज्जसिरि करेमाणे पालेमाणे विहरइ / [21] श्रेणिक राजा ने हाथ में कुल्हाड़ी लिए कृणिक कुमार को अपनी ओर आते देखा / देखकर मन ही मन विचार किया-यह मेरा बुरा–विनाश चाहने वाला, यावत् कुलक्षण, अभागा, कृष्णाचतुर्दशी को उत्पन्न, लोक-लाज से रहित, निर्लज्ज कूणिक कुमार हाथ में कुल्हाड़ी लेकर इधर ग्रा रहा है। न मालम मुझे यह किस क मौत से मारे ! इस विचार से उसने भीत, त्रस्त भयग्रस्त, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर तालपुट विष को मुख में डाल लिया। तदनन्तर तालपुट विष को मुख में डालने और मुहूर्तान्तर के बाद-कुछ क्षणों में उस विष के (शरीर) में व्याप्त होने पर श्रेणिक राजा निष्प्राण, निश्चेष्ट, निर्जीव हो गया। इसके बाद वह कूणिक कुमार जहां कारावास था, वहाँ पहुँचा। पहुंचकर उसने श्रेणिक राजा को निष्प्राण निश्चेष्ट, निर्जीव देखा / तब वह दुस्सह, दुद्धर्ष पितृशोक से विलविलाता हश्रा कुल्हाड़ी से काटे चम्पक वृक्ष की तरह धड़ाम-से पूरी तरह पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुछ क्षणों के पश्चात् कूणिक कुमार प्राश्वस्त-सा हुआ और रोते हुए, प्राकदन, शोक एवं विलाप करते हुए इस प्रकार कहने लगा--अहो ! मुझ अधन्य, पुण्यहीन, पापी अभागे ने बुरा कियाबहुत बुरा किया जो देवतारूप, अत्यन्त स्नेहानुराग-युक्त अपने पिता श्रेणिक राजा को कारागार में डाला। मेरे कारण ही श्रेणिक राजा कालगत हुए हैं / तदनन्तर ऐश्वर्यशाली पुरुषों, तलवर राज्यमान्य पुरुषों, मांडलिक, जागीरदारों, कौटुम्बिक-प्रमुख परिवारों के मुखिया, इभ्य-कोट्यधीश धनपति-श्रीमंत, श्रेष्ठी-समाज में प्रमुख माने जाने वाले, सेनापतियों, मंत्री, गणक-ज्योतिषी द्वारपाल अमात्य, चेट-सेवक, पोठमर्दक-अंगरक्षक, नागरिक, व्यवसायी, दूत, संधिपाल-राष्ट्र के सीमान्त प्रदेशों के रक्षक आदि विशिष्ट जनों से संपरिवृत होकर रुदन, प्राक्रन्दन शोक और विलाप करते हुए महान् ऋति, सत्कार एवं अभ्युदय के साथ श्रेणिक राजा का अग्निसंस्कार किया। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] |25 . तत्पश्चात् वह कूणिक कुमार इस महान् मनोगत मानसिक दुःख से अतीव दुःखी होकर (इस दुःसह दुख को विस्मृत करने के लिए) किसी समय अन्तःपुर परिवार को लेकर धन-सपत्ति प्रादि गार्हस्थिक उपकरणों के साथ राजगह से निकला और जहा चपागनरी थी, वहां पाया। अर्थात् उसने राजगह नगर का परित्याग कर दिया और चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनाया / वहा परम्परागत भागो को भागते हुए कुछ समय के बाद शोक-सताप से रहित हो गया अथवा उसका शोक कम हो गया। तत्पश्चात् उस कुणिक राजा ने किसी दिन काल आदि दस राजकुमारों को बुलाया--- प्रामत्रित किया और राज्य, राष्ट्र बल-सेना, वाहन-रथ आदि, कोश, धन संपत्ति, धान्य-भंडार, अंत:पुर और जनपद-देश के ग्यारह भाग किये ! भाग करके वे सभी स्वयं अपनी-अपनी राजश्री का भोग करते हुए प्रजा का पालन करते हुए समय व्यतीत करने लगे। कुमार वेहल्ल को क्रीड़ा - 22. तत्थ णं चम्पाए नगरोए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कुणियस्स रन्नो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले नाम कुमारे होत्था-सोमाले [जाब] सुरुवे / तए णं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएणं रन्ना जीवन्तएणं चेव सेयणए गन्धहत्थी अट्ठारसवंके हारे पुन्वदिन्ने / तए णं से वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गन्धहत्थिणा अन्ते उरपरियालसंपरिधुडे चम्पं नरि मज्झमझेणं निग्गच्छइ, २त्ता अभिक्खणं 2 गङ्ग महाणई मज्जणय ओयरइ / तए णं सेयणए गन्धहत्थी देवीओ सोण्डाए गिण्हइ, 2 ता अण्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अप्पेगइयाओ खन्धे ठवेइ, एवं कुम्भे ठवेइ, सीसे ठवेइ, दन्तमुसले ठवेद, अप्पेगइयाओ सोण्डागयाओ अन्दोलावेद, अप्पेगइयानो दन्तन्तरेसु नीइ, अप्पेगइयाओ सोभरेणं म्हाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेगेहि कोलावणेहि कोलावेइ / तए णं चम्पाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एषमाइक्खइ, जाव एवं भासेइ एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ–'एवं खलु, देवाणुप्पिया, वेहल्ले कुमारे सेयणएण गन्धहत्थिणा अन्तेउर० [.] तं चैव जाव, अणेगेहि कोलावणएहि कोलावेइ / तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पच्चणुभवमाणे विहरइ, नो कुणिए राया' / [22] उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज कणिक राजा का कनिष्ठ सहोदर भ्राता बेहल्ल नामक राजकुमार था / वह सुकुमार यावत रूप-सौन्दर्यशाली था / ___ अपने जीवित रहते श्रेणिक राजा ने पहले ही वेहल्लकुमार को सेचनक नामक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था / वह बेहल्लकुमार अन्तपुर:परिवार के साथ सेचनक गधहस्ती पर आरूढ होकर, अनेकों बार चम्पानगरी के बीचोंबीच होकर निकलता और निकल कर स्नान करने के लिए गंगा महानदी में उतरता / उस समय वह से चनक गधहस्ती रानियों को सूड से पकड़ता, पकड़ कर किसी को पीठ पर बिठलाता, कसी को कंध पर बैठाता, किसी को गंडस्थल पर रखता, किसी को मस्तक पर बैठाता, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [निरयावलिकासूत्र दंत-मूसलों पर बैठाता, किसी को सूड में लेकर झुलाता, किसी को दांतों के बीच लेता, किसी को फूहारों से नहलाता और किसी-किसी को अनेक प्रकार की क्रीडामों से क्रीडित करता-खेलाता था / तब चम्पानगरी के शृगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, महापथों और पथों में बहुत से लोग आपस में एक दूसरे से इस प्रकार कहते, बोलते, बतलाते और प्ररूपित करते किदेवानुप्रियो ! अन्तःपुर परिवार को साथ लेकर वेहल्लकमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा अनेक प्रकार की क्रीडाएँ करता है / वास्तव में वेहल्ल कुमार ही राजलक्ष्मी का सुन्दर फल अनुभव कर रहा है / कूणिक राजा राजश्री का उपभोग नहीं करता। पदमावती को ईा तए णं तीसे पउमावईए देवीए इमीसे कहाए लट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे [जाव] समुप्पज्जित्था-"एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गन्धहत्थिणा [जाव] अणेगेहि कोलावणएहि कोलावेइ / तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पच्चणुभवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया। तं कि णं अम्हं रज्जेण वा [जाव] जणवएण वा, जइ णं अम्हं सेयणगे गन्धहत्थी नस्थि ! तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयम? विन्नवित्तए" त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 ता जेणेव कूणिए राया, तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता करयल० [जाव] परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेत्ति, वद्धाबित्ता एवं बयासी-"एवं खलु सामी, वेहल्ले कुमारे सेयणएण गन्धहत्थिणा जाव अणेगेहि कोलावणएहि कोलावेइ। तं किं णं अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा, जइ णं अम्हं सेयणए गन्धहत्थी नत्थि?। तए णं से कुणिए राया पउमावईए एयमट्ठनो आढाइ, नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठह / तए णं सा पउमावई देवी अभिक्खणं 2 कूणियं रायं एयम8 विन्नवेइ। तए णं से कूणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खणं 2 एयम8 विन्नविज्जमाणे अन्नया कयाइ कुमारं सद्दावेइ, 2 ता सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं जायई। [23] तब (कणिक की पत्नी) पद्मावती देवी को इस प्रकार के प्रजाजनों के कथन को सुनकर यह संकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ—'निश्चय ही वेहल्ल कुमार सेचनक गंधहस्ती के द्वारा यावत् अनेक प्रकार की क्रीडाएँ करता है / अतएव यह वेहल्लकुमार ही सचमुच में राजश्री का फल भोग रहा है, कूणिक राजा नहीं। तो हमारा यह राज्य यावत् जनपद किस काम का यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती न हो ! इसलिए मुझे कूणिक राजा से इस विषय में निवेदन करना चाहिये।' पद्मावती ने इस प्रकार का विचार किया और विचार कर जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ आई और आकर दोनों हाथ जोड़, मुकुलित दस नखों पूर्वक शिर पर आवर्त करके, मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय शब्दों से उसे बधाया और फिर इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन् ! वेहल्ल कुमार सेचनक गंधहस्ती से यावत् भांति-भांति की क्रीडाएँ करता है / तो हमारा राज्य यावत् जनपद किस काम का यदि हमारे पास सेचनक गंधहस्ती नहीं है / / कृणिक राजा ने पद्मावती के इस कथन का आदर नहीं किया / उसे सुना नहीं--अनसुना कर दिया। उस पर ध्यान नहीं दिया और चुपचाप ही रहा / तब वह पद्मावती देवी बार-बार इस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [27 बात का ध्यान दिलाती रही। पद्मावती द्वारा वार-बार इसी बात को दुहराने पर कूणिक राजा ने एक दिन वेहल्ल कुमार को बुलाया और सेचनक गंधहस्ती तथा अठारह लड़ का हार मांगा। वेहल्लकुमार का मनोमंथन 24. तए णं से वेहल्ले कमारे कूणियं रायं एवं वयासी-"एवं खलु सामी, सेणिएणं रन्ना जीवन्तेणं चेव सेयणए गन्धहत्थी अट्ठारसर्वके यहारे दिन्ने / तं जइ गं सामी, तुम्भे ममं रज्जस्स य [जाव] जणवयस्स य अद्ध दलयह, तो णं अहं तुम्भ सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं दलयामि। तए णं से कूणिए राया वेहल्लस्स कुमारस्स एयमट्ठनो आढाइ, नो परिजाणइ, अभिक्खणं 2 सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं जायइ / तए णं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कणिएणं रन्ना अभिक्खणं 2 सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसवंक च हारं (जायमाणस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए 4 समुप्पज्जित्था) “एवं खलु प्रक्खिविउकामे णं, मिहिउकामे णं, उद्दालेउकामे णं ममं कूणिए राया सेयणगं गन्धहत्थि प्रहारसर्वकं च हारं ! तं [जाव] ममं कूणिए राया (नो जाणइ) ताव (सेयं मे) सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं गहाय अन्तेउरपरियालसंपरिवुडस्स सभण्डमत्तोवगरणमायाए चम्पाओ नयरीमो पडिनिक्खमित्ता वेसालीए नयरीए अज्जगं चेडयं रायं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए" एवं संपेहेइ, 2 कूणियस्स रन्नो अन्तराणि यछिदाणि य मम्माणि य रहस्साणि य विवराणि य पडिजागरमाणे 2 विहरइ। ___ तए णं से वेहल्ले कुमारे अन्नया कयाइ कणियस्स रन्नो अन्तरं जाणइ, सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंक च हारं महाय अन्तेउरपरियालसंपरिघुड़े सभण्डमत्तोवगरणमायाए चम्पायो नयरीओ पडिनिक्खमइ, 2 ता जेणेव बेसाली नयरी, तेणेव उवागच्छइ, वेसालीए नयरीए अज्जगं चेडयं उपसंपज्जित्ताणं विहरह। [24] तब वेहल्ल कुमार ने कणिक राजा को उत्तर दिया-स्वामिन् ! श्रेणिक राजा ने अपने जीवनकाल में ही मुझे यह सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था / यदि स्वामिन् ! आप राज्य यावत् जनपद का आधा भाग मुझे दें तो मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दूंगा।' कूणिक राजा ने वेहल्ल कुमार के इस उत्तर को स्वीकार नहीं किया। उस पर ध्यान नहीं दिया और बार-बार सेचनक गंधहस्ती एवं अठारह लड़ों के हार को देने का आग्रह किया। तब कणिक राजा के वारंवार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को मांगने पर वेहल्ल कुमार के मन में विचार आया कि वह उनको झपटना चाहता है, लेना चाहता है, छीनना चाहता है / इसलिए जब तक कूणिक राजा मेरे सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को झपट न सके, ले न सके और छीन न सके, उससे पहले ही सेचनक गंधहस्ती और हार को लेकर अन्तःपूर परिवार और गहस्थी की साधन-सामग्री के साथ चंपनगरी से निकलकर-भागकर वैशाली नगरी में आर्यक (नाना) चेटक का आश्रय लेकर रहूँ। उसने ऐसा विचार किया। विचार करके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [निरयावलिकासूत्र कणिक राजा की असावधानी, मौका, अन्तरंग बातों-रहस्यों की जानकारी की प्रतीक्षा करते हुए समय यापन करने लगा। तत्पश्चात् किसी दिन वेहल्ल-कुमार ने कणिक राजा को अनुपस्थिति को जाना और सेचनक गंधहस्ती, अठारह लड़ों का हार तथा अन्तःपुर परिवार सहित गृहस्थी के उपकरण-साधनों को लेकर चंपानगरी से भाग निकला / निकलकर जहाँ वैशाली नगरी थी वहाँ पाया और अपने नाना चेटक का आश्रय लेकर वैशाली नगरी में निवास करने लगा। कूणिक राजा की प्रतिक्रिया 25. तए ण से कणिए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे “एवं खलु वेहल्ले कुमारे मम असंविदिएणं सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं गहाय अन्तेउरपरियालसंपरिघुडे [जाव ] अज्जगं चेडयं रायं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ / तं सेयं खलु सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं पाणे उंदूयं पेसित्तए संपेहेइ, 2 ता दूयं सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी-“गच्छह गं तुम, देवाणुप्पिया, वेसालि नरि / तत्थ णं तुमं ममं अज्जं चेडगं रायं करयल० बद्धावेत्ता एवं क्याही-'एवं खल, सामी, कणिए राया विनवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे कणियस्स रनो संविदिएणं सेयणगं गंधहस्थि प्रहारसर्वक च हारं गहाय हव्यमागए / तए गं तुम्भे सामी, कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रनो पच्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं च पेसेह।" तए णं से दूए कूणिएणं करयल० [जाव] पडिसुणित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता जहा चित्तो [जाव] पायरासेहि नाइविकिठेहि अन्तरावासेहिं बसमाणे 2 जेणेव चम्पा नयरी तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता चम्पाए नयरोए मझमझेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव चेडगस्स रश्नो गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ / निगिहित्ता रहं ठवेइ / ठबित्ता रहाओ पच्चोरुहइ / तं महत्थं जाव पाहुडं गिण्हइ / गिहित्ता जेणेव अम्भन्तरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता चेडगं रायं करयलपरिग्गहियं जाय कटु जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं क्यासी—''एवं खलु, सामी, कूणिए राया विनवेइ---'एस णं वेहल्ले कुमारे, तहेव भाणियब्वं [जाव] वेहल्लं कुमार पेसेह।" [25] तत्पश्चात् कणिक राजा ने यह समाचार ज्ञात किया कि 'मुझे बिना बताए ही वेहल्ल कमार सेचनक गधहस्ती और अठारह लडों का हार तथा अन्त:पर परिवार सहित गहस्थी के उपकरणसाधनों को लेकर यावत् पार्यक चेटक राजा के आश्रय में निवास कर रहा है / तब उसने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को लौटाने के लिए दूत भेजना उचित है, ऐसा विचार किया और विचार करके दूत को बुलाया / बुलाकर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! तुम वैशाली नगरी जानो। वहाँ तुम आर्यक चेटकराज को दोनों हाथ जोड़ कर यावत् जय-विजय शब्दों से बधाकर इस प्रकार निवेदन करना-'स्वामिन् ! कूणिक राजा विनति करते हैं कि बेहल्लकुमार, कणिक राजा को बिना बताए ही सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को लेकर यहाँ आ गये हैं। इसलिए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [29 स्वामिन् ! आप कूणिक राजा को अनुगृहीत करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार कूणिक राजा को वापिस लौटा दें। साथ ही वेहल्ल कुमार को भेज दें।' कुणिक राजा की इस प्राज्ञा को दोनों हाथ जोड़ कर यावत् स्वीकार करके दूत जहाँ अपना घर था, वहाँ आया / आकर चित्त सारथी के समान यावत् प्रातःकलेवा करता हुआ अति दूर नहीं किन्तु पास-पास अन्तरावास-पड़ाव-विश्राम करते हए जहाँ वैशाली नगरी थी वहाँ अाया। पाकर वैशाली नगरी के बीचों बीच होकर जहाँ चेटक राजा का आवासगृह था और जहाँ उसकी बाह्य उपस्थान शाला (सभाभवन) थी, वहाँ पहुँचा / पहुंचकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और रथ से नीचे उतरा। तदनन्तर बहुमूल्य एवं महान् पुरुषों के योग्य उपहार लेकर जहाँ प्राभ्यन्तर सभाभवन था, उसमें जहाँ चेटक राजा था, वहाँ पहुंचा। पहुंचकर दोनों हाथ जोड़ यावत् 'जय-विजय' शब्दों से और बधाकर इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन ! कणिक राजा प्रार्थना करते हैंवेहल्लकुमार हाथी और हार लेकर कणिक राजा की आज्ञा बिना यहाँ चले आए हैं इत्यादि, यावत् हार, हाथी और वेहल्लकुमार को वापिस भेजिए / चेटक राजा का उत्तर 26. तए णं से चेडए राया तं दूयं क्यासी-"जह चेव णं देवाणुप्पिया, कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए प्रत्तए ममं नत्तुए, तहेव णं वेहल्ले वि कुमारे सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए, मम नत्तुए / सेणिएणं रम्ना जीवन्तेणं चेव वेहल्लस्स कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थी अट्ठारसवंके य हारे पुवविइण्णे / तं जइ गं कृणिए राया बेहल्लस्स रज्जस्स य जणवयस्स य अद्ध दलयइ तो गं अहं सेयणगं अट्ठारसवंक हारं च कुणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामि, वेहल्लं च कुमार पेसेमि / " तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइं पडिविसज्जेइ / तए णं से दूए चेउएणं रन्ना पडिविसज्जिए समाणे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे, तेणेव उवागच्छइ, २त्ता चाउग्घंटे प्रासरहं दुरुहइ, वेसालि नयरि मज्झमज्भेणं निग्गच्छइ, 2 त्ता सुहेहि वसहीहि [जाव] वडावेत्ता एवं क्यासी-एवं खल, सामी, चेडए राया प्राणवेइ--'जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते, चेल्लणाए देवीए अत्तए, मम नत्तुए, तं चेव भाणियव्वं जाव, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि' / तं न देइ गं सामी, चेडए राया सेयणगं अट्ठारसर्वक हारं च, वेहल्लं च नो पेसेइ"। ___तए णं से कूणिए राया दोच्चं पि दूयं सहावेत्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुमं, देवाणुप्पिया ! वेसालि नरिं / तत्थ णं तुमं मम अज्जगं चेडगं रायं जाव एवं क्याही--एवं खलु, सामी, कूणिए राया विनवेइ-"जाणि काणि रयणाणि समुष्पज्जन्ति, सम्वाणि ताणि रायकूलगामीणि / सेणियस्स रन्नो रज्जसिरिं करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसवंके हारे / तं गं तुम्भे सामी, रायकुलपरंपरागयं ठिइयं प्रलोवेमाणा सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं पेसेह' / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 [निरयावलिकासूत्र तए णं से दूए कूणियस्स रन्नो, तहेव जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु सामी, कणिए राया विन्नवेइ--'जाणि काणि, वेहल्लं कुमारं पेसेह" तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-"जइ चेव णं देवाणुप्पिया, कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए, जहा पढमं [जाव] वेहल्लं च कुमारं पेसेमि"। तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ / तए णं से दूए [जाव] कुणियस्स रन्नो वद्धावेत्ता एवं वयासी-"चेडए राया आणवेइ–'जह चेव णं, देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए, [जाव] वेहल्लं कुमारं पेसेमि' / तं न देइ णं, सामी, वेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वकं च हारं, बेहल्लं कुमारं नो पेसेइ"। [26] दूत का निवेदन सुनने के पश्चात् चेटक राजा ने दूत से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! जैसे कूणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र और चेलना देवी का अंगजात तथा मेरा दौहित्र है, वैसे ही वेहल्लकुमार भी श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देवी का अंगज और मेरा दौहित्र है / श्रेणिक राजा ने अपने जीवन-काल में ही वेहल्ल कुमार को सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार दिया था। इसलिए यदि कूणिक राजा वेहल्ल कुमार को राज्य और जनपद का प्राधा भाग दे तो मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार कुणिक राजा को लोटा दूंगा तथा वेहल्ल कुमार को भेज दूंगा।' / तत्पश्चात् अर्थात् इस प्रकार का उत्तर देकर उस दूत को सत्कार-सम्मान करके विदा कर दिया। इसके बाद चेटक राजा द्वारा विदा किया गया वह दूत जहाँ चार घंटों वाला अश्व-रथ था, वहाँ आया। आकर उस. चार घंटों वाले अश्व-रथ पर आरूढ हुआ / वैशाली नगरी के बीच से निकला / निकलकर साताकारी वसतिकाओं में विश्राम करता हुआ प्रात: कलेवा करता हुआ (यथासमय चम्पा नगरी में पहुंचा / पहुंचकर) यावत् (कूणिक राजा के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे) बधाकर इस प्रकार निवेदन किया-स्वामिन् ! चेटक राजा ने फरमाया है जैसे श्रेणिक राजा का पुत्र और चेलना देवी का अंगज कूणिक राजा मेरा दोहिता है वैसे ही वेहल्ल कुमार भी है इत्यादि / ' यहाँ चेटक का पूर्वोक्त कथन सब कहना चाहिए / इसलिए हे स्वामिन् ! चेटक राजा ने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार नहीं दिया है और न हो वेहल्ल कुमार को भेजा है। चेटक का उत्तर सुनकर कूणिक राजा ने दूसरी बार भी दूत को बुलाकर इस प्रकार कहादेवानप्रिय ! तुम पुनः वैशाली नगरी जाम्रो। वहाँ तुम मेरे नाना चेटकराज से यावत निवेदन करो-स्वामिन् ! कूणिक राजा यह प्रार्थना करता है-'जो कोई भी रत्न प्राप्त होते हैं, वे सब राजकुलानुगामी-राजा के अधिकार में होते हैं / श्रेणिक राजा ने राज्य-शासन करते हुए, प्रजा का पालन करते हुए दो रत्न प्राप्त किए थे-सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार / इसलिए स्वामिन् ! आप राजकुल-परंपरागत स्थिति-मर्यादा को भंग नहीं करते हुए सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों के हार को वापिस कूणिक राजा को लौटा दें और वेहल्ल कुमार को भी भेज दें।' Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] [31 तत्पश्चात् उस दूत ने कूणिक राजा की आज्ञा को सुना / वह वैशाली गया और कूणिक की विज्ञप्ति निवेदन की-स्वामिन् ! कूणिक राजा ने प्रार्थना की है कि-'जो कोई भी रत्न होते हैं वे राजकुलानुगामी होते हैं, अतः आप हस्ती, हार और कुमार वेहल्ल को भेज दें। तब चेटक राजा ने उस दूत से इस प्रकार कहा--'देवानुप्रिय ! जैसे कुणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र चेल ना देवी का अंगज है, इत्यादि कुमार वेहल को भेज दूंगा, यहाँ तक जैसे पूर्व में कहा, वैसा पुनः यहाँ भी कहना चाहिए। और उस दूत का सत्कार-सम्मान करके विदा किया। तदनन्तर उस दूत ने यावत् चम्पा लौटकर कूणिक राजा का अभिनन्दन कर इस प्रकार कया--'चेटक राजा ने फरमाया है कि देवानुप्रिय ! जैसे कुणिक राजा श्रेणिक का पुत्र और चेलना देवी का अंगजात है, उसी प्रकार वेहल्ल कुमार भी / यावत् प्राधा राज्य देने पर कुमार वेहल्ल को भेजूगा।' इसलिए स्वामिन् ! चेटक राजा ने सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ों का हार नहीं दिया है और न वेहल्ल कुमार को भेजा है।' कूणिक राजा को चेतावनी 27. तए णं से कूणिए राया तस्स दूयस्स प्रन्तिए एयमलैं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते [जाव] मिसिमिसेमाणे तच्चं दूयं सद्दावेइ, 2 त्ता एवं वयासी—“गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया, वेसालीए नयरीए चेडगस्स रन्नो वामेण पाएणं पायवीढं अक्कमाहि, 2 त्ता कुन्तग्गेणं लेहं पणाबेहि, 2 ता पासुरते जाब मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडि निडाले साहटु चेडगं रायं एवं वयाही-हं भो चेडगराया, अपस्थियपत्थिया, दुरन्त० [जाव] परिवज्जिया, एस णं कूणिए राया आणवेइ-पच्चप्पिणाहिणं कूणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसर्वकं च हारं, वेहल्लं च कुमारं पेसेहि, अहव जुद्धसज्जो चिट्ठाहि / एस णं कूणिए राया सबले सवाहणे सखन्धावारे णं जुद्धसज्जे हव्यमागच्छई"। तए णं से दूए करयल०, तहेव [जाब] जेणेव चेडए तेणेव उवागच्छद, 2 ता करयल [जाव] यद्धावेत्ता एवं क्यासी-“एस णं, सामी, ममं विणयपडिवत्ती। इयाणि कणियस्स रन्नो आण तिचेडगस्स रन्नो वामेणं पाएण पायवीडं अक्कमइ, २त्ता प्रासुरुत्ते कुन्तग्गेण लेहं पणावेइ, तं चेव सबलखन्धावारे णं इह हवमागच्छद”। तए णं से चेडए राया तस्स दूयस्स अन्तिए एयमझें सोच्चा निसम्म प्रासुरुत्ते [जाव] साहट एवं वयासी---"न अप्पिणामि गं कूणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसवंक हारं, वेहल्लं च कुमारं नो पेसेमि. एस णं जुद्धसज्जे चिट्ठामि" तं दूयं असक्कारियं असमागियं अवदारेणं निच्छुहावेइ / [27] तब कणिक राजा ने उस दूत द्वारा चेटक के इस उत्तर को सुनकर और उसे अधिगत करके क्रोधाभिभूत हो यावत् दांतों को मिसमिसाते हुए पुन: तीसरी बार दूत को बुलाया / बुलाकर उससे इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! तुम वैशाली नगरी जाप्रो और बायें पैर से पादपीठ को ठोकर मारकर चेटक राजा को भाले की नोक से यह पत्र देना / पत्र देकर क्रोधित यावत् मिसमिसाते हुए भकुटि तान कर ललाट में त्रिवली डालकर चेटकराज से यह कहना-'यो अकाल मौत के अभिलाषी, निर्भागी, यावत् निर्लज्ज चेटक राजा, कूणिक राजा यह आदेश देता है कि कणिक राजा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [निरयावलिकासूत्र को सेचनक गधहस्ती एवं अठारह लड़ो का हार प्रत्यर्पित करो और बेहल्ल कुमार को भेजो अथवा युद्ध के लिए सज्जित-तैयार होपो / कूणिक राजा बल, वाहन और सैन्य के साथ युद्धसज्जित होकर शी - ही पा रहे हैं। तब दूत ने पूर्वोक्त प्रकार से हाथ जोडकर कणिक का आदेश स्वीकार किया। वह वैशाली / जहाँ चेटक राजा था वहीं पाया। प्राकर उसने दोनों हाथ जोड़कर यावत बधाई देकर इस प्रकार कहा-स्वामिन् ! यह तो मेरी विनयप्रतिपति--शिष्टाचार है। किन्तु कणिक राजा की आज्ञा यह है कि बाये पैर से चेटक राजा की पादपीठ को ठोकर मारो, ठोकर मारकर क्रोधित होकर भाले की नोक से यह पत्र दो, इत्यादि सेना सहित शीघ्र ही यहाँ पा रहे हैं।' तब चेटक राजा ने उस दूत से यह धमकी सुनकर और अवधारित कर क्रोधाभिभूत यावत् ललाट सिकोडकर इस प्रकार उत्तर दिया---'कणिक राजा को सेचनक गधहस्ती छ का हार नहीं लौटाऊंगा और न वेहल्ल कुमार को भेजूगा किन्तु युद्ध के लिए तैयार हूँ।' ऐसा कह कर उस दूत का असत्कार-प्रसन्मान-अपमान कर उसे पिछले द्वार से निकाल दिया। युद्ध की तैयारी 28. तए ण से कूणिए राया तस्स दूयस्स अन्तिए एयम→ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते कालाईए दस कुमारे सद्दावेइ, 2 ता एवं धयासी-“एवं खल, देवाणुपिया, वेहल्ले कुमारे ममं असंविदिएण सेयणगं गंवहत्थि अट्ठारसवंक हारं अन्तेउरं सभण्डं च गहाय चम्पाओ निक्खमइ, 2 ता वेसालि अज्जगं जिाव] उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं मए सेयणगस्स गंधहस्थिस्स अट्ठारसवंकस्स अट्ठाए दूया पेसिया / ते य चेडएण रन्ना इमेणं कारणणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असक्कारिए असंमाणिए प्रवद्दारेणं निच्छुहावेइ / तं सेयं खलु देवाणुपिया, अम्हें चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिण्हित्तए"। तए णं कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमझें विणएणं पडिसुणेन्ति / / 28] तत्पश्चात् कणिक राजा ने दूत से इस समाचार को सुनकर और उस पर विचार पर क्रोधित हो काल आदि दस कुमारों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा'देवानुप्रियो ! बात यह है कि मुझे बिना बताये ही वेहल्लकुमार सेचनक गधहस्ती, अठारह लडों का हार और अन्तःपुर-परिवार सहित गृहस्थी के उपकरणों को लेकर चम्पा से भाग निकला / निकल कर वैशाली में प्रार्य चेटक का प्राश्रय लेकर रह रहा है / मैंने सेचनक गधहस्ती और अठारह लडों का हार लाने के लिए दूत भेजा। चेटक राजा ने इस (पूर्वोक्त) कारण से हाथी, हार और वेहल्ल कुमार को भेजने से इकार कर दिया और मेरे तीसरे दूत को असत्कारित, अपमानित कर पिछले द्वार से निष्कासित कर दिया / इसलिए हे देवानुप्रियो ! हमें चेटक राजा का निग्रह करना चाहिए, उसे दण्डित करना चाहिए। ___उन काल प्रादि दस कुमारों ने कूणिक राजा के इस विचार को विनयपूर्वक स्वीकार किया। काल आदि दस कुमारों को युद्धार्थ सज्जा 29. तए णं से कूणिए राया कालाईए दस कुमारे एवं वयासी-"गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया, सएसु सएसु रज्जेसु; पत्तेयं पत्तेयं व्हाया [जाव] पायच्छित्ता हस्थिखंधवरगया पत्तेयं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन [33 पत्तेयं तिहिं दन्तिसहस्सेहिं एवं तिहि रहसहस्सेहि तिहि आससहस्सेहिं तिहिं मणुस्सकोडीहि सद्धि संपरिवुडा सन्विड्डीए [जाव] सव्वबलेणं सध्वसमुदएणं सव्वायरेणं सध्वभूसाए सव्वविभूईए सव्वसंभमेणं सधपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सवदिश्वतुडियसहसंनिनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगपडुप्पवाइयरवेणं संखपणवपडहभे रिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरयमुइङ्गदुन्दुहिनिम्घोसनाइयरवेणं सहितो 2 नयरेहितो पडिनिक्खमह, 2 ता ममं अन्तियं पाउन्भवह। तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रनो एयमढे सोच्चा सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं 2 व्हाया जाव तिहि मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडा सविड्डीए जाव रवेणं सएहितो 2 नयरोहितो पडिनिक्खमन्ति, 2 त्ता जेणेव अङ्गा जणवए, जेणेव चम्पा नयरी, जेणेव कणिए राया, तेणेव उवागया करयल० जाव बद्धावेन्ति / [26] तत्पश्चात् कणिक राजा ने उन काल आदि दस कुमारों से इस प्रकार कहा--- देवानुप्रियो ! आप लोग अपने अपने राज्य में जाओ, और प्रत्येक स्नान यावत् प्रायश्चित्त प्रादि करके श्रेष्ठ हाथी पर आरूढ होकर प्रत्येक अलग-अलग तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों और तीन कोटि मनुष्यों को साथ लेकर समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् सब प्रकार के सैन्य, समुदाय एवं आदरपूर्वक सब प्रकार की वेशभूषा से सजकर, सर्व विभूति, सर्व सम्भ्रम-स्नेहपूर्ण उत्सुकता, सब प्रकार के सुगंधित पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार, सर्व दिव्य वाद्यसमूहों की ध्वनिप्रतिध्वनि, महान् ऋद्धि-विशिष्ट वैभव, महान् द्युति-प्रोज-आभा, महाबल-विशिष्ट सेना, विशिष्ट समुदाय, शंख, ढोल, पटह, भेरी, खरमुखी हुडुक्क, मुरज, मृदंग दुन्दुभि के घोष की ध्वनि के साथ अपने अपने नगरों से प्रस्थान करो और प्रस्थान करके मेरे पास आकर एकत्रित होप्रो। ___ तब वे कालादि दसों कुमार कूणिक राजा के इस विचार-कथन को सुनकर अपने-अपने राज्यों को लौटे / प्रत्येक ने स्नान किया, (तीन-तीन हजार हाथियों, रथों, घोड़ों) यावत् तीन कोटि मनुष्यों-पैदल सैनिकों को साथ लेकर समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोष-निनादों के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकलकर जहाँ अंग जनपद-प्रान्त था, जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ कणिक राजा था, वहाँ आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बधाया-उसका अभिनन्दन किया। कूणिक : युद्ध-प्रयाण से पूर्व - 30. तए णं से कूणिए राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं क्यासी-"खिप्पामेव भों देवाणुप्पिया ! प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहजोहचाउरङ्गिणि सेणं संनाहेह, मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह," जाव पच्चप्पिणन्ति / तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, [जाव] उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता मुत्ताजालाभिरामे विचित्तमणिरयणकोट्टिमतले रमणिज्जे हाणमण्डवंसि नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहनिसण्णे, सुहोदगेहि पुप्फोदगेहि गंधोदएहि सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसएहि बहुविहेहि कल्लाणमपवरमज्जणावसाणे पम्हल . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिकासूत्र सुकुमालगंधकासाइयलूहियङ्ग प्रहयसुमहाघदूसरयणसुसंवुए सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमालावण्णगविलेवणे आधिद्धमणिसुवणे कप्पियहारबहारतिसरयपालम्बपलम्बमाणकडिसुत्तसुकयसोहे पिणद्धगेविज्जे अङ गुलेज्जगललियङ्गललियकयाहरणे नाणामणिकडगतुडियथम्भिय भुए अहिह्यरूवसस्सि रोए कुण्डलुज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थयसुकतरइयवच्छे पालम्बपलम्बमाणसुकयपउउत्तरिज्जे मुद्दियापिङ्गलङ गुलीए नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोधिय-मिसिमिसन्तविरइयसुसिलिट्ठविसिटुलटुसंठियपसत्थआविद्धवीरबलए, कि बहुणा, कप्परुक्खए चेव सुअलंकियविभूसिए नरिंदे सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं उभओ चउचामरवालवीइयङ्ग मङ्गलजयसद्दकयालोए अणेगगणनायगदण्डनायगराईसरतलवरमाडम्बियकोडुम्बियमन्तिमहामन्तिगणगदोवारियअमच्चचेडपीढमहनगरनिगमसे द्विसेणावइसत्थवाहदूयसंधिवालसद्धि संपरिवुडे धवलमहामेहनिग्गए विव गहगणदिप्पन्ततारागणाण मज्झे ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्झणघरानो पडिनिग्गच्छइ पडिनिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जाय नरवई दुरूढे / तए णं से कूणिए राया तिहिं दन्तिसहस्सेहि जाव रवेणं चम्पं नार मज्झमझेणं निग्गच्छइ, २त्ता जेणेव कालाईया दस कुमारा तेणेव उवागच्छा, 2 त्ता कालाइएहिं दसहिं कुमारहिं सद्धि एगओ मेलायन्ति / तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दन्तिसहस्सेहि तेत्तीसाए आससहस्सेहिं तेत्तीसाए रहसहस्सेहि तेत्तीसाए मणुस्सकोडोहिं सद्धि संपरिबुडे सव्विड्डीए [जाव] रवेणं सुहेहि वसईहिं सुहेहिं पायरासेहि नाइविगिट्ठहिं अन्तरावासेहि वसमाणे 2 अङ्गजणवयस्स मज्झमझेणं जेणेव विदेहे जणयए, जेणेव वेसाली नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। [30] काल आदि दस कुमारों की उपस्थिति के अनन्तर कुणिक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषोंसेवकों को बुलाया और बुलाकर उनको यह आज्ञा दी–देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तीरत्न-हाथियों में प्रधान श्रेष्ठ हाथी को प्रतिकर्मित-सुसज्ज कर, घोड़े, हाथी, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं से सुगठित चतुरंगिणी सेना को सुसन्नद्ध-युद्ध के लिए तैयार करो और फिर मेरी इस प्राज्ञा को वापस लौटायो-मुझे सूचित करो कि आज्ञानुपालन हो गया।' यावत् वे सेवक आज्ञानुरूप कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं / तत्पश्चात् कणिक राजा जहाँ स्नानगृह था वहाँ आया यावत् स्नानगृह में प्रविष्ट हुआ। प्रवेश करके मोतियों के समूह से युक्त होने से मनोहर, चित्र-विचित्र मणि-रत्नों से खचित फर्श वाले, रमणीय, स्नान-मंडप में विविध मणि-रत्नों के चित्रामों से चित्रित स्नानपीठ पर सुखपूर्वक बैठकर उसने सुखद-शुभ, पुष्पोदक से, सुगंधित एवं शुद्ध जल से कल्याणकारी उत्तम स्नान-विधि से स्नान किया। स्नान करने के अनन्तर अनेक प्रकार के सैकड़ों कौतुक-मंगल किए तथा कल्याणप्रद प्रवर स्नान के अंत में पक्ष्मल-रुएँदार काषायिक मुलायम वस्त्र से शरीर को पौंछा। नवीन-कोरे महा मूल्यवान् दूध्य रत्न (उत्तम वस्त्र) को धारण किया; सरस, सुगंधित गोशीर्ष चंदन से अंगों का लेपन किया। पवित्र माला धारण की, केशर आदि का विलेपन किया, मणियों और स्वर्ण से निर्मित Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] [35 आभूषण धारण किए / हार (अठारह लड़ों का हार) अर्धहार (नौ लड़ों का हार) त्रिसर (तीन लड़ों का हार) और लम्बे-लटकते कटिसूत्र-करधनी से अपने को सुशोभित किया; गले में अवेयक (कंठा) आदि आभूषण धारण किए, अंगुलियों में अंगूठी पहनीं। इस प्रकार सुललित अंगों को सुन्दर आभूषणों से आभूषित किया। मणिमय कंकणों, त्रुटितों एवं भुजबन्दों से भुजाएँ स्तम्भित हो गई, जिससे उसकी शोभा और अधिक बढ़ गई। कुंडलों से उसका मुख चमक गया, मुकुट से मस्तक देदीप्यमान हो गया। हारों से आच्छादित उसका वक्षस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। लंबे लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्ट) के रूप में धारण किया। मुद्रिकाओं से अंगुलियां पीतवर्ण-सी दिखती थीं / सुयोग्य शिल्पियों द्वारा निर्मित, स्वर्ण एवं मणियों के सुयोग से सुरचित, विमल महाह-महान् श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्ट-भली प्रकार से सांधा हुआ; विशिष्ट-उत्कृष्ट, प्रशस्त आकारयुक्त; वीरवलय (विशेष प्रकार का कंकण) धारण किया। अधिक क्या कहा जाए, कल्प वृक्ष के समान अलंकृत और विभूषित नरेन्द्र (कूणिक) कोरण्ट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र को धारण कर, दोनों पाश्वों में चार चामरों से विजाता हुग्रा, लोगों द्वारा मंगलमय जय-जयकार किया जाता हुआ, अनेक गणनायकों, दंडनायकों, राजा, ईश्वर, तलवर, माडंविक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेट, पीठमदंक, नागरिक, निगमवासी, श्रेष्ठी, सेनापति सार्थवाह, दूत, संधिपाल, आदिकों से घिरा हुमा, श्वेत-धवल महामेघ से निकले हुए देदीप्यमान ग्रहों एवं नक्षत्रमंडल के मध्य चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन वह नरपति स्नानगृह से बाहर निकला। निकलकर जहाँ बाह्य सभाभवन था वहाँ प्राया, यावत् अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल उच्च गजपति पर वह नरपति प्रारूढ हुआ। ___ तत्पश्चात् कुणिक राजा तीन हजार हाथियों (तीन हजार रथों, तीन हजार अश्वों, तीस कोटि पदातियों के साथ) यावत् वाद्यधोषपूर्वक चंपा नगरी के मध्य भाग में से निकला, निकलकर जहाँ काल आदि दस कुमार ठहरे थे वहाँ पहुँचा और काल आदि दस कुमारों से मिला / इसके बाद तेतीस हजार हाथियों, तेतीस हजार घोड़ों, तेतीस हजार रथों और तेतीस कोटि मनुष्यों से घिर कर सर्व ऋद्धि यावत् कोलाहल पूर्वक सुविधाजनक पड़ाव डालता हुआ, सुखपूर्वक प्रातः कलेवा आदि करता हुमा; अति विकट अन्तरावास (पड़ाव) न कर किन्तु निकट-निकट विश्राम करते हुए अंग जनपद के मध्य भाग में से होते हुए जहाँ विदेह जनपद था, उसमें भी जहाँ वैशाली नगरी थी, उस ओर चलने के लिए उद्यत हुग्रा। चेटक का गण-राजाओं से परामर्श ___31. तए णं से चेडए राया इमोसे कहाए लट्ठ समाणे नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायानो सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी-"एवं खलु, देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कणियस्स रन्नो असंविदिएणं सेयणगं अट्ठारसवंकं च हारं गहाय इहं हव्वमागए / तए णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसवंकस्स य अट्टाए तो दूया पेसिया / ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया। तए णं से कूणिए ममं एयम8 अपडिसुणमाणे चाउरङ्गिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे जुद्धसज्जे इहं हव्यमागच्छइ / तं कि णं देवाणुप्पिया, सेयणगं अट्ठारसवंकं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामो? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था" ? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] [निरयावलिकासूत्र तए णं नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी--"न एवं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसंवा, जं णं सेयणगं अट्ठारसवंकं कुणियस्स रन्नो पच्चप्पिणिज्जइ, वेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ / तं जइ णं कूणिए राया चाउङ्गिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडे जुद्धसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तए गं अम्हे कूणिएणं रग्ना सद्धि जुज्झामो।" तए णं से चेडए राया ते नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो एवं वयासीजइ णं देवाणुप्पिया, तुभे कूणिएणं रम्ना सद्धि जुज्झह, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया, सएसु 2 रज्जेसु, व्हाया जहा कालाईया [जाव] जएणं विजएणं वद्धावन्ति / तए णं से चेडए राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासो--"आभिसेक्कं जहा कूणिए" [जाव] दुरुढे / [31] राजा कुणिक का युद्ध के लिए प्रस्थान का समाचार जानकर चेटक राजा ने काशी कोशल देशों के नौ लिच्छवी और नौ मल्लकी इन अठारह गण-राजाओं को परामर्श करने हेतु आमंत्रित किया और उनके एकत्र होने पर कहा--देवानुप्रियो ! बात यह है कि कूणिक राजा को विना जताए-कहे-सने वेहल्ल कुमार सेचनक हाथी और अठारह लडों का हार लेकर यहाँ मा गया है। किन्तु कणिक ने सेचनक हाथी और अठारह लड़ों के हार को वापिस लेने के लिए तीन दूत भेजे। किन्तु मैंने इस कारण अर्थात् अपनी जीवित अवस्था में स्वयं श्रेणिक राजा ने उसे ये दोनों वस्तुएं प्रदान की हैं, फिर भी हार-हाथी चाहते हो तो उसे प्राधा राज्य दो, यह उत्तर देकर उन दूतों को वापिस लौटा दिया / तब कणिक मेरी इस बात को न सुनकर और न स्वीकार कर चतुरंगिणी सेना के साथ युद्धसज्जित होकर यहाँ आ रहा है। तो क्या देवानुप्रियो ! सेचनक हाथी और अठारह लड़ों का हार वापिस कूणिक राजा को लौटा दें ? वेहल्लकुमार को उसके हवाले कर दें ? अथवा युद्ध करें? तब उन काशी-कोशल के नौ मल्लकी और नौ लिच्छवी--अठारह गणराजाओं ने चेटक राजा से इस प्रकार कहा-स्वामिन् ! यह न तो उचित है-युक्त है, न अवसरोचित है और न राजा के अनुरूप ही है कि सेचनक और अठारह लड़ों का हार कणिक राजा को लौटा दिया जाए और शरणागत वेहल्लकुमार को भेज दिया जाए। इसलिए जब कूणिक राजा चतुरंगिणी सेना को लेकर युद्धसज्जित होकर यहाँ पा रहा है तब हम कणिक राजा के साथ युद्ध करें। इस पर चेटक राजा ने उन नौ लिच्छवी, नौ मल्ली काशी-कोशल के अठारह गण-राजाओं से कहा- यदि आप देवानुप्रिय कूणिक राजा से युद्ध करने के लिए तैयार हैं तो देवानुप्रियो ! अपने अपने राज्यों में जाइए और स्नान आदि कर कालादि कुमारों के समान यावत् [युद्ध के लिए सुसज्जित होकर अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ यहाँ चम्पा में आइए। यह सुनकर अठारहों राजा अपने-अपने राज्यों में गए और युद्ध के लिए सुसज्जित होकर पाए / आकर उन्होंने चेटक राजा को जय-विजय शब्दों से बधाया] __उसके बाद चेटक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर यह आज्ञा दीप्राभिषेक्य हस्तिरत्न को सजाप्रो आदि कूणिक राजा की तरह यावत् चेटक राजा हाथी पर आरूढ हुआ। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन]] चेटक राजा का युद्धक्षेत्र में प्रागमन 32. तए णं से चेडए राया तिहि दन्तिसहस्सेहि, जहा कुणिए [जाव] वेसालि नरि मझमझेणं निग्गच्छइ, २त्ता जेणेव ते नव मल्लई नव लेच्छई कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाओ तेणेव उवागच्छद। तए णं से चेडए राया सत्तावनाए दन्तिसहस्सेहि, सत्तावन्नाए आससहस्सेहि, सत्तावनाए रहसहस्सेहि सत्तावनाए मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडे सविड्ढोए जाव रवेण सुहेहि वसहीहि पायरासेहिं नाइविगिट्ठहि अन्तर्राहि वसमाणे 2 विदेहं जणवयं मज्झमशेणं जेणेव देसप्पन्ते तेणेव उवागच्छइ, 2 ता खन्धावारनिवेसणं करेइ, 2 त्ता कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुद्धसज्जे चिट्ठइ / ___ तए णं से कूणिए राया सविड्डीए [जाव] रवेणं जेणेव देसप्पन्ते तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता चेडयस्स रन्नो जोयणन्तरिय खन्धावारनिवेसं करेइ / [32] अठारहों गण-राजाओं के आ जाने के पश्चात् चेटक राजा कुणिक राजा की तरह तीन हजार हाथियों आदि के साथ वैशाली नगरी के बीचोंबीच होकर निकला / निकलकर जहाँ वे नौ मल्ली, नौ लिच्छवी काशी-कोशल के अठारह गण राजा थे, वहाँ पाया। तदनन्तर चेटक राजा सत्तावन हजार हाथियों, सत्तावन हजार घोड़ों, सत्तावन हजार रथों और सत्तावन कोटि मनुष्यों को साथ लेकर सर्व ऋद्धि यावत् वाद्यधोष पूर्वक सुखद वास, प्रातः कलेवा और निकट-निकट विश्राम करते हुए विदेह जनपद के बीचोंबीच से चलते हुए जहाँ सोमान्तप्रदेश था, वहाँ आया। पाकर स्कन्धावार का निवेश किया---पड़ाव डाल दिया तथा कूणिक राजा की प्रतीक्षा करते हुए युद्ध को तत्पर हो ठहर गया / इसके बाद कुणिक राजा समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् कोलाहल के साथ जहाँ सीमांतप्रदेश था, वहाँ पाया / पाकर चेटक राजा से एक योजन की दूरी पर उसने भी स्कन्धावारनिवेष किया / युद्धार्थ व्यूह-रचना 33. तए णं ते दोन्नि वि रायाणो रणभूमि सज्जावेन्ति, 2 ता रणभूमि जयन्ति / तए णं से कूणिए राया तेत्तीसाए दन्तिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडीहि गरुलवूहं रएइ 2 ता गरुलवूहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए / तए णं से चेडगे राया सत्तावन्नाए दन्तिसहस्सेहिं [जाव] सत्तावन्नाए मणुस्सकोडोहिं सगडवूह रएइ, 2 ता सगडवूहेणं रहमुसलं संगाम उवायाए / . तए णं ते दोण्ह वि राईणं अणीया संनद्ध [जाध] गहियाउहपहरणा मंगतिएहि फलहि, निक्किट्ठाहि असीहि, अंसागएहिं तोणेहि, सजीवेहि धहिं, समुक्खिहि सरेहि, समुल्लालियाहि डावाहि, ओसारियाहि उरुघण्टाहि, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्किट्ठसोहनायबोलकलकलरवेण समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा सव्विड्डीए जाव रवेणं हयगया हयगहि, गयगया गयगएहि, रहगया रहगएहि, पायत्तिया पायत्तिएहि अन्नमन्नेहिं सद्धि संपलग्गा यावि होत्था / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [निरयावलिकासूत्र तए णं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया नियगसामीसासणाणुरत्ता महया जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्टकप्पं नच्चन्तकबन्धवार भीमं रुहिरकद्दमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धि जुज्झन्ति / / ___तए णं से काले कुमार तिहिं दन्तिसहस्सेहि जाव मणूसकोडीहि गरुलवूहेणं एक्कारसमेणं खंधेणं रहमुसलं संगाम संगामेमाणे हयमहिय० जहा भगवया कालोए देवीए परिकहियं [जाव] जीवियाओ ववरोविए। ___ "तं एवं खलु, गोयमा, काले कुमारे एरिसएहि आरम्भ॑हि जाब एरिसएणं असुभकडकम्मपन्भारेणं काले मासे कालं किच्चा चउत्थोए पङ्कप्पभाए पुढवीए हेमाभे नरए नेरइयत्ताए उववन्ने"। [33] तदनन्तर दोनों राजाओं ने रणभूमि को सज्जित किया, सज्जित करके रणभूमि में अपनी-अपनी जय-विजय के लिए अर्चना की / इसके बाद कणिक राजा ने तेतीस हजार हाथियों यावत् तीस कोटि पैदल सैनिकों से गरुडव्यूह की रचना की। रचना करके गरुड व्यूह द्वारा रथ-मूसल संग्राम प्रारम्भ किया। इधर चेटक राजा ने सत्तावन हजार हाथियों यावत् सत्तावन कोटि पदातियों द्वारा शकटव्यूह की रचना की और रचना करके शकटव्यूह द्वारा रथ-मूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ। तब दोनों राजाओं की सेनाएं युद्ध के लिए तत्पर हो यावत् प्रायुधों और प्रहरणों को लेकर हाथों में ढालों को बांधकर, तलवारें म्यान से बाहर निकालकर, कंधों पर लटके तूणीरों से, प्रत्यंचायुक्त धनुषों से छोड़े हुए बाणों से, फटकारते हुए बायें हाथों से, जोर-जोर से बजती हुई जंघाओं में बंधी हुई घंटिकाओं से, बजती हुई तुरहियों से एवं प्रचंड हुंकारों के महान् कोलाहल से समुद्रगर्जना जैसी करते हुए सर्व ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों से, परस्पर अश्वारोही अश्वारोहियों से, गजारूढ गजारूढों से, रथी रथारोहियों से और पदाति पदातियों से भिड़ गए। दोनों राजाओं की सेनाएं अपने-अपने स्वामी के शासनानुराग से आपूरित थीं। अतएत्र महान् जनसंहार, जनवध, जनमर्दन, जनभय और नाचते हुए रुड-मुडों से भयंकर रुधिर का कीचड़ करती हुई एक दूसरे से युद्ध में जूझने लगीं। तदनन्तर काल कुमार तीन हजार हाथियों यावत् तीन मनुष्यकोटियों से गरूडव्यूह के ग्यारहवें भाग में कूणिक राजा के साथ रथमूसल संग्राम करता हुमा हत और मथित हो गया, इत्यादि जैसा भगवान् ने काली देवी से कहा था, तदनुसार यावत् मृत्यु को प्राप्त हो गया। (श्री भगवान ने कहा)-अतएव गौतम ! इस प्रकार के प्रारंभों से, इस प्रकार के कृत अशुभ कार्यों के कारण वह कालकुमार मरण के अवसर पर मरण करके चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नरक में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ है। उपसंहार 34. 'काले णं भंते ! कुमारे चउत्थीए पुढवीए....."अणन्तरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?', Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [39 'गोयमा, महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवन्ति अड्डाइं जहा दढपइन्नो [जाव] सिमिहिइ बुझिहिइ [जाव] अन्तं काहिई। 'तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्यणस्स अयमढे पन्नतें'। / / पढमं अज्झयणं समतं // 1 // 34] गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया--भदन्त ! वह कालकुमार चौथी पृथ्वी से निकलकर कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा? ( भगवान्-) गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जो प्राढ्य कुल हैं उनमें जन्म लेकर दृढ़प्रतिज्ञ के समान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, यावत परिनिर्वाण को प्राप्त होगा और समस्त दुःखों का अंत करेगा। _श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-'इस प्रकार आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण भगवान् यावत् निर्वाण को प्राप्त महावीर ने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का यह प्राशय प्रतिपादन किया है / // प्रथम अध्ययन समाप्त / / Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन 35. 'जई गं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते, अज्झयणस्स निरयावलियाणं समजेणं भगवया जाच संपत्तेणं के अछे पन्नत्ते?' एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए / कणिए राया। पउमावई देवी। तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कुणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था सुकुमाला। तीसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे होत्था सुकुमाले। तए णं से सुकाले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दन्तिसहस्सेहि, जहा कालो कुमारो, निरवसेसं तं चेव भाणियव्वं जाव महाविदेहे वासे...... अन्तं काहिइ / ॥बीयं प्रज्झयणं समत्तं // 1 // 2 // [35] जम्बू स्वामी ने अपने गुरु सुधर्मा स्वामी से पूछा- भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मुक्ति संप्राप्त भगवान् महावीर ने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो निरयावालका के द्वितीय अध्ययन का श्रमण भगवान् यावत् निर्वाणसंप्राप्त महावीर ने क्या भाव प्रतिपादन किया है ? श्री सुधर्मा ने उत्तर दिया-आयुष्मन् जम्बू! उस काल और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी / वहाँ पूर्णभद्र चैत्य था / कूणिक वहाँ का राजा था / पद्मावती उसकी पटरानी थी। ___ उस चम्पानगरी में श्रेणिक राजा की भार्या, कुणिक राजा की सौतेली माता सुकाली नाम की रानी थी जो सुकमाल शरोर आदि से सम्पन्न थी। ___ उस सुकाली देवी का पुत्र सुकाल नामक राजकुमार था। वह सुकोमल अंग-प्रत्यंग वाला आदि विशेषणों से युक्त था। वह सुकाल कुमार किसी समय तीन हजार हाथियों इत्यादि सहित जैसा पूर्व में काल कुमार के विषय में कहा गया, वैसा समग्र वृत्तान्त कहना चाहिए अर्थात् वह भी रथ मूसल संग्राम में मारा गया। मरकर चौथी नरकपृथ्वी में उत्पन्न हुआ है। वहाँ से निकलकर महाविदेह वर्ष में उत्पन्न होकर कर्मों का अन्त करेगा। सम्पूर्ण कथन काल कुमार के समान ही कहना चाहिये। // द्वितीय अध्ययन समाप्त / / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय से दशम अध्ययन 36. एवं सेसा वि अट्ठ प्रज्शयणा नेयम्वा पढमसरिसा, नवरं मायाओ सरिसनामानो। // निरयावलियानो समत्ताओ॥ // पढमो वग्गो समत्तो॥ [36] प्रथम अध्ययन के समान शेष पाठ अध्ययन भी जानने चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि उनकी माताओं के नाम समान हैं अर्थात् माताओं के नाम के समान उन कुमारों के नाम हैं / यथा-महाकाली रानी का पुत्र महाकाल, कृष्णा देवी का पुत्र कृष्ण, सुकृष्णा देवी का पुत्र सुकृष्ण आदि। ॥निरयावलिका समाप्त / / // प्रथम वर्ग समाप्त / / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वर्ग : कल्पावतेंसिका प्रथम अध्ययन 1. उक्खेवओ-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया [जाव] संपत्तेणं उवङ्गाणं पढमस्त वग्गस्स निरयावलियाणं अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स कप्पडिसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अझयणा पन्नत्ता? / ___ एवं खलु, जम्बू ! समणेणं भगवया [जाव] संपत्तेणं कप्पडिसियाणं बस अायणा पन्नत्ता। तं जहा-पउमे 1, महापउमे 2, भद्दे 3, सुमद्दे 4; पउमभद्दे 5, पउमसेणे 6, पउमगुम्मे 7, नलिणिगुम्मे 8, प्राणन्दे 9, नन्दणे 10 / जइ णं भंते ! समणेणं [जाव] संपत्तेणं कप्पडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स कप्पडिसियाणं समणेणं भगवया जाव के प्रठे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। कूणिए राया / पउमावई देवी / तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कणियस्स रनो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था सुहुमाला [.] / तीसे णं कालीए देवीए पुत्ते काले नाम कुमारे होत्था सुहमाल / तस्स णं कालस्स कुमारस्स पउमावई नामं देवी होत्था, सोमाला [जाव] विहरइ / [1] जम्बूस्वामी का प्रश्न–भदन्त ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण-संप्राप्त भगवान महावीर ने निरयावलिका नामक उपांग के प्रथम वर्ग का यह (पूर्वोक्त) आशय प्रतिपादित किया है तो हे भदन्त ! दूसरे वर्ग कल्पावतंसिका का श्रमण यावत् निर्वाण-संप्राप्त भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिसंप्राप्त भगवान ने कल्पावतंसिका के दस अध्ययन कहे हैं। वे इस प्रकार हैं-१. पदम 2. महापद्म 3. भद्र 4. सुभद्र 5. पद्मभद्र 6. पद्मसेन 7. पद्मगुल्म 8. नलिनगुल्म 6. अानन्द और 10. नन्दन / जम्बू-भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् ने कल्पावतंसिका के दस अध्ययन कहे हैं तो भदन्त ! श्रमण भगवान ने कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का क्या प्राशय प्रतिपादन किया है ? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 2: प्रथम अध्ययन] [43 ___ सुधर्माप्रायुष्मन् जम्बू ! वह इस प्रकार है उस काल और उस समय में चम्पा नामक नगरी थी। (उसके उत्तर पूर्व में) पूर्णभद्र नामक चैत्य था। कूणिक वहाँ का राजा था। उसकी पद्मावती नामक पटरानी थी। उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की भार्या, कणिक राजा की विमाता काली नामक रानी थी, जो अतीव सुकुमार एवं स्त्री-उचित यावत् गुणों से सम्पन्न थी / उस कालो देवी का पुत्र काल नामक राजकुमार था। उस काल कुमार की पद्मावती नामक पत्नी थी, जो सुकोमल थी यावत् मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही थी। पद्मावती का स्वप्नदर्शन 2. तए णं सा पउमावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसर्गसि वासघरंसि अम्भिन्तरओ सचित्तकम्मे [जाव] सोहं सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा। एवं जम्मणं, जहा महाबलस्स', [जाय] नामधेज्जं—"जम्हा णं अम्हं इमे वारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए, तं होउ गं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्ज पउमे पउमे" / सेसं जहा महाबलस्स। अढो दाओ / [जाव] उप्पि पासायवरगए विहरइ / सामो समोसरिए / परिसा निग्गया / कूणिए निग्गए / उमे वि जहा महाबले, निग्गए / तहेव अम्मापिइ-आपुच्छणा, [जाव] पन्वइए अणगारे जाए [जाव] गुत्तबम्भयारी। [2] किसी एक रात्रि में भीतरी भाग में चित्र-विचित्र चित्रामों से चित्रित वासगृह में शैया पर शयन करती हई स्वप्न में सिंह को देखकर वह पद्मावती देवी जागत हई। फिर पुत्र का जन्म हुआ, महाबल की तरह उसका जन्मोत्सव मनाया गया, यावत् नामकरण किया-क्योंकि हमारा यह बालक काल कुमार का पुत्र और पद्मावती देवी का प्रात्मज है, अतएव हमारे इस बालक का नाम पद्म हो।' शेष समस्त वर्णन महाबल के समान समझना चाहिए, अर्थात् राजसी ठाठ से उसका पालन-पोषण हुमा / यथासमय उसने बहत्तर कलाएँ सीखीं। तरुणावस्था आने पर आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ / पाठ-पाठ वस्तुएँ दाय (दहेज) में दी गईं यावत् मार ऊपरी श्रेष्ठ प्रासाद में रहकर भोग भोगते, विचरने लगा। भगवान महावीर स्वामी समवसृत हुए। परिषद् धर्म-देशना श्रवण करने निकली। कूणिक भी बंदनार्थ निकला। महाबल के समान पद्म भी दर्शन-वंदना करने के लिए निकला / महाबल के ही समान माता-पिता से अनुमति प्राप्त करके प्रवजित हुआ, यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। पद्म अनगार की साधना 3. तए णं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाइं अहिज्जइ, २त्ता बहूहिं चउत्थछट्टमं [जाव] विहरइ। तए णं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं, जहा मेहो, तहेव धम्मजागरिया, चिन्ता / एवं जहेय मेहो तहेव समणं भगवं आपुच्छिता विउले [जाव] पाओवगए समाणे तहालवाणं थेराणं अन्तिए 1. महाबल के जन्मादि का वर्णन परिशिष्ट में देखिए। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] [कल्पावतंकसिासूत्र सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई, बहुपडिपुण्णाई पञ्च वासाइं सामग्णपरियाए / मासियाए संलेहणाए सद्धिभत्ताई। आणुपुन्धीए कालगए। थेरा प्रोतिण्णा। भगवं गोयमे पुच्छह, सामी कहेह [जाव] सट्टि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कते उड्ढं चन्दिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / दो सागराइं। “से गं भते, पउमे देवे ताओ देवलोगाओ पाउक्खएणं" / पुच्छा / “गोयमा, महाविदेहे वासे, जहा वढपइन्नो', [जाव] अन्तं काहिइ"। विक्खेवो-तं एवं खलु जम्बू, समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बैंमि / / ॥पढमं अज्मयणं / 2 / 1 // [3] तत्पश्चात् पद्म अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, इत्यादि विविध प्रकार की तप-साधना से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगा। इसके बाद वह पद्म अनगार मेघकुमार के समान उस प्रभावक विपुल-दीर्घकालीन, सश्रीकशोभासंपन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, कल्याणकारी, शिव पक, धन्य, प्रशंसनीय, मांगलिक, उदग्र उत्कट, उदार, उत्तम, महाप्रभावशाली तप-प्राराधना से शुष्क, रूक्ष, अस्थिमात्रावशेष शरीर वाला एवं कृश हो गया। तत्पश्चात किसी समय मध्य रात्रि में धर्म-जागरण करते हए पद्म अनगार को चिन्तन उत्पन्न हुप्रा / मेघकुमार के समान श्रमण भगवान् से पूछकर विपुल पर्वत पर जा कर यावत् पादोपगमन संस्थारा स्वीकार करके तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का श्रवण कर परिपूर्ण पांच वर्ष की श्रमण पर्याय का पालन करके मासिक संलेखना को अंगीकार कर और अनशन द्वारा साठ भक्तों का त्याग करके अर्थात् एक मास की संलेखना करके, अनुक्रम से कालगत हुमा। उसे कालगत जानकर स्थविर भगवान के समीप पाए। भगवान् गौतम ने पद्ममुनि के भविष्य के विषय में प्रश्न किया। स्वामी ने उत्तर दिया कि यावत अनशन द्वारा साठ भोजनों का छेदन कर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर सदूर चंद्र आदि ज्योतिष्क विमानों के ऊपर सौधर्मकल्प में देव रूप से उत्पन्न हया है। वहाँ दो सागरोपम की उसकी प्राय है। __ गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-भदन्त ! वह पद्मदेव आयुक्षय (भवक्षय एवं स्थितिक्षय) के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया--गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। दृढप्रतिज्ञ के समान यावत् (जन्म-मरण का) अंत करेगा। निक्षेप---इस प्रकार हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। इस प्रकार जैसा मैंने भगवान से श्रवण किया वैसा मैं कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. प्रतिज्ञ के विशेष परिचय के लिए परिशिष्ट देखिए। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन 4. जइ गं भंते समणेणं भगवया [जाव] संपत्तेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्मयणस्स अयमठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते, अज्मयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ? "एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। कूणिए राया। पउमावई देवी / तत्थ णं चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी होत्था। तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे। तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स महापउमा नामं देवी होत्था, सुउमाला / तए णं सा महापउमा देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि, एवं तहेव, महापउमे नामं दारए, [जाय] सिज्झिहिइ / नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ / उक्कोसट्ठिईओ। बीयं अज्झयणं // 22 // [4] जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया--भदन्त ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् ने कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का उक्त भाव प्रतिपादित किया है तो हे भदन्त ! उसके द्वितीय अध्ययन का क्या आशय कहा है ? सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-पायुष्मन् जम्बू ! वह इस प्रकार है उस काल और उस समय में चंपा नाम की नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। कुणिक राजा था। पद्मावती रानी थी। उस चंपानगरी में श्रेणिक राजा की भार्या कणिक राजा की विमाता सुकाली नामकी रानी थी। उस सुकाली का पुत्र सुकाल नामक राजकुमार था। उस राजकुमार सुकाल की सुकुमाल आदि विशेषता युक्त महापद्मा नाम की पत्नी थी। उस महापद्मा ने किसी एक रात्रि में सुखद शैया पर मोते हुए एक स्वप्न देखा, इत्यादि पूर्ववत् वर्णन करना चाहिए / बालक का जन्म हुआ और उसका महापद्म नामकरण किया गया यावत् वह प्रव्रज्या अंगीकार करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा। विशेष यह कि ईशान कल्प में उत्पन्न हुआ / वहाँ उसे उत्कृष्ट स्थिति (कुछ अधिक दो सागरोपम) हुई। निक्षेप---इस प्रकार हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्ति-संप्राप्त भगवान् ने कल्पावतंसिका के द्वितीय अध्ययन का यह भाव बताया है, इस प्रकार मैं कहता हूँ। // द्वितीय अध्ययन समाप्त // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय से दशम अध्ययन 5. एवं सेसावि अट्ठ नेयव्वा / मायानो सरिसनामाओ / कालाईणं दसहं पुत्ता अणुपुवीए दोण्हं च पञ्च चत्तारि तिण्हं तिण्हं च होन्ति तिण्णे व / / दोण्हं च दोनि वासा सेणियनत्तूण परियाओ॥१॥ उववानो प्राणुपुष्वीए-पढमो सोहम्मे, बीओ ईसाणे, तइओ सणंकुमारे, चउत्थो माहिन्दे, पञ्चमो बम्मलोए, छट्ठो लन्तए, सत्तमो महासुक्के, अट्ठमो सहस्सारे, नवमो पाणए, दसमो अच्चुए। सम्वत्थं उककोसट्टिई माणियब्वा / महाविदेहे सिद्ध / ॥कप्पडिसियाओ समत्ताभो // ॥बीमो वग्गो समत्तो॥ [5] इसी प्रकार शेष पाठों ही अध्ययनों का वर्णन जान लेना चाहिए। माताएँ सदृश नामवाली हैं अर्थात् पुत्रों के समान हो उनके नाम हैं, जैसे-भद्रकुमार को माता भद्रा, सुभद्रकुमार को माता सुभद्रा प्रादि / अनुक्रम से कालादि दसों कुमारों के पुत्र थे / दसों की दीक्षापर्याय इस प्रकार थो पन और महापद्म अनगार की पांच-पाँच वर्ष की, भद्र, सुभद्र और पद्मभद्र की चार-चार वर्ष, पद्मसेन, पद्मगुल्म और नलिनीगुल्म की तीन-तीन वर्ष की तथा आनन्द और नन्दन की दीक्षापर्याय दो-दो वर्ष की थी। ये सभी श्रेणिक राजा के पौत्र थे। अनुक्रम से इनका जन्म हया। देहत्याग के पश्चात प्रथम का सौधर्म कल्प में, द्वितीय का ईशान कल्प में, तृतीय का सनत्कुमार कल्प में, चतुर्थ का माहेन्द्र कल्प में, पंचम का ब्रह्म लोक में, षष्ठ का लान्तक कल्प में, सप्तम का महाशुक्र में, अष्टम का सहस्रार कल्प में, नवम का प्राणतकल्प में और दशम का अच्युत कल्प में देव रूप में जन्म हुा / सभी की स्थिति उत्कृष्ट कहनी चाहिए। ये सभी स्वर्ग से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होंगे। // कल्पावतंसिका समाप्त // // द्वितीय वर्ग समाप्त // Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग : पुष्पिका प्रथम अध्ययन 1. उक्खेवओ- "जइ णं भंते ! समणेणं भगवया[जाब] संपत्तेणं उबङ्गाणं दोच्चस्स कप्पडिसियाणं अयम? पन्नत्ते, तच्चस्स णं भंते ! वास्स उवङ्गाणं पुस्फियाणं के अट्ठ पन्नते?". ... "एवं खलु जम्बू ! समणेणं [जाव] संपत्तेणं उवङ्गाणं तच्चस्स वग्गस्स पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता / तं जहा चन्दे सूरे सुक्के बहुपुत्तिय पुण्ण माणिभद्दे य।। दत्ते सिवे बले या अणाढिए चेव बोद्धब्वे // " "जइ गं भंते ! समणेणं [जाव] संपत्तेणं पुस्फियाणं दस प्रज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते, समणेण नाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ?" [1] जम्बू स्वामी ने प्रार्य सुधर्मा स्वामी से निवेदन किया-भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने द्वितीय उपांग कल्पावतंसिका का यह भाव प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! उपांगों के तृतीय वर्ग रूप पुष्पिका का क्या प्राशय कहा है ? . , , आर्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-आयुष्मन् जम्बू ! यावत् मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् ने तृतीय उपांग वर्ग रूप पुष्पिका के दस अध्ययन कहे हैं / वे इस प्रकार हैं: (1) चन्द्र (2) सूर्य (3) शुक्र (4) बहुपुत्रिका (5) पूर्णभद्र (6) मानभद्र (7) दत्त (8) शिव (9) बल और (10) अनाहत / भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका नामक उपांग के दस अध्ययन बताए हैं तो हे भदन्त ! श्रमण भगवान् ने प्रथम अध्ययन का क्या आशय कहा है ? जम्बू स्वामी ने पुनः प्रार्य सुधर्मा स्वामी से पूछा / .. प्रत्युत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहाचन्द्रविमान में ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र - 2 एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे / गुणसिलए चेहए। राया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया। ....... .. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका तेणं कालेणं तेणं समएणं चन्दे जोइसिन्दे जोइसराया चन्दवडिसए विमाणे समाए सुहम्माए चन्दंसि सोहासणंसि चउहि जाव [सामाणीयसाहस्सोहि चहिं अगमहिसोहि सपरिवाराहि, तिहि परिसाहि, सहि अणियाहिं, सहि अणियाहिवहि, सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहि, अन्नेहि य बहहि विमाणवासीहि वेमाणिएहि देवेहिं देवोहि य सद्धि संपरिबुडे महयाहयनट्टगीयवाइयतन्तीतलतालतुडियघणमुइङ्गपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुञ्जमाणे इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं प्रोहिणा आमोएमाणे 2 पासइ, 2 ता समणं भगवं महावीरं, जहा सूरियाभे, आभिओगं देवं सहावेत्ता [जाव] सुरिन्दाभिगमणजोग्गं करेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणन्ति / सूसरा घण्टा [जाव] विउवणा। नवरं जाणविमाणं जोयणसहस्सविस्थिष्णं श्रद्धतेवट्ठिजोयणसमूसियं, महिन्दसानो पणुवीस जोयणमूसिमी, सेसं जहा सूरियामस्स, [जाव] आगओ। नट्टविही / तहेव पडिगो / . "भते" ति भगवं गोयमे समणं भगवं पुच्छा / कडागारसाला, सरीरं अणुपविट्ठा / पुष्वभयो।' 2] आयुष्मन जम्बू ! वह इस प्रकार है-उस काल और उस समय में राजगह नाम का नगर था / वहाँ गुणशिलक नामक चैत्य था / वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ समवसृत हुए—पधारे / दर्शनार्थ परिषद निकली। उस काल और उस समय में ज्योतिष्कराज ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देवों यावत् सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदानों (आभ्यन्तर, मध्य, बाह्य परिषदाओं), सात प्रकार की सेनाओं, सात उनके सेनापतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य दूसरे भी बहुत से उस विमानवासी देवदेवियों सहित निरंतर महान् गंभीर ध्वनिपूर्वक निपुण पुरुषों द्वारा वादित-बजाये जा रहे तंत्री-बीणा, हस्तताल, कांस्यताल, श्रुटित, घन मृदंग आदि वाद्यों एवं नाट्यों के साथ दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हुआ विचर रहा था / तब उसने अपने विपुल अवधि ज्ञान से अवलोकन करते हुए इस केवलकल्प (सम्पूर्ण) जम्बूद्वीप को देखा और तभी श्रमण भगवान् महावीर को भी देखा / तब भगवान् के दर्शनार्थ जाने का विचार करके सूर्याभदेव' के समान अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाया यावत् उन्हें देव-देवेन्द्रों के अभिगमन करने योग्य कार्य करने की आज्ञा दो यावत् सुरेन्द्रों के अभिगमन करने योग्य कार्य करके इस आज्ञा को वापस लौटाने को कहा अर्थात् कार्य होने को सूचना देने के लिए कहा। आभियोगिक देवों ने भी सुरेन्द्रों के अभिगमन योग्य सब कार्य करके उसे प्राज्ञा वापिस लौटाई। फिर अपने पदाति सेनानायक को आज्ञा दी-सुस्वरा घंटा को बजाकर सब देव-देवियों को भगवान के दर्शनार्थ चलने के लिए सूचित करो। उस सेनानायक ने भी वैसा ही किया। यावत् सर्याभदेव के समान नाटयविधि आदि प्रदर्शित करने की विकुर्वणा की। लेकिन सूर्याभदेव के वर्णन से इतना अंतर है कि इसका यान-विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण और साढे बासठ योजन ऊँचा 1. इस संक्षिप्त कथन का सूचक राजप्रश्नीय सूत्रगत गद्यांश के अनुसार विस्तृत पाठ इस प्रकार है Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : प्रथम अध्ययन] था। माहेन्द्रध्वज की ऊँचाई पच्चीस योजन की थी। इसके अतिरिक्त शेष सभी वर्णन सूर्याभ विमान के समान समझना चाहिए, यावत् जिस प्रकार से सूर्याभदेव भगवान् के पास आया, नाट्यविधि प्रदर्शित की और वापिस लौट गया, वही सब चन्द्रदेव के विषय में भी जान लेना चाहिए। 'भगवन !' इस प्रकार से आमंत्रित कर भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को बंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार करके निवेदन किया-भंते ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चंद्र द्वारा विवित वह सब दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य दैविक प्रभाव कहाँ चले गये ? कहाँ प्रविष्ट हो गये समा गये ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! चन्द्र द्वारा विकुक्ति वह सब दिव्य ऋद्धि प्रादि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई–अन्तर्लीन हो गई। गौतम-भदन्त ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि वह शरीर में चली गई, शरीर में अन्तर्लीन हो गई ? भगवान् गौतम! जैसे कोई एक भीतर-बाहर गोबर आदि से लिपी-पुती, बाहर चारों ओर एक परकोटे से घिरी हुई, गुप्त द्वारों वाली और उनमें भी सघन किवाड़ लगे हुए हैं, अतएव निर्वात-वायु का प्रवेश भी होना जिसमें अशक्य है, ऐसी गहरी विशाल कुटाकार-पर्वत-शिखर के र वाली शाला हो और उस कटाकार शाला के समीप एक बड़ा जनसमह बैठा हो। वह अाकाश में अपनी ओर आते हुए एक बहुत बड़े मेघपटल को अथवा जलवर्षक बादल को अथवा प्रचंड अांधी को देखे तो जैसे वह जनसमूह उस कुटाकारशाला में समा जाता है, उसी प्रकार आयुष्मन् गौतम ! ज्योतिष्कराज चन्द्र को वह दिव्य देव-ऋद्धि आदि उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई--अन्तर्लीन हो गई, ऐसा मैंने कहा है। गौतम--भगवन् ! उस देव को इस प्रकार की वह दिव्य देव-ऋद्धि यावत् दिव्य देवानुभाव कैसे मिला है ? उसने उसे कैसे प्राप्त किया है ? किस तरह से अधिगत किया है ? पूर्वभव में वह कौन था? उसका क्या नाम और गोत्र था ? किस ग्राम, नगर, निगम (व्यापारप्रधान नगर) राजधानी, खेट (खेड़े) कर्वट (कम ऊंचे प्राकार से वेष्टित ग्राम), मडंव (जिसके आसपास चारों ओर एक योजन तक दूसरा कोई गांव न हो), पत्तन (समुद्र का समीपवर्ती ग्राम–नगर), द्रोणमुख (जल और स्थल मार्गों से जुड़ा हुआ नगर), प्राकर (खानों वाला स्थान-नगर) आश्रम (ऋषियों का आवासस्थान), संबाह (यात्रियों, पथिकों के विश्राम योग्य ग्राम अथवा नगर) अथवा सन्निवेश (साधारण जनों की बस्ती) का निवासी था? उसने ऐसा क्या दान दिया? ऐसा क्या भोग किया? ऐसा क्या कार्य किया? ऐसा कौन सा आचरण किया ? और कौन से तथारूप श्रमण अथवा माहण से ऐसा कौन सा एक भी धार्मिक प्रार्य सुवचन सुना और अवधारित किया कि जिससे उस देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि यावत् दैविक प्रभाव उपाजित किया है, प्राप्त किया है, अधिगत किया है ? श्रावस्ती नगरी का अंगति गाथापति 3. 'गोयमा' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमन्तेत्ता एवं वयासी-एवं खल गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थो नाम नयरी होत्था। कोट्ठए चेइए / तत्थ णं सावत्थीए प्राई Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [पुष्पिका नाम गाहावई होत्था अड़े जाव [दित्ते वित्त विस्थिपणविउलभवण-सयणासण-जाणवाहणे बहुधणबहुजायसवरयए आओगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणेबहुदासीदास-गोमहिसवेलगप्पभूए बहुजणस्स] अपरिभूए / तए णं से अङ्गई गाहावई सावत्थीए नयरोए बहूणं नगर-निगम से ट्ठि-सेणावइसत्थवाह-दूय-संधिवालाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मन्तेसु य कुडुम्बेसु य गुन्झसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुडुम्बस्स मेढी पमाणं आहारे मालम्बणं, चक्खू, मेढीभूए जाव सम्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था / जहा आणन्दो। [3] गौतम ! इस प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को आमंत्रित--संबोधित कर कहा--- गौतम ! उस काल और उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहाँ कोष्ठक नामक चैत्य था / उस श्रावस्ती नगरी में अंगति (अंगजित) नामक एक गाथापति-सद्गृहस्थ निवास करता था, जो धनाढ्य संस्कारी, तेजस्वी, प्रभावशाली, संपन्न, विशाल और विपुल भवन शयन-शैया, बिछौना, प्रासन, आदि यान-रथ आदि, का, वाहन--बैल, घोडे आदि और प्रचुर सोने, चांदी सिक्का आदि का स्वामी एवं अर्थोपार्जन के उपायों में निरत था। भोजन करने के बाद भी उसके यहाँ पुष्कल खाद्य पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से दास, दासी, गाय, भैंस, बैल, भेड़ें आदि थीं। लोगों द्वारा अपरिभूत था-प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण जिसका अपमान, तिरस्कार, अनादर किया जाना संभव नहीं था। वह अंगजित गाथापति (आनन्द श्रावकवत) श्रावस्ती नगरी के बहुत से नगरनिवासी व्यापारी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत, संधिपालक-सीमारक्षक आदि के अनेक कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, निर्णयों में, सामाजिक व्यवहारों में पूछने योग्य एवं विचार-परामर्श करने योग्य था एवं अपने कुटुम्ब परिवार का मेढिकेन्द्र, प्रमाण-व्यवस्थापक, आधार, प्रालंबन, चक्षु-मार्गदर्शक, मेढिभूत यावत् (प्रमाणभूत, आधारभूत, पालंबनभूत, चक्षुभूत) तथा सब कार्यों में अग्रेसर था। अर्हत् पार्श्व का पदार्पण 4. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे गं अरहा पुरिसादाणीए आइगरे, जहा महावीरो, नवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सोहि अद्वतीसाए अज्जियासहस्सेहिं [जाय] कोट्ठए समोसढे / परिसा निग्गया। तए णं से अङ्गई गाहावई इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हटे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा निग्गच्छइ [जाव] पज्जुवासइ / धम्म सोच्चा निसम्म, जं नवरं, "देवाणुपिया! जेटुपुत्तं कुड़म्बे ठावेमि / तए गं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पध्वयामि" / जहा गङ्गदत्त तहा पच्चइए [जाव] गुत्तबम्भयारी। [4] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के समान धर्म की आदि करने वाले इत्यादि विशेषणों से युक्त, नौ हाथ की अवगाहना वाले पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु सोलह हजार श्रमणों एवं अड़तीस हजार प्रार्याओं के समुदाय के साथ गमन करते हुए यावत् कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुए--पधारे / परिषद् दर्शनार्थ निकली। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : प्रथम अध्ययन] [51 . तब वह अंगजित गाथापति इस संवाद को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट होता हुमा कार्तिक श्रेष्ठी' के समान अपने घर से निकला यावत् पर्युपासना की / धर्म को श्रवण कर और अवधारित कर उसने प्रभु से निवेदन किया-देवानुप्रिय ! ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा। तत्पश्चात् मैं आप देवानुप्रिय के निकट यावत् प्रवजित होऊंगा। गंगदत्त के समान वह प्रवजित हुअा यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। अंगजित अनगार का उपपाद 5. तए णं से अङ्गई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, २त्ता बहूहिं चउत्थ [जाव] भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणइ, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा चन्दडिसए विमाणे उववाइयाए समाए देवसणिज्जंसि देवदूसन्तरिए चन्दे जोइसिन्दत्ताए उववन्ने। तए णं से चन्दे जोइसिन्दे जोइसियराया अहुणोववन्ने समाणे पञ्चविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहा-पाहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इन्दियपज्जत्तीए सासोसासपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए। [5] तत्पश्चात् अंगजित अनगार ने अर्हत् पार्श्व के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके चतुर्थभक्त यावत् आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करके अर्धमासिक संलेखना पूर्वक अनशन द्वारा तीस भक्तों (भोजनों) का छेदन कर-त्याग कर काल मास में---मरण समय प्राप्त होने पर-मरण करके संयविराधना के कारण चन्द्रावतंसक विमान की उपपात-सभा की देवदूष्य से आच्छादित देवशैया में ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ। तब सद्यःउत्पन्न ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र पांच प्रकार को पर्याप्तियों से पर्याप्तभाव को प्राप्त हुप्रा-पाहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याप्ति, और भाषामन:पर्याप्ति। चन्द्र का भावी जन्म 6. "चन्दस्स णं भन्ते, जोइसिन्दस्स जोइसरनो केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! पलिग्रोवमं वाससयसहस्समम्महियं / एवं खलु गोयमा, चन्दस्स जाव जोइसरन्नो सा दिव्या देविड्ढी। चन्दे णं भन्ते ! जोइसिन्दे जोइसराया तापो देवलोगाओ आउक्खएणं चइत्ता कहि गच्छिहिइ.२? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिजिलहिइ / 1-2. कार्तिक श्रेष्ठी और गंगदत्त का परिचय भगवती सत्र में देखिए। (आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [पुष्पिका [6] भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा--भदन्त ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र की कितने काल की आयु स्थिति है ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति कही है। इस प्रकार से हे गौतम ! उस ज्योतिष्कराजा चन्द्र ने वह दिव्य देव-ऋद्धि प्राप्त की है। 7. निक्खेवभो-तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुल्फियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते त्ति बेमि / 11 प्रथम अध्ययन समाप्त। [7] आयुष्मन् जम्बू! इस प्रकार से यावत् मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पूष्पिका के प्रथम अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है, ऐसा मैं कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन 8. "जइ णं भन्ते समणेणं-भगवया [जाव] पुफियाणं पढमस्स अज्ज्ञयणस्स जाव अयम? पन्नते, दोच्चस्स णं, मन्ते अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते? [8] भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का यह प्राशय प्रतिपादन किया है तो श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?-जम्बू स्वामी ने प्रार्य सुधर्मा स्वामी से पूछा / सूर्य का समवसरण में प्रागमन 9. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे। गुणसिलए चेइए / सेणिए राया / समोसरणं / जहा चंदो तहा सूरो वि आगो [जाव] नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगओ। पुस्वभवपुच्छा / सावस्थी नगरी / सुपइ8 नाम गाहावई होत्था अड्ढे जहेव अङ्गई [जाव] विहरइ / पासो समोसढो, जहा प्रङ्गई तहेव पचाइए तहेव विराहियसामणे, [जाव] महाविदेहे वासे सिमिहिइ [जाव] अंतं करेहिह। [6] सुधर्मा स्वामी ने समाधान किया-आयुष्मन् जम्बू ! भगवान् ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का अर्थ इस प्रकार कहा है उस काल और उस समय में राजगह नाम का नगर था। वहाँ गुणशिलक चैत्य था / श्रेणिक राजा राज्य करता था। श्रमण भगवान महावीर का पदार्पण हुआ। जैसे भगवान् की उपासना के लिए चन्द्र प्राया था उसी प्रकार सूर्य इन्द्र का भी आगमन हुआ यावात् नृत्य-विधियाँ प्रदर्शित कर वापिस लौट गया। तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने सूर्य के पूर्वभव के विषय में पूछा / भगवन् ने प्रत्युत्तर दिया श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहां धन-वैभव आदि से संपन्न सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति रहता था। वह भी अंगजित के समान यावत् धनाढ्य एवं प्रभावशाली था / वहां पार्श्व प्रभु पधारे। अंगजित के समान वह भी प्रजित हुआ और उसी तरह संयम की विराधना करके मरण को प्राप्त होकर सूर्यविमान में देव रूप से उत्पन्न हुआ। आयुक्षय होने के अनन्तर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दुखों का अंत करेगा। 10. निक्खेवओ---तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दोच्चस्स अज्मयणस्स अयम? पण्णत्ते ति बेमि। // द्वितीय अध्ययन समाप्त // [10] आयुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार से श्रमण यावत् मुक्तिसंप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका के द्वितीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है / ऐसा मैं कहता हूँ। // द्वितीय अध्ययन समाप्त // Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन 11. उक्खेवनो-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स जाव प्रयम? पंनत्ते, तच्चस्स णं भंते, अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अ? पंनते ? एवं खलु जम्बू ! [11] जम्बू स्वामी ने प्रार्य सुधर्मा स्वामो से पूछा--भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पिका के द्वितोय अध्ययन का यह प्राशय प्ररूपित किया है तो श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का क्या भाव बताया है ? आर्य सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-अायुष्मन् जम्बू ! वह इस प्रकार है। 12. रायगिहे नयरे / गुणसिलए चेहए / सेणिए राया / सामो समोसढे / परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कडिसए विमाणे सुक्कंसि सोहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सोहिं जहेव चन्दो तहेव प्रागओ, नट्टविहि उवदंसित्ता पडिगो। "भंते" ति। कूडागारसाला / पुश्वभवपुच्छा। [12] राजगृह नगर था। गुणशिलक नाम का चैत्य था। वहां का राजा श्रेणिक था। स्वामी (श्रमण भगवान् महावीर) का पदार्पण हा / धर्मदेशना श्रवण करने के लिए परिषद् निकली। उस काल और उस समय में शुक्र महाग्रह शुक्रावतंसक विमान में शुक्र सिंहासन पर बैठा था। चार हजार सामानिक देवों प्रादि के साथ नृत्य गीत आदि दिव्य भोगों को भोगता हुमा था प्रादि / वह चन्द्र के समान भगवान के समवसरण में पाया। उस शुक्राधिपति ने पूर्ववत् नृत्यविधि का प्रदर्शन किया और नृत्यविधि दिखाकर वापिस लौट गया / तत्पश्चात् 'भदन्त !' इस प्रकार से संबोधन कर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर द्धि आदि के अन्तर्लीन होने के सम्बन्ध में पूछा / भगवान ने कटाकार शाला के दृष्टान्त द्वारा गौतम का समाधान किया। गौतम स्वामी ने पुन: उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछा। शुक्र महाग्रह का पूर्वभव 13. 'एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था। तत्य णं वाणारसीए नयरोए सोमिले नामं माहणे परिक्सइ। अड्ढे जाव अपरिभूए रिउव्वेय-जउब्वेय. सामवेयाथव्वाणं इइहासपञ्चमाणं निघण्टुछट्ठाणं सङ्गोवङ्गाणं सरहस्साणं एवं परिजुत्ताणं धारए सारए पारए सडङ्गवी सद्वितन्तविसारए संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छन्दे निरुत्ते जोइसामयणे अन्नेसु य बम्हण्णगेसु सत्थेसु सुपरिनिट्ठिए / पासे समोसढे / परिसा पज्जुवासइ / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] [55 [13] भगवान् ने प्रत्युत्तर में बताया-गौतम ! उस काल और उस समय में वाराणसी नाम की नगरी थी / उस वाराणसी नगरी में सोमिल नामक माहण (ब्राह्मण) निवास करता था / वह धन-धान्य प्रादि से संपन्न-समद्ध यावत अपरिभत था / ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद इन चार वेदों, पांचवें इतिहास, छठे निघण्टु नामक कोश का तथा सांगोपांग (अंग-उपागों सहित) रहस्य सहित वेदों का सारक (स्मरण कराने वाला पाठक) वारक (अशुद्ध पाठ बोलने से रोकने वाला) घारक (वेदादि को नहीं भूलने वाला, धारण करने वाला) पारक (वेदादि शास्त्रों का पारगामी) वेदों के षट्-अंगों में, एवं षष्ठितंत्र (सांख्य शास्त्र) में विशारद-प्रवीण था / गणितशास्त्र, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्दशास्त्र, निरुक्तशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण और परिव्राजको सम्बन्धी नीति और दर्शनशास्त्र आदि में अत्यन्त निष्णात था। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु पधारे / परिषद् निकली और पर्युपासना करने लगी। 14. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लटुस्स समाणस्स इमे एयारवे अज्झस्थिए–“एवं पासे अरहा पुरिसादाणीए पुव्वाणुपुर्दिव [जाव] अम्बसालवणे विहरइ / तं गच्छामि गं पासस्स अरहनो अन्तिए पाउउमवामि, इमाई च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊई" जहा पण्णत्तीए। सोमिलो निग्गओ खण्डियविहूणो [जाव] एवं क्यासी-"जत्ता ते भंते ? जवणिज्जं च ते ?" पुच्छा। "सरिसक्या मासा कुलस्था? एगे भवं?" [जाव] संबुद्ध / सावगधम्म पडिवज्जित्ता पडिगए। तए णं पासे णं अरहा अन्नया कयाइ वाणारसीओ नयरीओ अम्बसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, 2 सा बहिया जणवयविहारं। तए णं से सोमिले माहणे अन्नया कयाइ असाहुदसणेण य अपज्जुवाप्तणयाए य मिच्छत्तपज्जवेहि परियडमाणेहि 2 सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि 2 मिच्छत्तं च पडिवन्ने। [14] तदनन्तर उस सोमिल ब्राह्मण को यह संवाद सुनकर इस प्रकार का प्रांतरिक विचार उत्पन्न हुआ-पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु पूर्वानुपूर्वी के क्रम से गमन करते हुए यावत् प्राम्रशालवन में विराज रहे हैं / अत एव मैं जाऊं और अर्हत् पावप्रभु के सामने उपस्थित होऊं एवं उनसे यह तथा इस प्रकार के अर्थ हेतु, प्रश्न, कारण और व्याख्या पूर्छ / तत्पश्चात् शिष्यों को साथ लिए बिना ही सोमिल अपने घर से निकला और भगवान् की सेवा में पहुंचकर उसने इस प्रकार पूछा-- भगवन् ! आपकी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? अव्याबाध है ? और आपका प्रासूक विहार हो रहा है ? अापके लिए सरिसव (सरसों) मास (माषउड़द) कुलत्थ (कुलथी धान्य) भक्ष्य है या अभक्ष्य हैं ? आप एक हैं ? (आप दो हैं ? आप अनेक है? आप अक्षय हैं ? प्राप अव्यय हैं ? आप नित्य हैं ? अाप अवस्थित हैं ? प्रभु ने उसे यथोचित उत्तर' दिया) यावत् सोमिल 1. एतद् विषयक प्रश्न और उनके उत्तर ज्ञाताधर्मकथांग, पंचम अध्ययन-शैलक पृ. 174-178 (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) में देखिए / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका र श्रावक धर्म को अंगीकार करके वापिस लौट गया। इसके बाद किसी एक दिन पार्श्व अर्हत् वाराणसी नगरी और प्राम्रशाल वन चैत्य से बाहर निकले / निकलकर जनपदों में विहार करने लगे। तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण किसी समय असाधु दर्शन---महाव्रतधारी साधुनों का दर्शन न करने के कारण एवं निर्ग्रन्थ श्रमणों की पर्युपासना नहीं करने से-उनके उपदेश श्रवण का संयोग न मिलने से एवं मिथ्यात्व पर्यायों के प्रवर्धमान होने (बढ़ने) से तथा सम्यक्त्व पर्यायों के परिहीयमान होने (घटने) से मिथ्यात्व भाव को प्राप्त (मिथ्यादृष्टि, श्रद्धाविहीन) हो गया / सोमिल का गृहत्याग का विचार 15. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अन्नया कयाइ पुठवरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारवे अज्मस्थिए [जाव]समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे अच्चन्तमाहणकुलप्पसूए। तए णं मए वयाई चिण्णाई, आया य अहीया, दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इड्ढोप्रो समाणोयानो, पसुबन्धा' कया, जन्ना जेट्ठा, दक्षिणा दिन्ना, अतिही पूइया, प्रागी हूया, जूवा निक्खित्ता / तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं [जाव] पाउपभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलिमि प्रहापण्डुरे पमाए रत्तासोग गाकिसुयसुयमुहगुजद्धरामबन्धुजीवगपारावयचलण-नयणपरहुयसुरत लोयग-जासुमिणकुसुम-जलियजलण-तपणिज्जकलस-हिङगुलयनिगररूवाइरेगरेहन्तसस्सिरीए दिवायरे अहक्कमेण उदिए तस्स विणकरकरपरंपरावयापारमि अन्धयारे बालातवकुंकुमेण खइयव जीवलोए लोयणविसमाणुआसविगसन्तविसबसिमि लोए, कमलागरसण्डवोहए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरास्सिमि दिणयरे तेयसा जलन्ते वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अम्बारामा रोवावितए एवं माउलिङ्गा बिल्ला कविट्ठा चिञ्चा पुप्फारामा रोवावित्तए" एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं [जाव] जलन्ते वाणारसीए नयरीए बहिया अम्बारामे जाव पुप्फाराम य रोवावेइ / तए णं बहवे अम्बरामा य जाच पुप्फारामा य अणुपुटवेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवद्धिज्जमाणा आरामा जाया किण्हा किण्होभासा [जाव] रम्मा महामेह-निकुरम्बभूया पत्तिया पुल्फिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणा सिरोए अईव 2 उवसोभेमाणा 2 चिट्ठन्ति / [15] इसके बाद किसी एक समय मध्यरात्रि में अपनी कौटुम्बिक स्थिति पर विचार करते हुए उस सोमिल ब्राह्मण को यह और इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला और अत्यन्त शुद्ध ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूँ। मैंने व्रतों (कुलागत विधि-विधानों) को अंगीकार किया, वेदाध्ययन किया, पत्नी को ल त्रवाह किया, कुलपरंपरा को वृद्धि के लिए पुत्रादि संतान को जन्म दिया, समृद्धियों का संग्रह कियाअर्थोपार्जन किया, पशुबंध किया--गाय भैंसों का पालन किया, (या पशुबध किया), यज्ञ किए, दक्षिणा दी, अतिथिपूजा-सत्कार किया, अग्नि में हवन किया-पाहुति दी, यूप स्थापित किये, 1. पाठान्तर-'पसुवधा / -मुनि श्री घासीलालजी / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] [57 इत्यादि गृहस्थ सम्बन्धी कार्य किये / लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल (अागामी दिन) रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने पर, जब कमल विकसित हो जाएँ, प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण (सुनहरा-सफेद रंग) का हो जाए, लाल अशोक, पलाशपुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, बंधुजीवकपुष्प, कबूतर के पैर, कोयल के नेत्र, जसद के पुष्प, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश एवं हिंगुलकसमूह की लालिमा से भी अधिक रक्तिम श्री से सुशोभित सूर्य उदित हो जाए और उसकी किरणों के फैलने से अंधकार विनष्ट हो जाए, सूर्य रूपी कुंकुम से विश्व व्याप्त हो जाए, नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे, सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला सहस्र किरणों से युक्त दिवाकर जाज्वल्यमान तेज से प्रकाशित हो जाए, तब वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम्र-उद्यान (आम के बगीचे) लगवाऊं, इसी प्रकार से मातुलिंग-बिजौरा, बिल्व-बेल, कविट्ठ-कैथ, चिंचा-इमली और फूलों की वाटिकाएँ लगवाऊ !' उसने इस प्रकार विचार किया और विचार करके आगामी दिन यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् पुष्पोद्यान लगवाए / तत्पश्चात् वे बहुत से ग्राम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे अनुक्रम से संरक्षण, संगोपनलालन-पालन और संवर्धन किये जाने से दर्शनीय बगीचे बन गये / कृष्णवर्ण-श्यामल, श्यामल आभा वाले यावत् रमणीय महामेघों के समूह के सदृश होकर पत्र, पुष्प, फल एवं अपनी हरी-भरी श्री से अतीव-अतीव शोभायमान हो गये। 16. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अन्नया कयाइ पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्मथिए [जाव] समुप्पज्जित्था----"एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे प्रच्चन्तमाहणकुलप्पसूए / तए णं मए बयाई चिण्णाइं [जाव] जूवा निक्खित्ता। तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अम्बारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया / त सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं [जाव] जलन्ते सुबहुं लोहकडाहकडच्छुयं तम्बियं तावसभण्डं घडावेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तनाइनियमसंबंधिपरिजणं आमन्तेत्ता तं मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगन्धमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणस्स पुरओ जेटुपुत्तं ठवित्ता तं मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता सुबहुं लोहकडाहकडुच्छ्यं तम्बियं तावसभण्डगं गहाय जे इमे गङ्गाकूला वाणपत्था तावसा भवन्ति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सड्ढई थालई हुम्बउट्ठा दन्तुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्षिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हस्थितावसा उद्दण्डा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अम्बुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालमक्खिणो मूलाहारा कन्दाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकन्दमूलतय-पत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहिं पञ्चम्गितावेहि इङ्गालसोल्लियं कन्दुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरन्ति / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका __ तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसि अन्तिए दिसापोक्खियत्ताए पब्वइत्तए, पवइए वि य गं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि --कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढे वाहाम्रो पगिािय 2 सूराभिमुहस्स पायावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं [जाव] जलन्ते सुबहुं लोह० [जाव] दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए / पच्वइए चि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिहित्ता पढम छटुक्खमणं उसंपज्जित्ताणं विहरह। [16] इसके बाद पुनः उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कौटुम्बिक स्थिति का विचार करते हुए इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् मनःसंकल्प उत्पन्न हुआ-~वाराणसी नगरी वासी मैं सोमिल ब्राह्मण अत्यन्त शुद्ध-प्रसिद्ध ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुमा / मैंने व्रतों का पालन किया, वेदों का अध्ययन प्रादि किया यावत् यूप स्थापित किये और इसके बाद वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से ग्राम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए / लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल यावत् तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोहे के कड़ाह, कुडछी एवं तापसों के योग्य तांबे के पात्रों-बर्तनों को घड़वाकर तथा विपुल मात्रा में प्रशन--पान-खादिम–स्वादिम भोजन बनवाकर मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचित जनों को आमंत्रित कर उन मित्रों, जातिबंधुनों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों का विपुल अशन-पान-खादिमस्वादिम, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार-सन्मान करके उन्हीं मित्रों, जाति-बंधुनों स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर तथा मित्रों-- जाति-बंधुनों आदि परिचितों और ज्येष्ठपुत्र से पूछकर उन बहत से लोहे के कड़ाहे, कुड़छी आदि तापसों के पात्र लेकर जो गंगातटवासी वानप्रस्थ तापस हैं, जैसे कि होत्रिक (अग्निहोत्री), पोत्रिक (वस्त्रधारी), कौत्रिक (भूमिशायी), याज्ञिक (यज्ञ करने वाले), श्राद्धकिन (श्राद्ध करने वाले), स्थालकिन (पात्र धारण करने वाले), हम्बउ (वानप्रस्थ तापसविशेष), दन्तोदूलिक (दांतों से धान्य को तुषहीन करके खाने वाले), उन्मज्जक (पानी में एक बार डुबकी लगाने वाले), संमज्जक (बार-बार हाथ पैर धोने वाले) निमज्जक (पानी में कुछ देर तक डूबे रहने वाले), संप्रक्षालक (मिट्टी आदि से शरीर को रगड़ कर स्नान करने वाले) दक्षिणकूल (तट) वासी, उत्तरकूल-वासी, शंखध्मा (शंख बजा कर भोजन करने वाले), कूलध्मा (तट पर खड़े होकर आवाज लगाने के पश्चात् भोजन करने वाले), मृगलुब्धक (व्याधों की तरह हिरणों का मांस खाने वाले), हस्तीतापस (हाथी को मारकर उसका मांस खाकर जीवन व्यतीत करने वाले), उद्दण्डक (डंडे को ऊंचा करके चलने वाले), दिशाप्रोक्षिक (जल सींचकर दिशाओं की पूजा करने वाले), वल्कबासी (वृक्ष की छाल पहनने वाले), बिलवासी (भूमि को खोदकर उसमें रहने वाले). जलवासी (जल में रहने वाले), वृक्षमूलिक (वृक्ष के मूल में नीचे रहने वाले), जलभक्षी (जल मात्र का पाहार करने वाले), वायुभक्षी (वायु मात्र से जीवित रहने वाले), शैवालभक्षी (काई को खाने वाले), मूलाहारी (वृक्ष की जड़ें खाने वाले), कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, विनष्ट (सड़े हुए)कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प फल को खाने वाले, जलाभिषेक से शरीर कठिन--कड़ा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन [59 बनाने वाले हैं तथा आतापना और पंचाग्नि ताप से अपनी देह को अंगारपक्व' और कंदुपक्व' जैसी बनाते हुए समय यापन करते हैं। ___ इन तापसों में से मैं दिशाप्रोक्षिक तापसों में दिशाप्रोक्षिक रूप से प्रवजित होऊँ और प्रवजित होने के पश्चात इस प्रकार का यह अभिग्रह अंगीकार करूंगा-'यावज्जीवन के लिए निरंतर षष्ठ-षष्ठभक्त (वेला-बेला) पूर्वक दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएँ उठाकर आतापनाभूमि में प्रातापना लूंगा।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया और संकल्प करके यावत् कल (आगामी दिन) जाज्वल्यमान सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोह-कड़ाहों आदि को लेकर यावत् दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रवजित हो गया। प्रवजित होने के साथ इस प्रकार का यह (पूर्व में निश्चय किया हुआ) अभिग्रह अंगीकार करके .प्रथम षष्ठक्षपण तप अंगीकार करके विचरने लगा। सोमिल की दिशाप्रोक्षिक साधना 17. तए गं सोमिले माहणे रिसो पढमछट्टक्खमणपारणंसि पायावणभूमीए पच्चोरुहइ, 2 त्ता बागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता किढिणसंकाइयं गेण्हइ, 2 ता पुरस्थिमं दिसि पुक्खेइ, "पुरस्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमारिसि / जाणि य तत्थ कन्दाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाण" त्ति कटु पुरस्थिमं दिसं पसरह, २त्ता जाणि य तत्थ कन्दाणि य [जाव] हरियाणि य ताइं गेहइ, 2 ता किढिणसंकाइयगं भरेइ, २त्ता दम्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाओ कट्ठाणि य गेण्हइ, 2 त्ता जेणेव सए उडए, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, 2 ता वेई वढेइ, 2 त्ता उबलेवणसंमज्जणं करेइ, 2 त्ता दमकलस-हत्थगए जेणेष गङ्गा महाणई तेणेव उवागच्छइ २त्ता गङ्ग महाणइं ओगाहइ 2 ता जलमज्जणं करेइ, 2 त्ता जलकिड्ड करेइ, 2 ता जलाभिसेयं करेइ, 2 त्ता आयन्ते चोक्खे परमसुइभूए देवपिउकयकज्जे दमकल. सहत्थगए गङ्गाओ महाणईओ पच्चुत्तरइ, 2 ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, २त्ता दम्भे य कुसे य वालुयाए य बेई रएछ, 2 ता सरयं करेइ, 2 ता अरणि करेइ, 2 सा सरएणं अरणि महेइ 2 त्ता अग्गि पाडेइ, 2 ता अग्गि संधुक्केइ, २त्ता समिहा कट्टाणि पक्खिवइ, २त्ता अग्गि उज्जालेइ, 2 त्ता अग्गिस्त्र दाहिणे पासे सत्तलाई समावहे / तं जहा-सकथं वक्कलं ठाणं, सेज्जभण्डं कमण्डलु। दण्डदार तहप्पाणं, अह ताई समादहे // 1 // महुणा य घएण य तन्दुलेहि य अग्गि हुणइ / चरु साहेइ, 2 ता बलिवइस्सदेवं करेइ 2 ता अतिहिपूयं करेइ, 2 त्ता तो पच्छा अप्पणा पाहारं पाहारेइ / 1. अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तथा पांचवें सूर्य की प्रातापना से अपनी देह को अंगारों में पकी हई सी। 2. भाड़ में भूनी हुई सी। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [कल्पिका तए णं सोमिले माहणरिसी दोच्चं छट्टक्खमणपारणगंसि, तं चेव सव्वं भाणियवं [जाव] आहारं प्राहारेइ / नवरं इमं नाणत्तं--"दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसि, जाणि य तत्थ कन्वाणि य [जाव] अणुजाणउ" त्ति कटु दाहिणं दिसि पसरइ / एवं पच्चत्थिमेणं वरुणे महाराया [जाव] पच्चस्थिमं दिसि पसरइ / उत्तरेणं वेसमणे महाराया [जाव] उत्तरं दिसि पसरइ / पुवदिसागमेणं चत्तारि वि दिसाओ भाणियन्वाओ [जाव] प्राहारं आहारेइ / [17] तत्पश्चात् ऋषि सोमिल ब्राह्मण प्रथम षष्ठक्षपण के पारणे के दिन प्रातापनाभूमि से नीचे उतरा। फिर उसने वल्कल वस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटिया थी, वहाँ आया / पाकर वहाँ से—किढिण बांस की छबड़ी और काबड को लिया, तत्पश्चात पर्वदिशा का पजन-प्रक्षालन किया और कहा-हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज! प्रस्थान (साधनामार्ग) में प्रस्थित (प्रवृत्त) हुए मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ (पूर्व दिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पतियां (हरित) हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें।' यों कहकर सोमिल ब्रह्मर्षि पूर्व दिशा की ओर गया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति आदि थी उन्हें ग्रहण किया और काबड़ में रखी, बांस की छबड़ी में भर लिया। फिर दर्भ (डाभ), कुश, तथा वृक्ष की शाखाओं को मोड़कर तोड़े हुए पत्ते और समिधाकाष्ठ लिए। लेकर जहाँ अपनी कुटिया थी, वहाँ पाये। काबड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया। तदनन्तर डाभ और कलश हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए, ग्राकर गंगा महानदी में अवगाहन किया, और उसके जल से देह शुद्ध की। फिर जलक्रीड़ा की, अपनी देह पर पानी सींचा और आचमन प्रादि करके स्वच्छ और परम शुचिभूत (पवित्र) होकर देव और पितरों संबन्धी कार्य संपन्न करके डाभ सहित कलश को हाथ में लिए गंगा महानदी से बाहर निकले / फिर जहाँ अपनी कुटिया थी वहां आए। कुटिया में आकर डाभ, कुश और बालू से वेदी का निर्माण किया, सर (मथन-काष्ठ) और अरणि तैयार की। फिर मथनकाष्ठ से अरणि काष्ठ को घिसा (रगड़ा), अग्नि सुलगाई। अग्नि धौंकी-प्रज्वलित की। तब उसमें समिधा (लकड़ी) डालकर और अधिक प्रज्वलित की और फिर अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं (अंग) रखीं-(१) सकथ (उपकरण विशेष) (2) वल्कल (3) स्थान (आसन) (4) शैयाभाण्ड (5) कमण्डलु (6) लकड़ी का डंडा और (7) अपना शरीर / फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया तथा नित्य यज्ञ कर्म किया / अतिथिपूजा की (अतिथियों को भोजन कराया) और उसके बाद स्वयं आहार ग्रहण किया। / तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने दूसरा षष्ठक्षपण (बेला) अंगीकार किया। उस दूसरे बेले के पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल वस्त्र पहने इत्यादि प्रथम पारणे में जो विधि की, उसी के अनुसार दूसरे पारणे में भी यावत् पाहार किया तक पूर्ववत् जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा--'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान-साधना के लिए प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें,' ऐसा कहकर दक्षिण में गमन किया। तदनन्तर उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने तृतीय बेला तप अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन भी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] [61 उन्होंने पूर्वोक्त सब विधि की। किन्तु तब पश्चिम दिशा की पूजा की। कहा-'हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक-साधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मषि की रक्षा करें' इत्यादि तथा पश्चिम दिशा का अवलोकन किया और वेदिका आदि बनाई, तथा उसके बाद स्वयं आहार किया, यहाँ तक का कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। ___ इसके बाद उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने चतुर्थ बेला तप अंगीकार किया। इस चौथे बेले की पारणा के दिन पूर्ववत् सारी विधि की। विशेष यह है कि इस बार उत्तर दिशा की पूजा की, और इस प्रकार प्रार्थना की—'हे उत्तर दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें' इत्यादि यावत् उत्तर दिशा का अवलोकन किया आदि ! इस प्रकार पूर्व दिशा के वर्णन के समान सभी चारों दिशाओं का वर्णन यावत् आहार किया तक का वृत्तान्त पूर्ववत् जानना चाहिए। सोमिल का नया संकल्प 18. तए गं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अन्नया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारवे अज्झथिए [जाव] समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणरिसी अच्चन्तमाहणकुलप्पसूए / तए णं मए क्याई चिण्णाई [जाव] जूवा निक्खित्ता / तए णं मम वाणारसीए [जाव] पुप्फारामा य [जाव] रोविया / तए णं मए सुबहुं लोह [जाव] घडावेत्ता [जाव] जेट्टपुत्तं ठवेत्ता जाव जेट्टपुत्तं प्रापुच्छित्ता सुबहु लोह [जाव] गहाय मुण्डे [जाव] पन्वइए / पच्वइए वि य गं समाणे छटुंछट्टणं [जाव] विहरामि / तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं जाव जलन्ते बहवे तावसे दिट्ठाभ य पुश्वसंगइए य परियायसंगइए यापुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूई सत्तसयाई अणुमाणइत्ता वागलवत्थनियस्थस्स किढिणसंकाइयगहियसभण्डोवगरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए" एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं जाव जलन्ते बहवे तावसे य विद्वाभट्ठय पुत्वसंगइए य, तं चेव जाव, कटुमुद्दाए मुहं बन्धइ, 2 ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहा-"जत्थेव णं अम्हं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नसि वा पक्वतंसि वा विसमसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज बा पडिज्ज वा, नो खलु मे कप्पइ पच्चुट्टित्तए" त्ति अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ। . अभिगिण्हित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए, असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, 2 तावेई बड्डइ, 2 ता उवलेवणसंमज्जणं करेइ, 2 ता दमकलसहत्थगए जेणेव गङ्गा महाणई, जहा सिवो जाव गङ्गाओ महाणईओ पच्चुत्तरइ, त्ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छद, 2 त्ता दन्भेहि य कुसे हि य वालुयाए य वेई रएइ, २त्ता सरगं करेइ, २त्ता जाव बलिवइस्सदेवं करेइ, २त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, 2 ता तुसिणीए संचिट्ठइ। [18] इसके बाद किसी समय मध्यरात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उन सोमिल ब्रह्मर्षि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 पप्पका के मन में इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न हग्रा--'मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला, अत्यन्त उच्चकुल में उत्पन्न सोमिल ब्रह्मर्षि हूँ। मैंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्रत पालन किए हैं, यावत् यूप-यज्ञस्तम्भ गड़वाए। इसके बाद मैंने वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए। तत्पश्चात् बहुत से लोहे के कड़ाहे, कुडछी प्रादि घड़वाकर यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर और मित्रों आदि यावत् ज्येष्ठ पुत्र से सम्मति लेकर लोहे की कड़ाहियां आदि लेकर मुंडित हो प्रव्रजित हुआ। प्रवजित होने पर षष्ठ-षष्ठभक्त (बेले-बेले) तपःकर्म अंगीकार करके दिक्चक्रवाल साधना करता हुया विचरण कर रहा हूँ। लेकिन अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भाषित (पूर्व में दृष्ट और भाषित ) पूर्व संगतिक (पूर्वकाल के साथी) और पर्यायसंगतिक (तापस अवस्था के साथी) तापसों से पूछकर और आश्रमसंश्रित (आश्रम में रहने वाले) अनेक शत जनों को वचन आदि से संतुष्ट कर और उनसे अनुमति लेकर वल्कल वस्त्र पहनकर, कावड़ की छबड़ी में अपने भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान (मरण के लिए गमन) करूं / ' सोमिल ने इस प्रकार से विचार किया। इस प्रकार विचार करने के पश्चात् कल (आगामी दिन) यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने विचार-निश्चय के अनुसार उन्होंने सभी दृष्ट, भाषित, पूर्वसंगतिक और तापस पर्याय के साथियों आदि से पूछकर तथा प्राश्रमस्थ अनेक शत-प्राणियों को संतुष्ट कर अंत में काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधा / मुख को बाँधकर इस प्रकार का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) लिया--जहां कहीं भी चाहे वह जल हो या स्थल हो, दुर्ग (दुर्गम स्थान) हो अथवा नीचा प्रदेश हो, पर्वत हो अथवा विषम भूमि हो, गड्ढा हो या गुफा हो, इन सब में से जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर जाऊं वहाँ से मुझे उठना नहीं कल्पता है अर्थात् मैं वहां से नहीं उठूगा। ऐसा विचार करके यह अभिग्रह ग्रहण कर लिया / तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित वह सोमिल ब्रह्मर्षि उत्तर दिशा की ओर गमन करते हुए अपराह्न काल (दिन के तीसरे प्रहर) में जहां सुन्दर अशोक वृक्ष था, वहाँ पाए / उस अशोक वृक्ष के नीचे अपना काबड़ रखा / अनन्तर वेदिका (बैठने की जगह) साफ की, उसे लीप-पोत कर स्वच्छ किया, फिर डाभ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए और शिवराजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर पाए / जहाँ वह उत्तम अशोक वृक्ष था वहाँ आकर डाभ, कुश एवं वालुका से वेदी की रचना की। फिर शर और अरणि बनाई, शर व अरणि काष्ठ को घिसकर-रगड़कर अग्नि पैदा की इत्यादि पूर्व में कही गई विधि के अनुसार कार्य करके बलिवैश्वदेव-अग्नियज्ञ करके काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर मौन होकर बैठ गये। देव द्वारा सोमिल को प्रतिबोध 19. तए गं तस्स सोमिलमाहरिसिस्स पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउम्भूए / सए णं से देवे सोभिलमाहणं एवं क्यासी-हं भो सोमिलमाहणा, पव्वइया ! दुप्पटवाइयं ते।' तए णं से सोमिले तस्स देवस्स दोच्चं पि तच्चं पि एयमट्ठनो आढाइ, नो परिजाणइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3: तृतीय अध्ययन] तए णं से देवे सोमिलेणं माणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसि पाउम्भूए तामेव जाव पडिगए। तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलन्ते वागलवथनियत्थे कढिणसंकाइयं गहाय गहियभण्डोवगरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, 2 त्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिए / [19] तदनन्तर मध्य रात्रि के समय सोमिल ब्रह्मषि के समक्ष एक देव प्रकट हुा / उस देव ने सोमिल ब्रह्मर्षि से इस प्रकार कहा---'प्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है।' उस देव ने दूसरी और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा / किन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देव की बात का प्रादर नहीं किया-उसके कथन पर ध्यान नहीं दिया यावत् मौन ही रहा / इसके बाद उस सोमिल ब्रह्मर्षि द्वारा अनाहत (उपेक्षा किया गया) वह देव जिस दिशा से प्राया था, वापिस उसी दिशा में लौट गया। तत्पश्चात् कल (दूसरे दिन) यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने कावड़, भाण्डोपकरण प्रादि लेकर काष्ठमुद्रा से मुख को बांधा। बांधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया। 20. तए णं से सोमिले बिइयदिवसम्म पच्छावरहकालसमयंसि जेणेव सत्तिवण्णे तेणेव उवागए / सत्तिवण्णस्स अहे कढिणसंकाइयं ठवेइ, 2 ता वेई बढइ / जहा असोगवरपायवे जाव अग्गि हुणइ, कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए गं तस्स सोमिलस्स पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं पाउन्भूए / तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने जहा असोगवरपायवे जाव पडिगए। तए णं से सोमिले कल्लं जाव जलन्ते वागलवत्थनियत्थे कढिणसंकाइयं गेहइ, 2 ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धह, 2 ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए। [20] इसके बाद दूसरे दिन अपराह्न काल के अंतिम प्रहर में सोमिल ब्रह्मर्षि जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था, वहाँ आये। उस सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे कावड़ को रखा (कावड़ रखकर) वेदिका--बैठने के स्थान को साफ किया, इत्यादि जैसे पूर्व में अशोक वृक्ष के नीचे कृत्य किए थे, वे सभी यहाँ भी किए, यावत् अग्नि में आहुति दी और काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांधकर बैठ गये / तब मध्यरात्रि में सोमिल ब्राषि के समक्ष पुनः देव प्रगट हुआ और आकाश में स्थित होकर अशोक वृक्ष के नीचे जिस प्रकार पहले कहा था कि तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है, उसी प्रकार फिर कहा / परन्तु सोमिल ने उस देव की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया। अनसुनी करके मौन ही रहा यावत् वह देव पुनः वापिस लौट गया। इसके बाद (तीसरे दिन) वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने कावड़ उपकरण आदि लिए / काष्ठमुद्रा से मुख को बांधा और मुख बांधकर उत्तर की ओर मुख करके उत्तर दिशा में चल दिया। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 [पुष्पिका 21. तए णं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, 2 ता वेई वड्डइ जाव गङ्ग महाणइं पच्चुत्तरइ, 2 सा जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ / वेई रएइ, 2 त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, 2 ता तुसिणीए संचिट्ठइ। तए गं तस्स सोमिलस्स पुग्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवस्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, २त्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए / [21] तदनन्तर वह सोमिल ब्रह्मर्षि तीसरे दिन अपराहण काल में जहां उत्तम अशोक वृक्ष था, वहां आए। आकर उस अशोक वृक्ष के नीचे कावड़ रखी। बैठने के लिए वेदी बनाई और दर्भयुक्त कलश को लेकर गंगा महानदी में अवगाहन किया। वहाँ स्नान आदि करके गंगा महानदी से बाहर निकले / निकलकर अशोक वृक्ष के नीचे वेदी-चना की। अग्निहवन आदि किया फिर काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर मौन बैठ गए। तत्पश्चात् मध्यरात्रि में सोमिल के समक्ष पुनः एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा--'हे प्रवजित सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है यावत् वह देव वापिस लौट गया। इसके बाद सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और पात्रोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया। 22. तए णं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरणहकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए / वडपायवस्स अहे कढिणं संठवेइ, २त्ता वेई वड्डइ, उवलेवणसंमज्जणं करेइ, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, तसिणीए संचिह। तए णं तस्स सोमिलस्स पृथ्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउभविस्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलन्ते वागलवथनियत्थे किढिणसंकाइयं, जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धइ, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपस्थिए / [22] तदनन्तर चलते-चलते सोमिल ब्रह्मर्षि चौथे दिवस के अपराल काल में जहाँ बट वृक्ष था, वहाँ पाए। आकर वट वृक्ष के नीचे कावड़े रखी। बैठने के योग्य स्थान साफ किया / उसको गोबर मिट्टी से लोपा, स्वच्छ किया इत्यादि तक का समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा और मौन होकर बैठ गए। इसके बाद मध्यरात्रि के समय पुनः सोमिल के समक्ष वह देव प्रकट हुआ और उसने पहले के समान कहा-'सोमिल ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' ऐसा कहकर वह अन्तर्धान हो गया। रात्रि के बीतने के बाद और जाज्वल्यमान तेजयुक्त मूर्य के प्रकाशित होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ लेकर और काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में चल दिए। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] 23. तए णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छइ / उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेई वड्ढइ, जाव संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुन्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे, जाव एवं वयासो-'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते,' पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ / देवो दोच्चं पि तच्चं पि वयइ-"सोमिला, पवइया, दुप्पव्वइयं ते / " तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोचचं पि तच्चं पि एवं वृत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी-"कहं णं देवाणुप्पिया ! मम दुप्पव्वइयं ?" तए णं से देवे सोमिलं माहणं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमं पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स अन्तियं पञ्चाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुवालसविहे सावयधम्मे पडिवन्ने / तए णं तव अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं ........."जाव पुन्वचिन्तियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव प्रसोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, 2 ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि / तए जं पुन्वरत्तावरत्तकाले तव अन्तियं पाउब्भवामि, 'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते', तह चेव देवो नियवयणं भणइ, जाव पञ्चमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे, तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेइं बड्डे सि, उवलेवणं संमज्जणं करेसि, 2 त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धेसि, 2 त्ता तुसिणीए संचिट्ठसि / तं एवं खलु, देवाणुप्पिया, तव दुप्पव्वइयं / [23] तत्पश्चात वह सोमिल ब्रह्मर्षि पांचवें दिन के चौथे प्रहर में जहां उदुम्बर (गलर) का वृक्ष था, वहाँ आए। उस उदुम्बर वृक्ष के नीचे कावड़ रखो। वेदिका बनाई यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा यावत मौन होकर बैठ गए। इसके बाद मध्यरात्रि में पुनः सोमिल ब्राह्मण के समीप एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा-'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है।' इस प्रकार पहली बार कही उस देव की वाणी को सुनकर वह मौन बैठे रहे। इसके बाद देव ने दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा—'सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' तब देव द्वारा दूसरी तीसरी बार भी इसी प्रकार कहे जाने पर सोमिल ने देव से पूछा- 'देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ?' सोमिल के इस प्रकार पूछने पर देव ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुमने पहले पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् से पंच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया था। किन्तु इसके बाद सुसाधुओं के दर्शन उपदेश आदि का संयोग न मिलने और मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने से अंगीकृत श्रावकधर्म को त्याग दिया। इसके अनन्तर किसी समय रात्रि में कुटुम्ब संबन्धी विचार करते हुए तुम्हारे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि गंगा किनारे तपस्या करने वाले विविध प्रकार के तापसों में से दिशाप्रोक्षिक तापसों के पास लोहे के कड़ाह, कुडछी और तांबे के तापसपात्र न्हें लेकर दिशाप्रोक्षिक तापस बनं। इत्यादि सोमिल ब्राह्माण द्वारा पूर्व में चिन्तित सभी विचारों को देव ने दुहराया और कहा-फिर तुमने दिशाप्रोक्षिक प्रव्रज्या धारण की। प्रव्रज्या धारण कर अन्त में यह अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आए और कावड़ रख वेदी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पिका आदि बनाई। गंगा में स्नान किया। अग्निहवन किया यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधकर मौन बैठ गए। बाद में मध्यरात्रि के समय मैं तुम्हारे समीप आया और तुम्हें प्रतिबोधित किया--'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' किन्तु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे / इस प्रकार मैंने तुम्हें चार दिन तक समझाया पर तुमने विचार नहीं किया। इसके बाद आज पांचवें दिवस चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा। बैठने के स्थान को साफ किया, लीप-पोतकर स्वच्छ किया। अग्नि में हवन किया और काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांधकर तुम मौन होकर बैठ गए / इस प्रकार से हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / सोमिल द्वारा पुनः श्रावकधर्मग्रहण 24. तए णं से सोमिले तं देवं एवं क्यासी-"कहं णं देवाणुप्पिया ! मम सुप्पन्धइयं ?" तए णं से देवे सोमिलं एवं क्यासी-"जह णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणि पुवपडिवनाई पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि, तो गं तुजन इयाणि सुपब्वइयं भवेज्जा।" तए णं से देवे सोमिलं वन्दइ नमसइ, 2 ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए / तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुन्यपडियन्नाई पञ्च अणुव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / [24] यह सब सुनकर सोमिल ने देव से कहा-'अब आप ही बताइए कि मैं कैसे सुप्रवजित बनू-मेरी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या कैसे हो ?' इसके उत्तर में देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम पूर्व में ग्रहण किए हुए पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म को स्वयमेव स्वीकार करके विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या होगी। इसके बाद देव ने सोमिल ब्राह्मण को वन्दन-नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके जिस ओर से आया था उसी ओर अन्तर्धान हो गया। उस देव के अन्तर्धान हो जाने के पश्चात् सोमिल ब्रह्मर्षि देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पंच अणुव्रतों को अंगीकार करके विचरण करने लगे। सोमिल की शुक्र महाग्रह में उत्पत्ति 25. तए णं से सोमिले बहिं चउत्थछट्टमं [जाव] मासद्धमासखमोह विचित्तेहि तवोवहाणेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई धासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झसेइ, 2 ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, 2 ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कन्ते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि [जाव] ओगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववन्ने / तए णं से सुबके महग्गहे अहुणोववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] [25] तत्पश्चात् सोमिल ने बहुत से चतुर्थभक्त (उपवास) षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला) यावत् अर्धमासक्षपण, मासक्षपण रूप विचित्र तपःकर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए–संस्कृत करते हुए श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया। अंत में अर्धमासिक संलेखना द्वारा प्रात्मा को आराधना कर और तीस भोजनों का अनशन द्वारा त्याग कर किन्त पूर्वत उस पापस्थान (दुष्प्रव्रज्यारूप कृत प्रमाद) की आलोचना और प्रतिक्रमण न करके सम्यक्त्व की विराधना के कारण कालमास में (मरण के समय) काल (मरण) किया। शुक्रावतंसक विमान की उपपातसभा में स्थित देवशैया पर यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग की जघन्य अवगाहना से शुक्रमहाग्रह देव के रूप में जन्म लिया / / तत्पश्चात् वह शुक्र महाग्रह देव तत्काल उत्पन्न होकर यावत् भाषा-मनःपर्याप्ति आदि पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ। 26. एवं खलु गोयमा ! सुक्केणं सा दिव्वा [जाव] अभिसमन्नागए / एवं पलिनोवमं ठिई। "सुक्के णं भन्ते ! महागहे तओ देवलोगाओ आउक्खएण 3 कहिं गच्छिहिइ ?" "गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।" [26] अन्त में अपने कथन का उपसंहार करते हुए भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-हे गौतम ! इस प्रकार से उस शुक्र महाग्रह देव ने वह दिव्य देवऋद्धि, द्युति यावत् दिव्य प्रभाव प्राप्त किया है। उसकी वहाँ एक पल्योपम की स्थिति है / गौतम स्वामी ने पुनः पूछा-भदन्त ! वह शुक्रमहाग्रह देव आयु, भव और स्थिति का क्षय होने के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने कहा-गौतम ! वह शुक्रमहाग्रहदेव आयुक्षय भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा। यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। 27. निक्खेवओ-तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं तच्चस्स अज्मयणस्स अयमठे पण्णते ति बेमि / [27] सुधर्मास्वामी ने तीसरे अध्ययन का प्राशय कहने के बाद जम्बूस्वामी से कहाआयुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन में इस भाव का निरूपण किया है / ऐसा मैं कहता हूँ। // तृतीय अध्ययन समाप्त / / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : बहुपुत्रिका देवी 28. उपखेवओ-जइ गं भंते ! समण भगवया जाव पुफियाणं तच्चस्स प्रज्झयणस्स जाव प्रयमढ़े पन्नत्ते, चउत्थरस णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समजेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नते? एवं खलु जम्बू! [28] जम्बूस्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पूछा--भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के तृतीय अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है तो भदन्त ! उन मुक्तिप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-जम्बू ! वह इस प्रकार है--- बहुपुत्रिका देवी ___29. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे / गुणसिलए चेहए / सेणिए राया। सामी समोसढेपरिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे समाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सोहि चहि महत्तरियाहिं, जहा सूरियाभे, [जाव] भुञ्जमाणी विहरइ, इमं च णं केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आमोएमाणी 2 पासइ, 2 त्ता समणं भगवं महावीरं, जहा सूरियामो, [जाव] नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहा संनिसण्णा। आभियोगा जहा सूरियामस्स, सूसरा घण्टा, आमियोगियं देवं सद्दावेइ / जाणविमाणं जोयणसहस्सविस्थिणं / जाणविमाणवष्णओ। [जाव] उत्तरिल्लेणं निज्जाणभग्गेण जोयणसाहस्सिएहि विगहेहि प्रागया, जहा सूरियाभे / धम्मकहा समत्ता। तए णं सा बहुपुत्तिया देवी वाहिणं भयं पसारेइ, 2 ता देवकुमाराणं अदुसयं देवकुमारियाण य वामाओ भुयायो अट्ठसयं / तयाणन्तरं च गं बहवे वारगा य दारियानो य डिम्मए य डिम्भियाओ य विउव्यइ / नट्टविहिं जहा सूरियामो, उवदंसित्ता पडिगया। [26] उस काल और उस समय में राजगह नामक नगर था / गुणशिलक चैत्य था / उस नगर का राजा श्रेणिक था। स्वामी (श्रमण भगवान् महावीर) का पदार्पण हुआ / उनकी धर्मदेशना श्रवण करने के लिए परिषद् निकली। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] . उस काल और उस समय में सौधर्म कल्प के बहपुत्रिक विमान की सुधर्मा सभा में बहुपुत्रिका नाम की देवी बहुपुत्रिक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवियों तथा चार हजार महत्तरिका देवियों के साथ सूर्याभ देव के समान नानाविध दिव्य भोगों को भोगती हुई विचरण कर रही थी। उस समय उसने अपने विपुल अवधिज्ञान से इस केवलकल्प (सम्पूर्ण) जम्बूद्वीप नामक द्वीप को देखा और राजगृह नगर में समवसृत भगवान् महावीर स्वामी को देखा। उनको देखकर सूर्याभ देव के समान (सिंहासन से उठकर कुछ कदम जाकर यावत्) नमस्कार करके अपने उत्तम सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गई। फिर सूर्याभ देव के समान उसने अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाया और उन्हें सुस्वरा घंटा बजाने की आज्ञा दी। उन्होंने सुस्वरा घंटा बजाकर सभी देव-देवियों को भगवान के दर्शनार्थ चलने को सूचना दी। तत्पश्चात् पुनः आभियोगिक देवों को बुलाया और भगवान के दर्शनार्थ जाने योग्य विमान की विकुर्वणा करने की प्राज्ञा दी। आज्ञानुसार उन आभियोगिक देवों ने यान-विमान की विकुर्वणा की। सूर्याभ देव के यान-विमान के समान इस विमान का वर्णन करना चाहिए।' किन्तु वह यान-विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण था। सूर्याभ देव के समान वह अपनी समस्त ऋद्धि-वैभव के साथ यावत् उत्तर दिशा के निर्याणमार्ग से निकलकर एक हजार योजन ऊंचे वैक्रिय शरीर को बनाकर भगवान् के समवसरण में उपस्थित हुई। भगवान् ने धर्मदेशना दी। धर्मदेशना की समाप्ति के पश्चात् उस बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाहिनी भुजा पसारी-फैलाई / भुजा पसारकर एक सौ आठ देवकुमारों की और बायीं भुजा फैलाकर एक सौ पाठ देवकुमारिकाओं को विकुर्वणा की। इसके बाद बहुत से दारक-दारिकाओं (बड़ी उम्र के बच्चे-बच्चियों) तथा डिम्भक-डिम्भिकाओं (छोटी उम्र के बालक-बालिकाओं) की विकुर्वणा की तथा सूर्याभ देव के समान नाट्य-विधियों को दिखाकर (भगवान् को नमस्कार करके) वापिस लौट गई। गौतम को जिज्ञासा 30. "मंते" त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ / कूडागारसाला / “बहुपुत्तियाए णं भंते ! देवीए सा दिवा देविड्डी'..."पुच्छा, "जाव अभिसमन्नागया?" "एवं खलु गोयमा!" तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी, अम्बसालवणे चेइए। तत्थ तं वाणारसीए नयरीए भद्दे नाम सस्थवाहे होत्था अड्ढे [जाव] अपरिभूए / तस्स णं मद्दस्त सुभद्दा नाम भारिया सुउमाला वसा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया याथि होत्था। [30] उसके चले जाने के बाद गौतम स्वामी ने भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया और 'भदन्त !' इस प्रकार सम्बोधन कर प्रश्न किया-भगवन् ! उस बहुपुत्रिका देवी की वह दिव्य देव ऋद्धि, द्युति और देवानुभाव कहाँ गया ? कहाँ समा गया? 1. सूर्याभ देव के यान-विमान का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र (भागम-प्रकाशन समिति ब्यावर) पृष्ठ 26-36 पर देखिये। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किल्पिका भगवान् ने कहा- गौतम ! वह देव-ऋद्धि आदि उसी के शरीर से निकली थी और उसी के शरीर में समा गई। गौतम ने पुन: पूछा-वह विशाल देव-ऋद्धि उसके शरीर में कैसे विलीन हो गईसमा गई ? उत्तर में भगवान ने बतलाया-गौतम ! जिस प्रकार किसी उत्सव आदि के कारण फैला हुमा जनसमूह वर्षा प्रादि को अाशंका के कारण कुटाकार शाला में समा जाता है, उसी प्रकार देव. कुमार प्रादि देव-ऋद्धि बहुपुत्रिका देवो के शरीर में अन्तहित हो गई-समा गई। गौतम स्वामी ने पुनः पूछा----भदन्त ! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव-ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे उसके उपभोग में पाई ? ऐसा पूछने पर भगवान् ने कहा--- गौतम! उस काल और उस समय वाराणसी नाम की नगरी थी। उस नगरी में आम्रशालवन नामक चैत्य था। उस वाराणसी नगरी में भद्र नामक सार्थवाह रहता था, जो धन-धान्यादि से समृद्ध यावत् दूसरों से अपरिभूत था (दूसरों के द्वारा जिसका पराभव या तिरस्कार किया जाना संभव नहीं था / ) उस भद्र सार्थवाह की पत्नी का नाम सुभद्रा था। वह अतीव सुकुमाल अंगोपांग वाली थी, रूपवती थी / किन्तु वन्ध्या होने से उसने एक भी सन्तान को जन्म नहीं दिया। वह केवल जानु और कूपर की माता थी अर्थात् उसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियाँ ही स्पर्श करती थीं, संतान नहीं।। सुभद्रा सार्थवाही को चिन्ता __31. तए गं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाइ पुग्वरत्तावरत्तकाले कुटम्बजागरियं जागरमाणोए इमेयारूवे अज्झथिए पत्थिए चिन्तिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था—“एवं खलु अहं भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयाया। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, [जाव] सपुष्णाओ गं ताओ अम्मयानो, कयस्थाओ णं तारो अम्मयाओ, सुलद्ध णं तासि अम्मयाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासि मन्ने नियकुच्छिसंभूयगाई थणदुखलुद्धगाई महुरसमुल्लाबगाणि मम्मणप्पजम्पियाणि थणमूलकक्खदेसमागं अभिसरमाणगाणि पोहयन्ति, पुणो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिऊणं उच्छङ्गनिवेसियाणि देन्ति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मणप्पणिए / अहं णं अधन्ना अपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता।" ओहय० जाब झियाइ / [31] तत्पश्चात् किसो एक समय मध्य रात्रि में पारिवारिक स्थिति का विचार करते हुए सुभद्रा को इस प्रकार का प्रान्तरिक चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ–'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूं, किन्तु ग्राज तक मैंने एक भी बालक या बालिका का प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य धन्य हैं यावत् पुण्यशालिनो हैं, उन्होंने पुण्य का उपार्जन किया है, उन मातानों ने अपने मनुष्यजन्म और जीवन का फल भलीभांति प्राप्त किया है, जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न, स्तन के दूध को लोभी, मन को लुभाने वालो वाणी का उच्चारण करने वाली, तोतलो बोलो बोलने वाली, स्तनमूल और कांख Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] [71 के अंतराल में अभिसरण करने वाली सन्तान को दूध पिलाती हैं / फिर कमल के सदृश कोमल हाथों से लेकर उसे गोद में बिठलाती हैं, कानों को प्रिय लगने वाले मधुर-मधुर संलापों से अपन मनोरंजन करती हैं। लेकिन मैं ऐसी भाग्यहीन, पुण्यहीन हूं कि संतान सम्बन्धी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है।' इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह-भग्नमनोरथ होकर यावत् अार्तध्यान करने लगी। सुवता प्रार्या का प्रागमन 32. तेणं कालेणं तेणं सगएणं सुव्वयाओ णं प्रज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियानो एसणासमियाओ आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंधाणयारिट्रावणासमियामो मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुत्तिन्दियाओ गुत्तबम्भयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवारानो पुव्वाणुपुटिव चरमाणीओ गामाणुगामं दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी, तेणेव उवागयाो। उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरन्ति। [32] उस काल और उस समय में ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणामिति, आदान-भांडमात्रनिक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाणपरिष्ठापना-समिति से समित, मनोगप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाली (इन्द्रियों का दमन करने वाली) गुप्त ब्रह्मचारिणी बहुश्रुता (बहुत से शास्त्रों में निष्णात),शिष्याओं के बहुत बड़े परिवार वाली सुव्रता नाम की आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम (तीर्थकर परंपरा के अनुरूप)से चलती हुई, ग्रामानुग्राम में विहार करती हुई जहाँ वाराणसी नगरी थी, वहाँ आई / आकर कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह-प्राज्ञा लेकर संयम और तप से प्रात्मा को परिशोधित करती हुई विचरने लगी। सुभद्रा को जिज्ञासा : प्रार्याओं का उत्तर 33. तए णं तासि सुब्बयाणं अज्जाणं एगे संघाउए वाणारसीनयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अउमाणे भद्दस्स सस्थवाहस्स गिहं अणुप्पविठे / तए गं सुभद्दा सत्यवाही ताओ अज्जाम्रो एज्जमाणोओ पासइ, 2 ता हट० खिप्पामेव पासणाओ अम्मठे, २त्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, 2 ता बन्वइ, नमसइ, २त्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभेत्ता एवं बयासी ‘एवं खलु अहं, प्रज्जाओ, भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा वारिग वा पयायामि / तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, [जाव] एत्ता एगमवि न पत्ता। तं तुम्भे, अज्जाओ, बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागरमगर० [जाव] संनिवेसाई आहिण्डह, बहूर्ण राईसरतलवर० [जाव] सस्थवाहप्पभिईणं गिहाई अनुपविसह, अत्थि से केइ कहिंचि विज्जापओए वा मन्तप्पओए वा वमणं वा विरयेणं वा पत्थिकम्मं वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्ध, जेणं अहं वारगं वा वारिगं वा पयाएज्जा?" Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [कस्विका [33] तदनन्तर उन सुव्रता आर्या का एक संघाड़ा वाराणसी नगरी के सामान्य, मध्यम, और उच्च कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए परिभ्रमण करता हुया भद्र सार्थवाह के घर में आया। तब उस सुभद्रा सार्थवाही ने उन प्रायिकाओं को प्राते हुए देखा / देखकर वह हर्षित और संतुष्ट होती हुई शीघ्र हो अपने आसन से उठकर खड़ी हुई / खड़ी होकर सात-पाठ डग उनके सामने गई और वन्दन-नमस्कार किया। फिर विपुल प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम पाहार से प्रतिलाभित कर इस प्रकार कहा आर्यायो ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोग रही हूँ, मैंने आज तक एक भी संतान का प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनो हैं (जो संतान का सुख भोगती हैं) यावत् मैं अधन्या पुण्यहोना हूँ कि उनमें से एक भी सुख प्राप्त नहीं कर सकी हूँ। देवानुप्रियो ! आप बहुत ज्ञानी हैं, बहुत पढ़ी-लिखी हैं और बहुत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् देशों में घूमती हैं / अनेक राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में भिक्षा के लिए प्रवेश करती हैं। तो क्या कहीं कोई विद्याप्रयोग, मंत्रप्रयोग, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषध अथवा भेषज ज्ञात किया है, देखा-पढ़ा है जिससे मैं बालक या बालिका का प्रसव कर सकूँ? ___34. तए णं ताओ अज्जामो सुभई सत्यवाहि एवं बगासी—"अम्हे णं वेवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियाओ [जाव] गुत्तबम्भयारिणीयों। नो खलु कप्पइ अम्हं एयमढ़ कण्णेहि वि निसामेत्तए किमङ्ग पुण उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा ? अम्हे णं देवाणुप्पिए ! नवरं तव विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहेमो"। [34] सुभद्रा का कथन सुनकर उन आयिकाओं ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहादेवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति आदि समितियां से समित, तीन गुप्तिओं से गुप्त, इन्द्रियों को वश में करने वालो गुप्त ब्रह्म वारिणा निर्ग्रन्थ-श्रमणिएँ हैं। हमको ऐसी बातों का सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश अथवा आचरण कैसे कर सकती हैं ? किन्तु देवानुप्रिये ! हम तुम्हें केवलिप्ररूपित दान शोल ग्रादि अनेक प्रकार का धर्मोपदेश सुना सकती हैं। प्रार्याओं का उपदेश : सुभद्रा का श्रमणोपासिका व्रत ग्रहण 35. तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तासि अज्जाणं अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुट्टा ताओ अज्जाओ तिक्खुत्तो वन्दइ नमसइ, २त्ता एवं वयासी-"सद्दहामि णं अज्जाओ! निग्गन्थं पावयणं, पत्तियामि रोएमि णं, अज्जायो ! निग्गंथं पाक्यणं"। एवमेयं तहमेयं प्रवितहमेयं," [जाव] सावगधम्म पडिवज्जए। "अहासुह, देवाणुप्पिए, मा पडिबन्धं करेह / " तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही तासि अज्जाणं अन्तिए [जाव] पडिबज्जइ, 2 ता ताओ अज्जामो वन्दइ नमसइ, २त्ता पडिविसज्जेइ / तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही समणोवासिया जाया, जाव विहरइ / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्य अध्ययन] [73 - [35] इसके बाद उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर उसे अवधारित कर उस सुभद्रा सार्थवाही ने हृष्ट-तुष्ट हो उन आर्याों को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके उसने कहादेवानुप्रियो ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ विश्वास करती हूँ, रुचि करती हूँ। आपने जो उपदेश दिया है, वह तथ्य है, सत्य है, अवितथ है / यावत् मैं श्रावकधर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ। यिकाओं ने उत्तर दिया--देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें अनुकूल हो अथवा जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु प्रमाद मत करो। तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही ने उन प्रायिकाओं से श्रावकधर्म अंगीकार किया। अंगीकार करके उन आर्यिकाओं को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उन्हें विदा किया। तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर श्रावकधर्म पालती हुई यावत् विचरने लगी। सुभद्रा की दीक्षा का संकल्प 36. तए णं तोसे सुभदाए समणोवासियाए अन्नया कयाइ पुख्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुम्बजागरियं जागरगमाणीए अयमेयारूवे अच्झस्थिए [जाव] समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेणं विउलाई भोगभोगाई जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा... / तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलन्ते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुब्बयाणं अज्जाणं अन्तिए अज्जा भवित्ता अगाराम्रो [जाव] पव्वइत्तए" एवं संपेहेइ / २त्ता जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागया, करयल [जाब] एवं वयासी-"एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया ! तुभेहिं सद्धि बहूई वासाई विउलाई भोगभोगाइं [जाव] विहरामि, नो चेव णं वारगं वा दारियं वा पयायामि / तं इच्छामि णं, देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अणुनाया समाणी सुव्वयाणं अज्जाणं [जाव] पब्वइत्तए"। [36] इसके बाद उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्यरात्रि के समय कौटुम्बिक स्थिति पर विचार करते हुए इस प्रकार का प्रान्तरिक मनःसंकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने अभी तक एक भी दारक या दारिका को जन्म नहीं दिया है। अतएव मुझे यह उचित है कि मैं कल यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर भद्र सार्थवाह से अनुमति लेकर सुव्रता प्रायिका के पास गृह त्यागकर यावत् प्रवजित हो जाऊँ। उसने इस प्रकार का संकल्प किया-विचार किया। विचार करके जहाँ भद्र सार्थवाह था, वहाँ आई। आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय बिता रही हूँ, किन्तु एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। अब मैं आप देवानुप्रिय की अनुमति प्राप्त करके सुव्रता प्रायिका के पास यावत् प्रवजित-दीक्षित होना चाहती हैं। 37. तए णं से भद्दे सत्यवाहे सुभई सत्थवाहिं एवं वयासी Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पिका "मा णं तुमं देवाणुप्पिए, मुण्डा [जाव] पध्वयाहि / मुजाहि ताव देवाणुप्पिए, मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्ययाणं अज्जाणं [जाव] पव्वयाहि"। तए णं सुभद्दा सस्थवाही मद्दस्स एयम8 नो परियाणइ / दोच्चं पि तच्चं पि सुभद्दा सत्थवाही मई सत्यवाहं एवं वयासी-"इच्छामि गं देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अन्भणुनाया समाणी [जाव] पव्वइत्तए।" तए णं से भद्दे सत्थवाहे, जाहे नो संचाएइ बहूहि आघवणाहि य, एवं पनवणाहि य सन्नवणाहि य विनवणाहि य माघवित्तए वा [जाव] पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा विन्नवित्तए वा, ताहे अकामए चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमन्नित्था। [37] तब भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा देवानुप्रिये ! तुम अभी मुंडित होकर यावत् गृहत्याग करके प्रवजित मत होओ, मेरे साथ विपुल भोगोपभोगों का भोग करो और भोगों को भोगने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुण्डित होकर यावत् गृह त्याग कर अनगार प्रव्रज्या अंगीकार करना। भद्र सार्थवाह के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह के वचनों का आदर नहीं किया- उन्हें स्वीकार नहीं किया। दूसरी बार और फिर तीसरी बार भी सुभद्रा सार्थवाही ने भद्र सार्थवाह से यही कहा–देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा-अनुमति लेकर मैं सुव्रता आर्या के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। जब भद्र सार्थवाह अनुकूल और प्रतिकूल बहुत सी युक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों से उसे समभाने-बुझाने, संबोधित करने और मनाने में समर्थ नहीं हुआ तब इच्छा न होने पर भी लाचार होकर सुभद्रा को दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। दीक्षाग्रहण ____तए णं से भद्दे सस्थवाहे विउलं असणं 4 उबक्खडावेइ / मित्तनाइ० तओ पच्छा भोयण वेलाए [जाव] मित्तनाइ सक्कारेइ संमाणेइ / सुभदं सत्थवाहिं व्हायं [जाव] पायच्छित्तं सम्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुलहेइ / तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तनाइ[जाव] संबन्धिसंपरिबुडा सविड्ढीए [जाध] रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झमझेणं जेणेव सुम्बयाणं प्रज्जाणं उवस्सए, तेणेव उवागच्छद, 2 ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ, सुभई सस्थवाहि सोयाओ पच्चोरहेइ। तए णं भद्दे सत्थवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुध्वया अज्जा, तेणेव उवागच्छइ, २त्ता सुब्वयाओ प्रज्जाओ वन्दह नमसइ, 2 ता एवं क्यासी "एवं खलु, देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्थवाही ममं मारिया इट्ठा कन्ता, [जाव] मा णं वाइया पित्तिया सिम्भिया संनिवाइया विविहा रोयातङ्का फुसन्तु / एस णं, देवाणुप्पिया! संसारभउन्विग्गा, भीया जम्ममरणाणं, देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डा भवित्ता [जाव] पव्वयाइ / तं एवं अहं Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्य अध्ययन] [75 देवाणुप्पियाणं सीसिणिमिक्खंदलयामि / पडिच्छन्तु णं, देवाणुप्पिया ! सोसिणिमिखं / "अहासुह, देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह / " [38] तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह ने विपुल परिमाण में अशन-पान-खादिम-स्वादिम भोजन तयार करवाया और अपने सभी मित्रों, जातिबोधवों, स्वजनों, संबन्धी-परिचितों को आमंत्रित किया। उन्हें भोजन कराया यावत् उन मित्रों आदि का सत्कार-सम्मान किया। फिर स्नान की हुई, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त आदि से युक्त, सभी अलंकारों से विभूषित सुभद्रा सार्थवाही को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने योग्य पालकी में बैठाया और उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र-ज्ञातिजन, स्वजन-संबन्धी परिजनों के साथ भव्य ऋद्धि-वैभव यावत् भेरी आदि वाद्यों के घोष के साथ वाराणसी नगरी के बीचों-बीच से होती हुई जहाँ सुव्रता आर्या का उपाश्रय था वहाँ आई / आकर उस पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी को रोका और पालकी से उतरी। तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके सुबता आर्या के पास पाया और आकर उसने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-तमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया 'देवानुप्रिये! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यन्त इष्ट और कान्त है यावत् इसको वातपित्त-कफ और सन्निपातजन्य विविध रोग-आतंक आदि स्पर्श न कर सकें. इसके लि करता रहा / लेकिन हे देवानुप्रिये ! अब यह संसार के भय से उद्विग्न होकर एवं जन्म-स्मरण से भयभीत होकर आप देवानुप्रिया के पास मुंडित होकर यावत् प्रवजित होने के लिए तत्पर है / इसलिए हे देवानुप्रिये ! मैं आपको यह शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ। आप देवानुप्रिया इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें।' भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें अनुकूल प्रतीत हो, वैसा करो, किन्तु इस मांगलिक कार्य में विलम्ब मत करो। ___39. तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही सुन्वयाहिं अज्जाहि एवं बुत्ता समाणी हट्ठा० सयमेव प्राभरणमल्लालंकारं ओमुयाह, 2 ता सयमेव पञ्चमुट्ठियं लोयं करेइ, 2 ता जेणेव सुन्वयाओ अज्जाश्रो, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणफ्याहिणेणं वन्दइ नमसइ, 2 त्ता एवं वयासी आलित्ते णं भन्ते ! लोए, पलित्तेणं भंते ! लोए, आलित्त-पलित्तणं भंते ! लोए जराए मरणे णय जहा देवाणन्दा तहा पवइया [जाव] अज्जा जाया गुत्तबम्भयारिणी // सुव्रता आर्या के इस कथन को सुनकर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसने (एक ओर जाकर) स्वयमेव अपने हाथों से वस्त्र, माला और आभूषणों को उतारा / पंचमुष्टिक लोंच किया फिर जहाँ सव्रता प्रार्या थी. वहाँ पाई। प्राकर तीन बार आदक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर प्रद वन्दन-नमस्कार किया। बन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोली Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पिका यह संसार आदीप्त है-जन्म-जरा-मरण रूप आग से जल रहा है, प्रदीप्त है-धधक रहा है यह आदीप्त और प्रदीप्त है, (अतएव जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह धर जल रहा हो तब वह उस जलते हुए धर में से बहुमूल्य और अल्पभार वाली वस्तुओं को निकाल लेता है और सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार मैं अपनी आत्मा को, जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, संमत, अनुमत है, जिसे शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा (भूख-प्यास), चोर, सर्प, सिंह, डांस-मच्छर तथा वात-पित्त-कफ जन्य रोग आदि, परिषह, उपसर्ग प्रादि किसी प्रकार की हानि न पहुंचा सकें, इस प्रकार सुरक्षित रक्खा है,) इत्यादि कहते हुए देवानदा के समान वह उन सूव्रता प्रवजित हो गई और पांच समितियों एवं तीन गुप्तियों से युक्त होकर इन्द्रियों का निग्रह करने वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी प्रार्या हो गई। विवेचन--भगवती सूत्र के शतक : उद्देश 33 में देवानन्दा का चरित्र निरूपित किया गया है। देवानन्दा भगवान् महावीर से दीक्षित हुई थी। पहले भगवान् 83 रात्रि देवानन्दा के गर्भ में रहे थे / अतः यह जानकर उस को वैराग्य हुआ / सुमद्रा प्रार्या की अनुरागवृत्ति 40. तए णं सा सुभद्दा अज्जा अन्नया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे संमुच्छिया [जाय] अज्झोववन्ना अभङ्गणं च उव्वट्टणं च फासुयपाणं च अलत्तगं च कङ्कणाणि य अञ्जणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्लणगाणि य खज्जल्लगाणि य खोरं च पुष्पाणि य गवेसइ, गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा कुमारे य कुमारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य, अप्पेगइयानो अम्मङ्गइ, अप्पेगइयाओ उठवट्टइ, एवं अप्पेगइयाओ फासुयपाणएणं व्हावेइ, पाए रयइ, प्रो? रयइ, अच्छीणी अजेइ, उसुए करेइ, तिलए करेइ, दिगिदलए करेइ, पन्तियाओ करेइ, छिज्जावई खज्जुकरेइ, वण्णएणं समालभइ, चुण्णएणं समालभइ, खेल्लणगाई दलयइ, खज्जलगाई, दलयइ. खीरभोयणं भुजावेइ, पुप्फाई ओमुयइ, पाएसु ठवेइ, जंघासु करेइ, एवं उरूसु उच्छङगे कडीए पिढे उरसि खन्धे सीसे य करयलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी 2 आगायमाणी 2 परिगायमाणी 2 पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च नत्तुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ / / [40] इसके बाद सुभद्रा ग्रार्या किसी समय गृहस्थों के बालक-बालिकाओं में मूच्छित आसक्त हो गई-उन पर अनुराग-स्नेह करने लगी यावत् प्रासक्त होकर उन बालक बालिकाओं के लिए अभ्यंगन, शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन, पीने के लिए प्रासुक जल, उन बच्चों के हाथ-पर रंगने के लिए मेंहदी आदि रंजक द्रव्य, कंकण---हाथों में पहनने के कड़े, अंजन-काजल आदि, वर्णक-चंदन आदि, चूर्णक-सुगन्धित द्रव्य (पाउडर), खेलनक-खिलौने, खाने के लिए खाजे आदि मिष्टान्न, खीर, दूध और पुष्प-माला प्रादि की गवेषणा करने लगी। गवेषणा करके उन गहस्थों के दारक-दारिकाओं, कुमार-कुमारिकाओं, बच्चे-बच्चियों में से किसी की तेल मालिश करती, किसी को उबटन लगाती, इसी प्रकार किसी को प्रासुक जल से स्नान कराती, किसी के पैरों को रंगती, अोठों को रंगती, किसी की आँखों में काजल प्रांजती, ललाट पर तिलक लगाती, केशर का तिलक-विन्दी लगाती, किसी बालक को हिंडोले में झुलाती तथा किसी-किसी को पंक्ति में खडा करती, फिर उन पंक्ति में खड़े बच्चों को अलग-अलग खड़ा करती, किसी के शरीर में Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3: चतुर्थ अध्ययन] चंदन लगाती, तो किसी को शरीर में सुगन्धित चूर्ण लगाती। किसी को खिलौने देती, किसी को खाने के लिए खाजे आदि मिष्ठान्न देती, किसी को दूध पिलाती, किसी के कंठ में पहनी हुई पुष्प माला को उतारती, किसी को पैरों पर बैठाती तो किसी को जांघों पर बैठाती। किसी को टांगों पर, किसी को गोदी में, किसी को कमर पर, पीठ पर, छाती पर, कन्धों पर, मस्तक पर बैठाती और हथेलियों में लेकर हुल राती-दुलराती, लोरियां गाती हुई, उच्च स्तर में गाती हुई-पुचकारती 'हुई पुत्र की लालसा, पुत्री की वांछा, पोते-पोतियों की लालसा (की पूर्ति) का अनुभव करतो हुई अपना समय बिताने लगी। सुभद्रा का पृथंक आवास 41. तए णं ताओ सुब्वयाओ अज्जाम्रो सुभद्रं अज्जं एवं क्यासी--"अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गन्थोमो इरियासमियानो [जाव] गुत्तबम्भयारिणीओ / नो खलु अम्हें कप्पड़ जातककम्मं करेत्तए / तुमं च णं देवाणुप्पिए ! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया [जाव] अज्झोववन्ना अभङ्गणं [जाव] नत्तिपिवासं वा पच्चणभवमाणी विहरसि / तं गं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि [जाव] पायच्छित्तं पडिवजाहि / / " [41] उसकी ऐसी वृत्ति-आचारप्रवृत्ति देखकर सुव्रता प्रार्या ने सुभद्रा प्रार्या से कहादेवानुप्रिये ! हम लोग संसार-विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थी श्रमणी हैं / अतएव हमें बालकों का लालन-पालन, बालक्रीड़ा आदि करना-कराना नहीं कल्पता है / लेकिन देवानुप्रिये ! तुम गृहस्थों के बालकों में मूच्छित प्रासक्त यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगन-मालिश आदि करने रूप अकल्पनीय कार्य करती हो यावत् पुत्रपौत्र आदि की लालसापूर्ति का अनुभव करती हो। अतएव देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान-अकल्पनीय कार्य की प्रालोचना करो यावत् प्रायश्चित्त लो। 42. तए णं सा सुभद्दा अज्जा सुव्बयाणं अज्जाणं एयम नो आढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ / तए णं ताओ समणीनो निग्गन्थीयो सुभदं अज्ज होलेन्ति, निन्वन्ति, खिसन्ति, गरहन्ति, अभिवखणं 2 एयमटुं निवारेन्ति / / प्रार्या द्वारा इस प्रकार से अकल्पनीय कार्यों से रोकने के लिए समझाए जाने पर भी सुभद्रा प्रार्या ने उन सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया-कथन पर ध्यान नहीं दिया किन्तु उपेक्षा-पूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् बाल-मनोरंजन करती रही। __ तब निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ इस अयोग्य कार्य के लिए सुभद्रा आर्या की हीलना (तिरस्कार) करतीं, निन्दा करतीं, खिसा करतीं-उपालंभ देतीं, गर्दी करती-भर्त्सना करतीं और ऐसा करने से उसे बार-बार रोकतीं। 43. तए णं तीए सुभद्दाए अज्जाए समणीहिं निग्गन्थोहि होलिज्जमाणीए [जाय] अभिवखणं 2 एयमटुं निवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अजास्थिए [जाव] समुप्पज्जित्या-जया णं प्रहं अगारवासं Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [कल्पिका वसामि, तया णं अहं अप्यवसा, जप्पमिदं च णं अहं मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पमिइंच णं अहं परवसा पुचि च समणीओ निग्गन्थीओ आन्ति, परिजाणेन्ति, इयाणि नो आढाएन्ति नो परिजाणन्ति, तं सेयं खलु मे कल्लं [जाव] जलन्ते सुब्बयाणं अज्जाणं अन्तियानो पडिनिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं [जाव] जलन्ते सुब्बयाणं अजाणं अन्तियाओ पडिनिक्खमइ, पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरह / तए णं सा सुभद्दा मज्जा अज्जाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया [जाव] अमङ्गणं च [जाव] नत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ // [43] उन सुव्रता प्रादि निग्रन्थ श्रमणो पार्यायां द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से हीलना आदि किए जाने और बार-बार रोकने-निवारण करने पर उस सुभद्रा प्रार्या को इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् मानसिक विचार उत्पन्न हुमा--'जब मैं अपने घर में थो तब मैं स्वाधीन थी, लेकिन जब से मैं मुडित होकर गृह त्याग कर आनगारिक प्रव्रज्या से प्रवजित हुई हूँ, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। पहले जो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ मेरा अादर करतो थों, मेरे साथ प्रेम-पूर्वक पालाप-संलाप, व्यवहार करती थीं, वे आज न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम से बोलती हैं। इसलिए मुझे कल (आगामी दिन) प्रातःकाल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर इन सुव्रता आर्या से अलग होकर, पृथक् उपाश्रय में जाकर रहना उचित है।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया। इस प्रकार का संकल्प करके दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर सुव्रता आर्या को छोड़कर वह (सुभद्रा प्रार्या) निकल गई और अलग उपाश्रय में जाकर अकेली ही रहने लगी। ___ तत्पश्चात् वह सुभद्रा प्रार्या, आर्यानों द्वारा नहीं रोके जाने से निरंकुश और स्वच्छन्दमति होकर गृहस्थों के बालकों में आसक्त अनुरक्त होकर यावत्-उनकी तेल-मालिश आदि करती हुई पुत्र-पौत्रादि को लालसापूर्ति का अनुभव करती हुई समय बिताने लगी। बहुपुत्रिका देवी रूप में उत्पत्ति 44. तए णं सा सुभद्दा पासस्था पासस्थविहारी प्रोसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाछन्दा अहाछन्दविहारी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणई, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं "तीसं भत्ताई अणसणेणं छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसन्तरिया अङ्ग लस्स असंखेज्जभागमेताए प्रोगाहणाए बहुपुत्तियदेविताए उबवन्ना / तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमत्ता समाणी पञ्चविहाए पज्जत्तीए "[जाव] भासामणपज्जत्तीए। एवं खलु गोयमा! 'बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्या देविड्डी [जाव] अमिसमन्नागया। [44] तदनन्तर वह सुभद्रा पासस्था-शिथिलाचारी, पासस्थविहारी, अवसन्न (खंडित व्रत वाली) अवसनविहारी, कुशील (आचारभ्रष्ट) कुशीलविहारी, संसक्त (गृहस्थों से संपर्क रखने Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्य अध्ययन] नत्रिका वाली) संसक्तविहारी और स्वच्छन्द (निरंकुश) तथा स्वच्छन्दविहारी हो गई। उसने बहुत वर्षों तक श्रमणी-पर्याय का पालन किया / पालन करके वह अर्धमासिक संलेखना द्वारा आत्मा को परिशोधित कर, अनशन द्वारा तीस भोजनों को छोड़कर और अकरणीय पाप-स्थान--सावद्य कार्यों की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही मरण के समय मरण करके सौधर्मकल्प के विमान की उपपातसभा में देवदूष्य से आच्छादित देवशैया पर अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अवगाहना से बहुपुत्रिका देवी के रूप में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् उत्पन्न होते ही वह बहुपुत्रिका देवी भाषा-मनःपर्याप्ति आदि पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त होकर देवी रूप में रहने लगी। गौतम ! इस प्रकार बहुपुत्रिका देवी ने वह दिव्य देव-ऋद्धि एवं देवद्युति प्राप्त की है यावत् उसके सन्मुख आई है। गौतम को पुनः जिज्ञासा 45. 'से केण?णं, भन्ते ! एवं वुच्चइ बहुपुत्तिया देवी बहुपुत्तिया देवी ?' 'गोयमा, बहुपुत्तिया णं देवी जाहे जाहे सक्कस्स देविन्वस्स देवरन्नो उत्थाणियणं बरेइ, ताहे ताहे बहवे दारए य वारियाओ य डिम्मए य रिम्भियारो य विउध्वइ, 2 ता सक्के देविन्दे देवराया. तेणेव उवागच्छइ 2 ता सक्कस्स देविन्दस्स देवरन्नो दिव्वं देविष्टि दिव्व देवज्जुइं दिव्वं देवाणभावं उपदंसेइ / से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ बहुपुत्तिया देवो 2' 'बहुपुत्तियाणं भन्ते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?' 'गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता।' 'बहुपुत्तिया णं भन्ते, देवी ताओ देवलोगाओ पाउखएणं ठिइक्खएणं भवक्खएण' अणन्तरं चयं चहत्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उववज्जिहिइ ?' 'गोयमा ! इहेब जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे विमगिरिपायमूले विभेलसंनिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पच्चामाहिइ / ' तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीइक्कन्ते जाव बारसेहि दिवसेहि वीइक्कन्तेहि अयमेयारूवं नामधेज्ज करेन्ति-'होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेज्जं सोमा'। [45] तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने पुन: भगवान् से पूछा-'भदन्त ! किस कारण से बहुपुत्रिका देवी को बहुपुत्रिका कहते हैं ?' भगवान ने उत्तर दिया-'गौतम ! जब-जब वह बहुपुत्रिका देवी देवेन्द्र देवराज शक्र के पास जाती तब-तब वह बहुत से बालक-बालिकाओं, बच्चे-बच्चियों की विकुर्वणा करती। विकुर्वणा करके जहाँ देवेन्द्र -देवराज शक्र आसीन होते, वहां जाती। जाकर उन देवेन्द्र देवराज शक्र के समक्ष अपनी दिव्य देवऋदि, दिव्य देवद्युति एवं दिव्य देवानुभाव-प्रभाव को प्रदर्शित Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [कल्पिका करती / इसी कारण हे गौतम ! वह बहुपुत्रिका देवी 'बहुपुत्रिका' कहलातो है अथवा उसे 'बहुपुत्रिका देवी' कहते हैं / गौतम स्वामी—'भदन्त ! बहुपुत्रिका देवी की स्थिति कितने काल की है ?' भगवान्–'गौतम ! बहुपुत्रिका देवी को स्थिति चार पल्योपम की है।' गौतम–'भगवन् ! आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर बहुपुत्रिका देवी उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ?' भगवान् –'गौतम ! आयुक्षय आदि के अनन्तर बहुपुत्रिका देवी इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बसे विभेल सन्निवेश में ब्राह्मणकुल में बालिका रूप में उत्पन्न होगी। उस बालिका के माता-पिता ग्यारह दिन बीतने पर यावत् बारहवें दिन इस प्रकार का नामकरण करेंगे हमारी इस बालिका का नाम सोमा हो, अर्थात् वे अपनी बालिका का नाम सोमा रखेंगे / सोमा की युवावस्था 46. तए णं सोमा उम्मुक्कबालभावा विन्नयपरिणयमेत्ता जोवणगमणुपत्ता रूवेण य जोवणेण य लावणेण य उक्किट्ठा उक्किटुसरीरा जाब भविस्सइ / तए णं तं सोमं वारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं विन्नयपरिणयमेतं जोवणगमणुप्पत्तं पडिकूविएणं सुक्केणं पडिरूबएणं नियगस्स भाइणेज्जस्स रटकूडस्स मारियत्ताए दलइस्सइ / __ साणं तस्स भारिया भविस्सइ इट्ठा कन्ता जाव भण्डकरण्डगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिहिया रयणकरण्डगो विव सुसारक्खिया सुसंगोविया, मा गं सीयं [जाव] उण्हं... वाइया पित्तिया सम्भिया संन्निवाइया विविहा रोयातङ्का फुसन्तु / [46] तत्पश्चात् वह सोमा बाल्यावस्था से मुक्त होकर, सज्ञानदशापन्न होकर युवावस्था आने पर रूप, यौवन एवं लावण्य से अत्यन्त उत्तम एवं उत्कृष्ट शरीर वाली हो जाएगी। तब माता-पिता उस सोमा बालिका को बाल्यावस्था को पार कर विषय-सख से अभिज्ञ एवं यौवनवस्था में प्रविष्ट जानकर यथायोग्य गृहस्थोपयोगी उपकरणों, धन-ग्राभूषणों और संपत्ति के साथ अपने भानजे राष्ट्रकूट को भार्या के रूप में देंगे अर्थात् राष्ट्रकूट से उसका विवाह कर देंगे। - वह सोमा उस राष्ट्रकूट की इष्ट, कान्त (वल्लभा) भार्या होगी यावत् वह सोमा की भाण्डकरण्डक (प्राभूषणों की पेटी) के समान, तेलकेल्ला (तैलपात्र या इत्रदान) के समान यत्नपूर्वक सुरक्षा करेगा, वस्त्रों के पिटारे के समान उसकी भलीभांति देखभाल करेगा, रत्नकरण्डक के समान उसकी सरक्षा का ध्यान रखेगा और उसको शीत, उष्ण, वात, पित्त, कफ एवं सन्निपातजन्य रोग और प्रातंक स्पर्श न कर सकें, इस प्रकार से सर्वदा चेष्टा करता रहेगा। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] [81 सोमा द्वारा बहुसंतान-प्रसव 47. तए णं सा सोमा माहणी रटुकडेणं सद्धि विउलाइं भोगभोगाइं भुञ्जमाणी संवच्छरे 2 जुयलगं पयायमाणी, सोलसेहिं संवच्छरेहि बत्तोसं दारगरूवे पयाइ। तए णं सोमा माहणी तेहि बाहिं दारगेहि य वारियाहि य कुमारेहि य कुमारियाहि य डिम्भएहि य डिम्भियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहि थणियाएहि य, अप्पेगइएहि पोहगपाहि, अप्पेगइएहि परंगणएहि, अप्पेगइएहि परक्कममाहि, अप्पेगहएहिं पक्खोलणएहि अप्पेगइएहि थणं मग्गमाणेहि, अप्पेगइएहि खीरं भग्गमाणेहि अप्पेगइएहि खेल्लणयं मग्गमाहिं, अप्पेगइएहिं खज्जगं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहि कर मग्गमाहि, पाणियं मग्गमाणेहि हसमाहिं रूसमाहि अक्कोसमाहिं अक्कुस्समाणेहि हणमाहिं विष्पलायमाणेहि अणुगम्ममाणेहि रोवमाहि कन्दमाणेहि विलवमाहि कूधमाहिं उक्कूवमाणेहि निद्धायमाणेहि पलंवमाहि वहमाणेहि देसमाणेहि वममाणेहि छेरमाणेहि मुत्तमाहि मुत्तपुरीसघमियसुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुच्चड़ा जाय असुइबीभच्छा परमदुग्गन्धा नो संचाएह रटकूडेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भञ्जमाणी विहरित्तए / [47] तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगती हुई प्रत्येक वर्ष एक युगल संतान को जन्म देकर सोलह वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव करेगी / तब वह सोमा ब्राह्मणी उन बहुत से दारक-दारिकाओं, कुमार-कुमारिकाओं और बच्चे-बच्चियों में से किसी के उत्तान (उन्मुख-सिर की ओर पैर करके) शयन करने से--सोने से, किसी के चीखने-चिल्लाने से, किसी को जन्म-धूंटी आदि दवाई पिलाने से, किसी के घुटने-घुटने चलने से, किसी के पैरों खड़े होने में प्रवृत्त होने से, किसी के चलते-चलते गिर जाने से, किसी के स्तन को टटोलने से, किसी के दूध मांगने से, किसी के खिलौना मांगने से, किसी के खाजा आदि मिठाई मांगने से, किसी के कूर (भात) मांगने से, इसी प्रकार किसी के पानी मांगने से, किसी के हँसने से, रूठ जाने से, गुस्सा करने से—कटु वचन कहने से, झगड़ने से, आपस में मारपीट करने से, मारकर भाग जाने से, किंसी के उसका पीछा करने से, किसी के रोने से, किसी के प्राक्रंदन करने से, विलाप करने से, छीना-झपटी करने से, किसी के कराहने से, किसी के ऊंघने से, किसी के प्रलाप करने से, किसी के पेशाब आदि करने से, किसी के उलटी-के कर देने से, किसी के छेरने (चिरकने) से, किसी के मूतने से, सदैव उन बच्चों के मल-मूत्र वमन से लिपटे शरीर वाली तथा मैले कुचैले कपड़ों से कांतिहीन यावत् अशुचि से सनी हुई होने से, देखने में बीभत्स और अत्यन्त दुर्गन्धित होने के कारण राष्ट्रकूट के साथ विपुल कामभोगों को भोगने में समर्थ नहीं हो सकेगी। सोमा का विचार 48. तए णं तोसे सोमाए माहणीए अन्नया कयाइ पुन्धरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु अहं इमेहि बहिं दारगेहि य [जाव] डिम्मियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य [जाव] अप्पेगइएहि मुत्तमाणेहि दुज्जाएहि दुज्जम्मपहि हविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहि जाणं मुत्तपुरीसमियसुलित्तोवलित्ता जाव परमदुनिभगन्धा नो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [कल्पिका संचाएमि रटुकडेणं सद्धि जाव भुजमाणी विहरित्तए। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ [जाव] जीवियफले जानो णं वझाओ प्रवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरभिसुगन्धगन्धियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भञ्जमाणीओ विहरन्ति / अहं णं प्रधन्ना अपुष्णा अकयपुण्णा नो संचाएमि रटकूडेणं सद्धि विउलाई जाव विहरित्तए' / [48] ऐसी अवस्था में किसी समय रात को पिछले प्रहर में अपनी और अपने कुटुम्ब की स्थिति पर विचार करते हुए उस सोमा ब्राह्मणी को इस प्रकार का विचार उत्पन्न होगा- 'मैं इन बहुत से प्रभागे, दुःखदायी एक साथ थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए छोटे-बड़े और नवजात बहुत से दारक-दारिकाओं यावत् बच्चे-बच्चियों में से कोई सिर की ओर पैर करके सोने यावत् पेशाब आदि करने से, उनके मल-मूत्र-वमन आदि से लिपटी रहने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धमयी होने से राष्ट्रकूट के साथ भोगों का अनुभव नहीं कर पा रही हूँ। वे माताएँ धन्य हैं यावत् उन्होंने मनुष्यजन्म और जीवन का सफल पाया है, जो बंध्या हैं, प्रजननशीला नहीं होने से जान-कपर की माता होकर सुरभि सुगंध से सुवासित होकर विपुल मनुष्य संबन्धी भोगोपभोगों को भोगती हुई समय बिताती हैं। लेकिन मैं ऐसी अधन्य, पुण्यहीन, निर्भागी हूँ कि राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को नहीं भोग पाती हूँ। सुव्रता आर्या का आगमन 49. तेणं कालेणं तेणं समयेणं सुय्ययाओ नाम प्रज्जाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुग्वाणुपुर्दिय....."जेणेव विभेले संनिवेसे.....अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरन्ति / तए णं तासि सुब्बयाणं अज्जाणं एगे संघाडए विभेले संनिवेसे उच्चनीयमजिसमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए प्रडमाणे रटुकूडस्स गिहं अणुपविठे। तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, 2 सा हटु० खिप्पामेव आसणाम्रो अरुभुठेह, 2 ता सत्तट्ठ पयाई प्रणुगच्छद, 2 ता वन्दइ, नमसइ, 2 ता विउलेणं असण 4 पडिलाभेत्ता एवं क्यासी एवं खलु अहं अज्जासो! रटुकडेणं सद्धि विउलाई जाव संवच्छरे 2 जुगलं पयामि, सोलसहि संवच्छरेहि बत्तीसं दारगरूवे पयाया। तए णं अहं तेहिं बहूहि दारएहि य जाव डिम्मियाहि य अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहिं जाव मुत्तमाहिं दुज्जाएहि जाव नो संचाएमि......"विहरित्तए / तं इच्छामि णं अहं अज्जाओ ! तुम्हं अन्तिए धम्म निसामेत्तए"। तए णं तानो प्रज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं [जाव] केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहेन्ति / [46] सोमा ने जब ऐसा विचार किया कि उस काल और उसी समय ईर्या प्रादि समितिओं से युक्त यावत् बहुत सी साध्वियों के साथ सुव्रता नाम की आर्याएँ पूर्वानुपूर्वी क्रम से गमन करती हुई उस विभेल सन्निवेश में पाएँगी और अनगारोचित अवग्रह लेकर स्थित होंगी। तदनन्तर उन सुव्रता प्रार्याओं का एक संघाड़ा (समुदाय) विभेल सन्निवेश के उच्च, सामान्य और मध्यम परिवारों में ग्रहसमुदानी भिक्षा के लिए घूमता हुआ राष्ट्रकूट के घर में प्रवेश करेगा। तब वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को आते देखकर हर्षित और संतुष्ट होगी / संतुष्ट होकर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन शीघ्र ही अपने आसन से उठेगी, उठकर सात-पाठ डग उनके सामने आएगी। आकर बंदन-नमस्कार करेगी और फिर विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन से प्रतिलाभित करके इस प्रकार कहेगी----'पार्यायो ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए यावत् मैंने प्रतिवर्ष बालक-युगलों (दो बालकों) को जन्म देकर सोलह वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव किया है। जिससे मैं उन दुर्जन्मा बहुत से बालक-बालिकाओं यावत् बच्चे-बच्चियों में से किसी के उत्तान शयन यावत् मूत्र त्यागने से उन बच्चों के मल-मूत्र-वमन आदि से सनी होने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धित शरीर वाली हो राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोग नहीं भोग पाती हूँ / पार्यायो ! मैं पाप से धर्म सुनना चाहती हूँ। सोमा के इस निवेदन को सुनकर वे आर्याएँ सोमा ब्राह्मणी को विविध प्रकार के यावत् केलिप्ररूपित धर्म का उपदेश सुनाएंगी। सोमा का श्रावकधर्म-ग्रहण 50. तए णं सा सोमा माहणी तासि अज्जाणं अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियया ताओ अज्जाओ बन्दइ, नमसइ, 2 एवं क्यासी-"सहहामि गं, अज्जाओ, निग्गन्थं पाययणं, जाव अम्भुट्ठमि गं अज्जाओ! निग्गन्थं पावयणं, एवमेयं अज्जाओ! जाव से जहेयं तुझे वयह / जं नवरं, अज्जाओ, रटुकडं आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अन्तिए [जाव] मुण्डा पन्वयामि"। "अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबन्धं... ..." / तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वन्दइ, नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ / [50] तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी उन प्रायिकाओं से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में धारण कर हर्षित और संतुष्ट-यावत् विकसितहृदयपूर्वक उन प्रार्यानों को वंदन-नमस्कार करेगी। वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार कहेगी हे आर्यायो ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ। आर्यायो ! निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी प्रकार का है यावत् जैसा आपने प्रतिपादन किया है / किन्तु मैं राष्ट्रकूट से पूछूगी / तत्पश्चात् आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रवजित होऊंगी। ___ इस पर प्रार्याओं ने सोमा ब्राह्मणी से कहा-देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो। - इसके बाद सोमा माहणी उन आर्याओं को वंदन-नमस्कार करेगी और वंदन-नमस्कार करके विदा करेगी। सोमा का राष्ट्रकूट से दीक्षा के लिए पूछना 51. तए णं सा सोमा माहणी जेणेव रटुकडे तेणेव उवागया करयल...." एवं वयासी'एवं खलु भए देवाणुप्पिया, अज्जाणं अन्तिए धम्मे निसन्ते / से वि य णं धम्मे इच्छिए [जाव] अभिरुइए / तए णं अहं, देवाणुप्पिया, तुम्भेहि अब्मणुनाया सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पवइत्तए'। तए णं से रटुडे सोमं माणि एवं क्यासी-“मा णं तुम देवाणुप्पिए ! इयाणि मुण्डा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [कल्पिका भवित्ता [जाव] पन्वयाहि / भुजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई, तओ पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं अन्तिए मुण्डा [जाव] पम्वयाहि"। तए णं सा सोमा माहणी व्हाया [जाव] सरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाम्रो पडिनिक्खमइ, 2 ता विभेलं संनिवेसं मझमझेणं जेणेव सुब्बयाणं अज्जाणं उवस्सए, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता सुव्वयानो प्रज्जाओ वन्दइ, नमसइ, पज्जुवासइ / तए णं तानो सुब्धयाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहेन्ति जहा जीवा बज्झन्ति / तए णं सा सोमा माहणी सुध्वयाणं अज्जाणं अन्तिए [जाव] दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ। सुक्याओ अज्जाबो वंदइ, नमसइ, 2 ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया / तए णं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपाया आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसला असहिज्जा देवासुरनागसुवण्णरक्खसकिनरकिपुरिसगरुलगन्धब्वमहोरगाईहिं देवगणेहि निग्गन्थानो पावयणाओ प्रणइक्कमणिज्जा निग्गंथे पावयणे निस्संकिपा निक्कंखिया निग्वितिगिच्छा लद्धट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा अहिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठिमिजम्माणुरागरत्ता अयमाउसो निग्गंथे पावणे अट्ठे अयं परमठे सेसे प्रणळे, ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तन्तेउरघरप्पवेसा चाउद्दसट्ठमुद्दिष्ट-पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्गथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पोडफलगसेज्जासंथारेणं बस्थपडिग्गहकंबलपायपुञ्छणेणं भोसहभेसज्जेणं पडिलाभेमाणा पडिलाभेमाणा बहूहि सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहि य अप्पाणं भावमाणी विहरइ। तए णं ताओ सुब्वयाओ प्रज्जाओ अन्नया कयाइ विभेलाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमन्ति, 2 त्ता बहिया जणवयविहारं विहरति / [51] तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकट के निकट जाकर दोनों हाथ जोड़ आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहेगी-देवानुप्रिय ! मैंने आर्याओं से धर्मश्रवण किया है और वह धर्म मुझे इच्छित-प्रिय है यावत् रुचिकर लगा है। इसलिए देवानुप्रिय ! आपकी अनुमति लेकर मैं सुव्रता आर्या से प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तब राष्ट्रकूट सोमा ब्राह्मणी से कहेगा–देवानुप्रिये ! अभी तुम मुंडित होकर यावत् घर छोड़कर प्रवजित मत होओ किन्तु देवानुप्रिये ! अभी तुम मेरे साथ विपुल कामभोगों का उपभोग करो और भुक्तभोगी होने के पश्चात् सुव्रता आर्या के पास मुडित होकर यावत् गृहत्याग कर प्रवजित होना। राष्ट्रकूट के इस सुझाव को मानने के पश्चात् सोमा ब्राह्मणी स्नान कर, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त कर यावत प्राभरण-अलंकारों से अलंकृत होकर दासियों के समूह से घिरी हई अपने घर से निकलेगी। निकलकर विभेल सन्निवेश के मध्यभाग को पार करती हुई सुव्रता आर्याओं के उपाश्रय में आएगी / पाकर सुव्रता आर्यात्रों को वंदन-नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करेगी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन [85 तत्पश्चात वे सुव्रता आर्या उस सोमा ब्राह्मणी को 'कर्म से जीव बद्ध होते हैं-संसार में परिभ्रमण करते हैं' इत्यादिरूप विचित्र केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश देंगी / तब वह सोमा ब्राह्मणी उन सुव्रता आर्या से बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी और फिर सुव्रता आर्या को वंदन-नमस्कार करेगी। बंदन-नमस्कार करके जिस दिशा से आई थी बापिस उसी ओर लौट जाएगी। ___ तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका (श्राविका) हो जाएगी / तब वह जीव-अजीव पदार्थों के स्वरूप की ज्ञाता, पूण्य-पाप के भेद की जानकार, प्रास्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-अधिकरण (सावद्य प्रवृत्ति करने के मूल कारण) तथा बंध-मोक्ष के स्वरूप को समझने में निष्णात कुशल, परतीथियों के कुतों का खण्डन करने में स्वयं समर्थ (दूसरों को सहायता की अपेक्षा न रखने वाली) होगी। देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवता भी उसे निर्ग्रन्थप्रवचन से विचलित नहीं कर सकेंगे। निर्ग्रन्थप्रवचन पर शंका आदि अविचारों से रहित श्रद्धा करेगी। प्रात्मोत्थान के सिवाय अन्य कार्यों में उसकी आकांक्षा-अभिलाषा नहीं रहेगी अथवा अन्य मतों के प्रति उसका लगाव नहीं रहेगा / धार्मिक-प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्राशय के प्रति उसे संशय नहीं रहेगा। लब्धार्थ (गुरुजनों से यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त करना) गृहीतार्थ, विनिश्चितार्थ (निश्चित रूप से अर्थ को आत्मसात् करना) होने से उसकी अस्थि और मज्जा तक अर्थात् रग-रग धर्मानुराग से अनुरंजित (व्याप्त) हो जाएगी। इसीलिए वह दूसरों को संबोधित करते हुए उद्घोषणा करेगी-आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ--प्रयोजनभूत है, परमार्थ है, इसक सिवाय अन्य तीथिको का कथन कूगति-प्रापकहाने से अनथ-अप्रयाजनभूत है। असद विचारों से विहीन होने के कारण उसका हृदय स्फटिक के समान निर्मल होगा, निम्रन्थ श्रमण भिक्षा के लिए सुगमता से प्रवेश कर सकें, अतः उसके घर का द्वार सर्वदा खुला होगा। सभी के घरों, यहाँ तक कि अन्तःपुर तक में उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक होगा / चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी को परिपूर्ण पोषधव्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हुए श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय-निर्दोष आहार, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-प्रासन, वस्त्र, पात्र, कंबल रजोहरण, औषध, भेषज से प्रतिलाभित करती हुई एवं यथाविधि ग्रहण किए हुए विविध प्रकार के शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवासों से आत्मा को भावित करती हुई रहेगी। तत्पश्चात् वे सुव्रता आर्या किसी समय विभेल संनिवेश से निकलकर-विहारकर बाह्य जनपदों में विचरण करेंगी। विवेचन–पाँच अणव्रत और सात शिक्षाव्रत, ये दोनों मिलकर श्रावक धर्म के बारह प्रकार हैं। इनमें से अणुव्रत श्रावक के मूल व्रत हैं और शिक्षाबत उनको पुष्ट बनाने वाले रक्षक व्रत हैं। इनकी सहायता, अभ्यास आदि से अणुव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन होता है और उनमें स्थिरता पाती है। अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, स्वदार-संतोषव्रत और परिग्रहपरिमाणवत, ये पांच अणुव्रत हैं। इनको अणुव्रत इसलिए कहते हैं कि हिंसा आदि पाप कार्यों और सावद्ययोगों का प्रांशिक त्याग किया जाता है। 1. धर्मोपदेश के विस्तृत वर्णन के लिए प्रोपपातिकसूत्र (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) पृ 108 देखिए। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका सात शिक्षात्रतों के दो प्रकार हैं-गुणव्रत और शिक्षाबत / गुणवत तीन और शिक्षाबत चार हैं / इन दोनों के अभ्यास एवं साधना से अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायता मिलती है / अणुव्रत आदि रूप बारह प्रकार के श्रावक धर्म की सांगोपांग जानकारी के लिए उपासकदशांगसूत्र का अध्ययन करना चाहिए। सोमा की प्रव्रज्या 52. तए णं ताओ सुब्वयाओ अज्जानो अन्नया कयाइ पुव्वाणुपुटिव ....."जाव विहरंति / तए णं सा सोमा माहणी इमोसे कहाए लट्ठा समाणी हट्ठा हाया तहेव निम्गया, जाव बंदइ, नमसइ, 2 धम्म सोच्चा [जाव] नवरं "रटकूडं आपुच्छामि, तए णं पव्वयामि"। "अहासुहं ......." / तए णं सा सोमा माहणी सुध्वयं अज्जं वंदइ नमसइ, 2 त्ता सुध्वयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ २त्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रट्टकूडे, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता करयल० तहेव प्रापुच्छइ [जाब] पव्वइत्तए। "अहासुहं, देवाणुप्पिए ! मा पडिबन्धं / ..." / तए णं रहकूडे विउलं असणं, तहेव जाव पुन्वभवे सुभद्दा, [जाव] अज्जा जाया इरियासमिया [जाव] गुत्तबम्भयारिणी। [52) इसके बाद वे सुव्रता प्रार्या किसी समय पूर्वानुपूर्वी के क्रम से गमन करती हुई, ग्रामानुग्राम में विचरण करती हुई यावत् पुन: विभेल संनिवेश में आएंगी। तब वह सोमा ब्राह्मणो इस संवाद को सूनकर हर्षित एवं संतुष्ट हो, स्नान कर तथा सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो पूर्व की तरह दासियों सहित दर्शनार्थ निकलेगी यावत् वंदन-नमस्कार करेगी। वंदन-नमस्कार करके धर्म श्रवण कर यावत् सुव्रता ग्रार्या से कहेगी—मैं राष्ट्रकूट से पूछकर आपके पास मुडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती हूँ। तब सुव्रता आर्या उससे कहेंगी-देवानुप्रिये ! तुम्हें जिसमें सुख हो वैसा करो, किन्तु शुभ कार्य में विलम्ब मत करो। इसके बाद सोमा माहणी उन सुव्रता आर्याओं को बंदन-नमस्कार करके उनके पास से निकलेगी और जहाँ अपना घर और उसमें जहाँ राष्ट्रकूट होगा, वहाँ आएगी। आकर दोनों हाथ जोड़कर पूर्व के समान पूछेगी कि आपकी आज्ञा लेकर प्रानगारिक प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। ___ इस बात को सुनकर राष्ट्रकूट कहेगा-देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु इस कार्य में प्रमाद-विलम्ब मत करो। इसके पश्चात् राष्ट्रकूट विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम चार प्रकार के भोजन बनवाकर अपने मित्र, जाति, बांधव, स्वजन, संबन्धियों को आमंत्रित करेगा। उनका सत्कार सन्मान करेगा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] [87 इत्यादि, जिस प्रकार पूर्वभव में सुभद्रा प्रवजित हुई थी, उसी प्रकार यहाँ भी वह प्रवजित होगी और आर्या होकर ईर्यासमिति आदि समितियों एवं गुप्तियों से युक्त होकर यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होगी। 53. तए णं सा सोमा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, 2 ता बहूइं छ?मट्ठमदसमदुवालस जाव भावेमाणी बहूहि वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 त्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स देविन्दस्स देवरनो सामाणियदेवत्ताए उववज्जिहिइ / तस्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दो सागरोक्माइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। [53] तदनन्तर वह सोमा आर्या सुवता आर्या से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करेगी। अध्ययन करके विविध प्रकार के बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादशभक्त आदि विचित्र तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन / इसके बाद मासिक संलेखना से आत्मा शुद्ध कर, अनशन द्वारा साठ भोजनों को छोड़कर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिस्थ हो, मरणसमय के आने पर मरण करके देवेन्द्र देवराज शक के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। वहाँ किसी-किसी देव की दो सागरोपम की स्थिति होती है। उस सोम देव को भी दो सागरोपम की स्थिति होगी। 54. 'से णं, भन्ते, सोमे देवे तओ देवलोगाओ आउक्खएणं, जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उवधज्जिहिइ ?' गोयमा, महाविदेहे वासे [जाव] अन्तं काहिसि / [54] इस कथानक को सुनने के पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा--'भदन्त ! वह सोम देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर देवलोक से च्यवकर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा भगवान् ने कहा-'हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अंत करेगा।' 55. निक्खेवो-तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं भगक्या पुष्फियाणं चउत्थस्स अज्मयणस्स अयम? पण्णत्ते तिबेमि / श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा—'पायुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार से श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है / ऐसा मैं कहता हूँ।' // चतुर्थ अध्ययन समाप्त // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिका : पंचम अध्ययन पूर्णभद्र देव . उत्क्षेप 56. जइ णं भन्ते ! समजेणं भगवया जाव पुफियाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स जाव अयम? पन्नत्ते, पंचमस्स णं भन्ते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते ? [56] भगवन् ! यदि श्रमण यावत निर्वाणप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका नामक उपांग के चतुर्थ अध्ययन का यह भाव प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका के पंचम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? -जम्बू स्वामी ने आये सुधर्मा स्वामी से पूछा। पूर्णभद्र देव का नाट्य-प्रदर्शन 57. एवं खलु, जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समयेणं रायगिहे नाम नयरे / गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामो समोसरिए / परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं पुण्णभद्दे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे समाए सुहम्माए पुण्णभइंसि सोहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सीहि, जहा सूरियाभो [जाव] बत्तीसइविहं नट्टविहि उवदंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेवदिसि पडिगए / कूडागारसाला / पुव्वभवपुच्छा। 'एवं खलु गोयमा' तेणं कालेणं तेणं समयेणं इहेव जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे मणिवइया नाम नयरी होत्था रिद्ध० / चन्दो राया। ताराइण्णे चेहए / तत्थ णं मणिवइयाए नयरीए पुग्णभद्दे नाम गाहावई परिवसइ अड्ड। तेणं कालेणं तेणं समयेणं थेरा भगवन्तो जाइसंपन्ना [जाव] जीवियासमरणभयविष्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा पुवाणुपुर्दियं [जाव] समोसढा / परिसा निग्गया। [57] प्रत्युत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने कहा-आयुष्मन् जम्बू ! वह इस प्रकार है उस काल और उस समय राजगह नामक नगर था। गुणशिलक चैत्य था। वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। स्वामी (भगवान् महावीर) पधारे / परिषद् दर्शन करने निकली। उस काल और उस समय (भगवान् महावीर के राजगृह नगर में पदार्पण होने के समय) सौधर्मकल्प में पूर्णभद्र विमान की सुधर्मा सभा में पूर्णभद्र सिंहासन पर आसीन होकर पूर्णभद्र देव सूर्याभ देव के समान चार हजार सामानिक देवों आदि के साथ दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हुप्रा विचर रहा था / उसने अवधिज्ञान से भगवान् को देखा / भगवान् की सेवा में उपस्थित हुआ, वन्दन Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्य३: पंचम अध्ययन] [89 नमस्कार करके यावत् बत्तीस प्रकार की नृत्यविधियों को प्रदर्शित कर जिस दिशा से आया था, वापिस उसी दिशा में लोट गया। तब गौतम स्वामी ने भगवान से उस देव की दिव्य देव-ऋद्धि आदि के अंतर्धान होने के विषय में पूछा / भगवान् ने कूटाकारशाला के दृष्टान्त द्वारा समाधान किया। तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में गौतम द्वारा पूछने पर भगवान् ने बताया गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र में धन-वैभव इत्यादि से समृद्ध--संपन्न मणिपदिका नाम की नगरी थी। उस नगरी के राजा का नाम चन्द्र था और ताराकीर्ण नाम का उद्यान था। उस मणिपदिका नगरी में पूर्णभद्र नाम का एक सद्गृहस्थ रहता था, जो धन-धान्य इत्यादि से संपन्न था / उस काल और उस समय जाति एवं कुल से संपन्न यावत् जीवन की आकांक्षा और मरण के भय से रहित, बहुश्रुत स्थविर भगवन्त बहुत बड़े अन्तेवासीपरिवार के साथ पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए समवसृत हुए-मणिपदिका नगरी में पधारे। जनसमूह उनकी धर्मदेशना श्रवण करने निकला। 58. तए णं से पुण्णभद्दे गाहावई इमीसे कहाए लढे हट्ठ० [जाव] जहा पण्णत्तोए गङ्गदत्ते, तहेव निग्गच्छइ, [जाब] निक्खन्तो [जाव ] गुत्तबम्भयारी। तए णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवन्ताणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, 2 ता बहूहि चउत्थछट्टट्ठम [जाय] भाविता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता मासियाए संलेहणाए सठ्ठि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुग्णभद्दे विमाणे उक्वायसभाए देवसयणिज्जंसि [जाव] भासामणपज्जतीए / ___ एवं खलु, गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी [जाव] अभिसमन्नागया। 'पुण्णमद्दस्स णं भन्ते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?' 'गोयमा, दो सागरोदमाई ठिई पन्नत्ता।' 'पुण्णभद्दे गं भन्ते ! वेवे तानो देवलोगाओ [जाव] कहिं गच्छिहिइ, कहि उववज्जिहिइ ?' 'गोयमा ! महाविदेहे वासे सिमिहिइ [जाव] अन्तं काहिइ [58] पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरों के आगमन का वृत्तान्त जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ इत्यादि यावत् भगवती-सूत्रोक्त गंगदत्त' के समान दर्शन के लिए गया यावत् उनके पास प्रवजित हुप्रा यावत् ईर्यासमिति आदि से युक्त गुप्तब्रह्मचारी अनगार हो गया। तत्पश्चात् पूर्णभद्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से सामायिक से प्रारंभ कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टमभक्त आदि तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया। पालन करके मासिक संलेखनापूर्वक साठ 1. गंगदत्त के वर्णन के लिए देखिए भगवतीसूत्र शतक 16 उद्देशक-५ / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि प्राप्त कर मरणकाल आने पर काल करके सौधर्म कल्प के पूर्णभद्र विमान की उपपातसभा में देवशैया पर देव रूप से उत्पन्न हुया / यावत् भाषा-मन पर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त किया। इस प्रकार से हे गौतम ! पूर्णभद्र देव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि प्राप्त यावत् अधिगत की है। भदन्त ! पूर्णभद्र देव की कितने काल की स्थिति बताई है ? गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा। ___भगवान् ने उत्तर दिया---'गौतम ! उसकी दो सागरोपम की स्थिति है।' गौतम ने पुनः पूछा-'भगवन् ! वह पूर्णभद्र देव उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ जाएगा? कहाँ उत्पन्न होगा?' भगवान् ने कहा-'गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा।' 59. निक्खेवनो---तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुल्फियाणं पंचमस्स प्रजायणस्स अयम? पणते तिबेमि। - [59] आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका उपांग के पांचवें अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है, ऐसा मैं कहता हूँ। पंचम अध्ययन समाप्त। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन मणिभद्र देव उत्क्षेप 60. उक्खेवो--जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पंचमस्स अज्मयणस्स जार्व अयमट्ठ पत्नत्ते, छठुस्स णं मन्ते ! प्रज्ायणस्स पुष्फियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते? ‘एवं खलु जम्बू ! [60] जम्बू अनगार ने प्रार्य सुधर्मा स्वामी से पूछा-~-भगवन् ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणप्राप्त भगवान् ने पुष्पिका के पंचम अध्ययन का यह प्राशय कहा है तो भगवन् ! मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पिका के षष्ठ (छठे) अध्ययन का क्या प्राशय प्रतिपादन किया है ? आर्य सुधर्मा स्वामी ने उत्तर में कहा-आयुष्मन् जम्बू ! वह इस प्रकार है 61. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे / गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। सामी समोसरिए / तेणं कालेणं तेणं समएणं माणिभद्दे देवे समाए सुहम्माए माणिमइंसि सोहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सोहिं जहा पुण्णमहो तहेव आगमणं, नट्टविही, पुव्वभवपुच्छा। मणिवई नयरी, माणिभद्दे गाहावई, थेराणं अन्तिए पन्चज्जा, एक्कारस अङ्गाई अहिज्जा, बहूहि वासाई परियाओ, मासिया संलेहणा, सद्धि भत्ताई। माणिभद्दे विमाणे उववाओ, दो सागरोवमाई ठिई, महाविदेहे वासे सिझिहिइ। // तइओ वग्गो समत्तो॥ [61] उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था / वहाँ गुणशिलक चैत्य था। वहाँ का राजा श्रेणिक था / एक बार वहाँ महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ / उस काल और उस समय मणिभद्र देव सुधर्मा सभा के मणिभद्र सिंहासन पर बैठकर चार हजार सामानिक देव आदि सहित दिव्य भोगोपभोगों को भोगते हुए विचर रहा था। पूर्णभद्र देव के समान वह भी भगवान् के समवसरण में पाया और उसी प्रकार नृत्य-विधियाँ दिखाकर वापिस लौट गया। मणिभद्र देव के लोट जाने के पश्चात् गौतम स्वामी ने उसको देव-ऋद्धि आदि प्राप्त होने एवं पूर्वभव के विषय में पूछा। भगवान् ने उत्तर दियाउस काल और उस समय मणिपदिका नाम की नगरी थी। उसमें मणिभद्र नाम का Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पिका गाथापति रहता था। उसने स्थविरों के समीप प्रव्रज्या अंगीकार की। प्रव्रज्या अंगीकार करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया और मासिक संलेखना की। अनशन द्वारा साठ भोजनों का छेदन कर (त्याग कर) पापस्थानों का पालोचन–प्रतिक्रमण करके मरण का अवसर प्राप्त होने पर समाधिपूर्वक मरण करके मणिभद्र विमान में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी दो सागरोपम की स्थिति है। अन्त में उस देवलोक से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा और सर्व दुःखों का अन्त करेगा। 62. निक्षेप-तं एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुल्फियाणं छट्ठस्स अज्झयणस्त अयम? पण्णत्ते तिबेमि। [62] सुधर्मा स्वामी ने कहा-आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् महावीर भगवान् ने पुष्पिका के छठे अध्ययन का यह भाव प्रतिपादन किया है, ऐसा मैं कहता हूँ। ॥छठा अध्ययन समाप्त / / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 से 10 अध्ययन 63. एवं दत्ते 7, सिवे 8, बले 9, अगाढिए 10, सब्वे जहा पुण्णभद्दे देवे / सम्वेसि दो सागरोबमाई ठिई / विमाणा देवसरिसनामा। पुश्वभवे दत्ते चन्दणाए, सिवे मिहिलाए, बले हस्थिणपुरे नयरे, अणाढिए काकन्दिए / चेइयाइं जहा संगहणीए / // तइओ वग्गो समत्तो॥ [63] इसी प्रकार 7 दत्त, 8 शिव, 6 बल और 10 अनादृत, इन सभी देवों का वर्णन पूर्णभद्र देव के समान जानना चाहिए / सभी की दो-दो सागरोपम की स्थिति है। इन देवों के नाम के समान ही इनके विमानों के नाम हैं / पूर्वभव में दत्त चन्दना नगरी में, शिव मिथिला नगरी में, बल हस्तिनापुर नगर में, अनादृत काकन्दी नगरी में जन्मे थे। संग्रहणी गाथा के अनुसार उन नगरियों के चैत्यों के नाम जान लेना चाहिए / इस प्रकार पुष्पिका उपांग का सातवाँ, आठवां, नौवाँ और दसवाँ अध्ययन समाप्त हुआ। // पुष्पिका नामक तृतीय वर्ग समाप्त // Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फचूलियाओ : पुष्पचूलिका प्रथम अध्ययन 1. उक्खेवओ-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं उवङ्गाणं तच्चस्स पुल्फियाणं अयम? पन्नत्ते, चउत्थस्स णं भंते ! वागस्स उवङ्गाणं पुष्फचूलियाणं के अट्ठ पन्नते ? (1) [जम्बू स्वामी ने श्रीसुधर्मा स्वामो से प्रश्न किया--] हे भदन्त ! यदि मोक्षप्राप्त यावत् श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पिका नामक तृतीय उपांग का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादित किया है तो पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ उपांग का क्या अर्थ-प्राशय कहा है ? 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवङ्गाणं चउत्थस्स णं पुष्फचूलियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता। तं जहा--सिरि-हिरि-धिइ-कित्तीओ, बुद्धी-लच्छी य होइ बोद्धव्वा / इलादेवी सुरादेवी रसदेवी गंधदेवी य / (2) [सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-] हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् महावीर ने चतुर्थ उपांग पुष्पचूलिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं। वे इस प्रकार हैं 1 श्री देवी 2 ह्री देवी 3 धृति देवी 4 कोर्ति देवी 5 बुद्धि देवी 6 लक्ष्मी देवी 7 इला देवी 8 सुरादेवी 6 रसदेवी 10 गन्ध देवी। 3. जइ गं भन्ते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवङ्गाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुष्फचलियाणं . दस अज्झयणा पन्नता, पढमस्स णं भन्ते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नते? (3) हे भदन्त ! यदि मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ उपांग के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं तो हे भगवन् ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या प्राशय बताया है ! 4. तए णं से सुहम्मे जम्बूअणगारं एवं वयासीइसके उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य श्रीजम्बू अनगार से इस प्रकार कहा:-- 5. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। सामी समोसढे, परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरिदेवी सोहम्मे कप्पे सिरिडिसए विमाणे समाए सुहम्माए Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 4 : प्रथम अध्ययन] [95 सिरिसि सीहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सोहि चउहि महत्तरियाहिं, जहा बहुपुत्तिया, [जाय] नट्टविहि उवदंसित्ता पडिगया। नवरं दारियाओ नस्थि / पुथ्वभवपुच्छा। ___एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समयेणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं रायगिहे नयरे सुदंसणो नाम गाहावई परिवसइ, प्रड्ड / तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स पिया नामं भारिया होत्था सोमाला / तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावयणीए अत्तया भूया नामं दारिया होत्था, बुड्डा बुड्ढकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पडियपुयत्थणी बरगपरिवज्जिया यायि होत्था। (5) हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था / गुणशिलक नामका चैत्य था / वहाँ श्रेणिक राजा राज्य करता था। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे / धर्मदेशना श्रवण करने के लिए परिषद् निकली। उस काल और उस समय श्री देवी सौधर्मकल्प में श्री अवतंसक नामक विमान की सुधर्मा सभा में बहुपुत्रिका देवी के समान चार हजार सामानिक देवियों एवं चार महत्तरिकाओं के साथ श्रीसिंहासन पर बैठी हुई थी (उसने अवधिज्ञान से भगवान् को राजगृह में समवसृत देखा / भक्तिवश वह वहाँ पाई और) यावत् नृत्य-विधि को प्रदर्शित कर वापिस लौट गई / यहाँ इतना विशेष है कि श्री देवी ने अपनी नृत्यविधि में बालिकाओं की विकुर्वणा नहीं की थी। श्री देवी के वापिस लौट जाने पर गौतम स्वामी ने भगवान् से उसके पूर्व भव के विषय में पूछा / भगवान् ने उत्तर दिया हे गौतम ! उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। गुणशिलक नाम का चैत्य था, वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। उस राजगृह नगर में धनाढ्य सुदर्शन नाम का गाथापति निवास करता था। उस सुदर्शन गाथापति (सद्गृहस्थ) की सुकोमल अंगोपांग, सुन्दर शरीर वाली आदि विशेषणों से विशिष्ट प्रिया नाम की भार्या थी। उस सुदर्शन गाथापति की पुत्री, प्रिया गाथापत्नी की पात्मजा भूता नाम की दारिका-लडकी थी। जो वद्धशरीरा और वद्ध कमारी. जीर्ण शरीर वाली और जीर्णकुमारी, शिथिल नितम्ब और स्तनवाली तथा वरविहीन थी। भूता का दर्शनार्थ गमन 6. तेणं कालेणं तेण समयेणं पासे अरहा पुरिसादाणीए [जाव] नवरयणीए / वण्णओ सोच्चेव / समोसरणं परिसा निग्गया। तए णं सा भूया दारिया इमोसे कहाए लट्ठा समाणी हद्वतुट्ठा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, 2 ता एवं क्यासी“एवं खलु, अम्मताओ! पासे परहा पुरिसादाणीए पुव्वाणुपुब्धि चरमाणे [जाव] गणपरिवुडे विहरइ / तं इच्छामि गं अम्मताओ, तुम्भेहिं अउभणुनाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायबन्दिया गमित्तए।' 'अहासुहं-देवाणुप्पिए, मा पडिबन्धं........' Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुष्पचूलिका तए णं सा भूया दारिया व्हाया [जाव] सरीरा चेडीचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, 2 त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, 2 ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा। ___ तए णं सा भूया दारिया निययपरिवारपरिवुडा रायगिहं नयरं मझमझेणं निग्गच्छइ, 2 ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, २त्ता छत्ताईए तित्थयरातिसए पासइ, 2 त्ता धम्मियानो जाणष्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडीचक्कवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, 2 ता तिक्खुत्तो [जाव] पज्जुवासइ / तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए य महइ......." / धम्मकहा / धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ० वन्दइ नमसइ, 2 ता एवं वयासी—'सद्दहामि गं भन्ते ! निग्गंथं पावयणं, जाव अब्भुट्ठमि णं भन्ते ! निग्गंथ पाक्यणं, से जहेयं तुम्भे वयह ज नवरं, मन्ते ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं [जाव] पव्वइत्तए।' 'महासुहं देवाणुप्पिए।' [6] उस काल और उस समय में पुरुषादानीय एवं नौ हाथ की अवगाहना वाले इत्यादि रूप से वर्णनीय अर्हत् पार्श्व प्रभु पधारे / दर्शन करने के लिए परिषद् निकली। तब वह भूता दारिका इस संवाद को सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुई और माता-पिता के पास गई / वहाँ जाकर उसने उनकी अनुमति-प्राज्ञा मांगी-'हे मात-तात ! पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् अनुक्रम से विचरण करते हुए यावत् शिष्यगण से परिवृत होकर विराजमान हैं। अतएव हे माततात ! आपकी आज्ञा-अनुमति लेकर मैं पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत की पादवंदना के लिए जाना चाहती हूँ। माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो।' तत्पश्चात् भूता दारिका ने स्नान किया यावत् शरीर को अलंकृत करके दासियों के समूह के साथ अपने घर से निकली। निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला (सभाभवन-बैठक) थी, वहाँ पाई और प्राकर उत्तम धार्मिक यान-रथ पर आसीन हई। इसके बाद वह भूता दारिका अपने स्वजन-परिवार को साथ लेकर राजगृह नगर के मध्य भाग में से निकली / निकलकर गुणशिलक चैत्य के समीप आई और पाकर तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशय देखे (देखकर धार्मिक रथ से नीचे उतरकर दासी-समूह के साथ जहाँ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु विराजमान थे, वहाँ पाई / आकर उसने तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा करके वंदना की यावत् पर्युपासना करने लगी। तदनन्तर पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व प्रभु ने उस भूता बालिका और अति विशाल परिषद् को धर्मदेशना सुनाई। धर्मदेशना सुनकर और उसे हृदयंगम करके वह हृष्टतुष्ट हुई। फिर भूता Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 4: प्रथम अध्ययन] दारिका ने वंदना-नमस्कार किया और इस प्रकार उद्गार प्रकट किए-'भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ-श्रद्धालु हूँ-यावत् निर्ग्रन्थ-प्रवचन को अंगीकार करने के लिए तत्पर हूँ। वह वैसा ही है, जैसा आपने विवेचन किया है, किन्तु हे भदन्त ! माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर लू, तब मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। अर्हत् प्रभु ने उत्तर दिया-- देवानुप्रिये ! इच्छानुसार करो।' भूता का प्रव्रज्याग्रहण तए णं सा भूया दारिया तमेव धम्मिथं जाणप्पयरं [जाव] दुरूहइ, 2 ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागया। रायगिहं नयरं मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे, तेणेव उवागया / रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो, तेणेव उवागया / करयल०, जहा जमाली, प्रापुच्छइ / 'अहासुहं देवाणुप्पिए।' ___तए णं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, मित्तनाइ० आमन्तेइ, 2 ता जाव जिमियभुत्तुत्तरकाले सुईभूए निक्खमणमाणेत्ता कोडम्बियपुरिसे सद्दावेद, 2 त्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं उवट्ठवेह, 2 ता जाव पच्चप्पिणह।' तए णं ते [जाव] पच्चप्पिणन्ति / तए णं से सुदसणे गाहावई भूयं दारियं व्हायं विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरूहइ, 2 ता मित्तनाइ० [जाव] रवेणं रायगिहं नयरं मझमझेणं, जेणेव गुणसिलए चेइए, तेणेव उवागए, छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ, 2 ता सीयं ठावेइ, 2 ता भूयं दारियं सीयाओ पच्चारुहेइ / तए णं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरनो काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए, तेणेव उवागए तिक्खुत्तो वन्दइ, नमसइ, 2 त्ता एवं क्यासी--एवं खलु देवाणुप्पिया ! भूया दारिया अम्हं एगा धूया, इट्ठा / एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउठिवग्गा भीया [जाव] देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डा [जाव] पव्वयइ / तं एयं णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामो / पडिच्छन्तु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणिभिक्वं"। "महासुह, देवाणुप्पिया"। तए णं सा भूया दारिया पासेणं अरहया ...." एवं वुत्ता समाणी हट्ठा, उत्तरपुरथिम, सयमेय आमरणमल्लालंकारं उम्मुया, जहा देवाणन्दा, पुप्फचूलाणं अन्तिए [जाव] गुत्तबम्भयारिणी। (7) इसके बाद वह भूता दारिका यावत् उसी धार्मिक श्रेष्ठ यान पर आरूढ हुई / प्रारूढ होकर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आई और राजगृह नगर के मध्य भाग में होकर जहाँ अपना आवास स्थान-घर था, वहाँ आई। पाकर रथ से नीचे उतर कर जहाँ माता-पिता थे उनके समीप Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [पुष्पचूलिका आई / पाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अंजलि करके जमालि की तरह माता-पिता से प्राज्ञा मांगी / (अन्त में माता-पिता ने अपनी अनुमति देते हुए कहा-) देवानुप्रिये ! जैसे सुख हो, तदनुकूल करो। तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन बनवाया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया यावत् भोजन करने के पश्चात् शुद्ध-स्वच्छ होकर अभिनिष्क्रमण कराने के लिए कौटु म्बिक पुरुषों को बुलाया, और बुलाकर उन्हें प्राज्ञा दी-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही दीक्षार्थिनी भूता दारिका के लिए सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जाए ऐसी शिविका (पालकी) लामो और लाकर यावत् कार्य होने की सूचना दो। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् आदेशानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाते हैं। तत्पश्चात् उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई और आभूषणों से विभूषित शरीर वाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ किया और वह मित्रों, जातिबांधवों प्रादि के साथ यावत वाद्यघोषा पूर्वक राजगह नगर के मध्य भाग में से होते हए जहाँ गुणशिलक चैत्य था, वहाँ पाया और छत्रादि तीर्थंकरातिशयों को देखा / देखकर पालकी को रोका और उससे भूता दारिका को उतारा / ___ इसके बाद माता-पिता उस भूता दारिका को आगे करके जहाँ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वप्रभु विराजमान थे, वहाँ आए और तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया तथा इस प्रकार निवेदन किया--देवानप्रिय! यह भूता दारिका हमारी एकलौती पुत्री है। यह हमें प्रिय है / देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्विग्न-भयभीत होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर यावत् प्रवजित होना चाहती है / देवानुप्रिय ! हम इसे शिष्या-भिक्षा के रूप में आपको समर्पित करते हैं / अाप देवानुप्रिय इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें। अर्हत् पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो।' ___ तब उस भूता दारिका ने पार्श्व अर्हत् की अनुमति-स्वीकृति सुनकर हर्षित हो, उत्तर-पूर्व दिशा में जाकर स्वयं प्राभरण-प्रलंकार उतारे। यह वृत्तान्त देवानन्दा के समान कह लेना चाहिए / अर्हत् प्रभु पार्श्व ने उसे प्रवजित किया और पुष्पचूलिका प्रार्या को शिष्या रूप में सौंप दिया / उसने पुष्पचूलिका आर्या से शिक्षा प्राप्त की यावत् वह गुप्त ब्रह्मचारिणी हो गई। शरीरबकुशिका भूता 8. तए णं सा भूया अज्जा अन्नया कयाइ सरीरबाउसिया जाया यावि होत्था। अभिक्खणं 2 हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, एवं सीसं धोवह, मुहं धोवइ, थणगन्तराई धोवइ, कक्खन्तराई धोवइ, गुज्झन्तराई धोवइ, जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुष्वामेव पाणएणं अभुक्खेइ, तम्रो पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ / 1. भगवती सूत्र, श. 9 उ. 33 2. भगवती सूत्र, श० 9 उ० 33 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 4 : प्रथम अध्ययन] . तए णं ताओ पुष्फचूलामो अज्जाओ भूयं अज्जं एवं बयासी—'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियानो [जाव] गुत्तबम्भचारिणीओ। नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाओसियाणं होत्तए / तुमं च णं, देवाणुप्पिए, सरीरबाओसिया अभिक्खणं 2 हत्थे धोवसि [जाय] निसीहियं चेएसि / तं णं तुम देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स पालोएहि' त्ति / सेसं जहा सुभद्दाए, जाव पाडिएक्कं उबस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं सा भूया अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई अभिक्खणं 2 हत्थे धोवइ जाव चेएइ। (8) कुछ काल के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीरबकुशिका हो गई। वह बारंबार हाथ धोती, पैर धोती, शिर धोती, मुख धोती, स्तानान्तर धोती, कांख धोती, गृह्यान्तर धोती, और जहाँ कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और उसके बाद खड़ी होती, सोतो, बैठती या स्वाध्याय करती। तब पुष्पचलिका आर्या ने भूता आर्या को इस प्रकार समझाया-देवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं / इसलिए हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है, किन्तू देवानुप्रिये! तुम शरीरबकुशिका होकर हाथ धोती हो यावत् पानी छिड़ककर बैठती यावत् स्वाध्याय करती हो। देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान-कार्यप्रवृत्ति की आलोचना करो। इत्यादि शेष वर्णन सुभद्रा के समान जानना चाहिये। यावत् (प्रार्या पुष्पचूलिका के समझाने पर भी वह नहीं समझी) और एक दिन उपाश्रय से निकल कर वह बिल्कुल अकेले उपाश्रय में जाकर निवास करने लगी। तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुश, विना रोकटोक के स्वच्छन्द-मति होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् स्वाध्याय करने लगी अर्थात् उसने अपना पूर्वोक्त आचार चालू रक्खा / भूता का अवसान और सिद्धि गमन 9. तए णं सा भूया अज्जा बहहिं चउत्थछट्ट० बहूई वासाई सामण्णपरियाणं पाउणिता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिडिसए विमाणे उववायसमाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सिरिदेवित्ताए उयवन्ना, पञ्चविहाए पज्जत्तीए जाय भासामणपज्जत्तीए पज्जत्ता। 'एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्या देविड्डो लद्धा पत्ता / एगं पलिओवमं ठिई। 'सिरी णं भंते, देवी जाव कहिं गच्छिहिई' ? 'महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / ' ॥निक्खेवओ॥ (9) तब वह भूता आर्या विविध प्रकार की चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त आदि तपश्चर्या करके और बहुत वर्षों तक श्रमणोपर्याय का पालन करके एवं अपनी अनुचित अयोग्य कार्यप्रवृत्ति की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही मरणसमय में मरण करके सौधर्मकल्प के श्रीअवतंसक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.1 [पुष्पचूलिका विमान की उपपातसभा में देवशय्या पर यावत् अवगाहना से श्रीदेवी के रूप में उत्पन्न हुई, यावत् पांच-पाहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मन:पर्याप्ति से पर्याप्त हुई। इस प्रकार हे गौतम ! श्रीदेवी ने यह दिव्य देवऋद्धि लब्ध और प्राप्त की है / वहाँ उसकी एक पल्योपम की आयु-स्थिति है। 'भदन्त ! यह श्रीदेवी देवभव का प्रायुष्य पूर्ण करके यावत् कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ?' गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा। भगवान् ने उत्तर दिया- 'महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगी और (संयम की आराधना करके सिद्धि प्राप्त करेगी।' निक्षेप 10. निक्खेवओ-तं एवं खलु, जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं पुप्फचलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते / तिबेमि / (10) (श्रीसुधर्मा स्वामी ने कहा-) आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पचूलिका के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है / ऐसा मैं कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-10 वाँ अध्ययन - 11. एवं सेसाण वि नवण्हं भावियन्वं / सरिसनामा विमाणा। सोहम्मे कप्पे पुब्वभयो / नयरचेइयपियमाईणं अपणो य नामादि जहा संगहणीए / सम्वा पासस्स अन्तिए निक्खन्ता / तानो पुष्फलाणं सिस्सिणीयानो, सरीरवाप्रोसियाओ, सम्वाओ अणन्तरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिन्ति / // पुप्फचूलाओ समत्तानो॥ (11) इसी प्रकार शेष नौ अध्ययनों का भी वर्णन करना चाहिए / मरण के पश्चात् अपनेअपने नाम के अनुरूप नाम वाले विमानों में उनकी उत्पत्ति हुई / यथा-ह्री देवी की ह्री विमान में, धति देवी की धृति विमान में, कीति देवी की कीत्ति नामक विमान में, बुद्धि देवी की बुद्धिविमान में आदि / सभी-का सौधर्मकल्प में उत्पाद हुआ / उनका पूर्वभव भूता के समान है। नगर, चैत्य, मातापिता और अपने नाम आदि संग्रहणीगाथा के अनुसार हैं। सभी पार्श्व अर्हत् से प्रवजित हुई और वे पुष्पचला आर्या की शिष्याएँ हुईं। सभी शरीरबकुशिका हुई और देवलोक के भव के अनन्तर च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होंगी। // द्वितीय से दशम अध्ययन समाप्त / // पुष्पचूलिका उपांग समाप्त // Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वण्हिदसाओ-वह्निदशा प्रथम अध्ययन उत्क्षेप 1. उक्खेवमो-जह णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तणं उवङ्गाणं चउत्थस्स णं पुप्फचूलियाणं अयमठे पन्नत्ते, पंचमस्स गं भंते ! वग्गस्स उवगाणं वहिदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अछे पण्णते? [1] (श्रीजम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-) भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए भगवान् महावीर ने चतुर्थ उपांग पुष्पचलिका का यह अर्थ कहा है तो हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षसंप्राप्त भगवान् महावीर ने पांचवें वहिदसाम्रो [अन्धकवृष्णिदशा] नामक उपांग-वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? 2. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उबङ्गाणं पंचमस्स गं वहिवसाणं दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा--- निसढे-माअणि-वह-वहे पगया जुत्ती दसरहे दढरहे य / महाधणू सत्तधणू दसधणू नामे सयधणू य॥ [2] (सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया--) हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने पांचवें वह्निदशा उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं--- (1) निषध (2) मातलि (3) वह (4) वहे (5) पगया (6) युक्ति (7) दशरथ (5) दृढ रथ (8) महाधन्वा (10) सप्तधन्वा (11) दशधन्वा और (12) शतधन्वा / 3. 'जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवङ्गाणं पंचमस्स वग्गस्स वहिदसाणं दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते' ? हे भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मोक्षसंप्राप्त भगवान ने वह्निदशा नामक पांचवें उपांग-वर्ग के बारह अध्ययन प्ररूपित किए हैं तो हे भगवन् ! श्रमण यावत् संप्राप्त भगवान् ने उनमें से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? 4. तए णं से सुहम्मे जम्बू अणगारं एवं वयासी[४] तब आर्य सुधर्मा ने उत्तर में जम्बू अनगार से इस प्रकार कहा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [103 द्वारका नगरी 5. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नाम नयरी होत्था, दुवालस जोयणायामा धणवइमइनिम्मिया चामीयरपवरपागार-नाणामणि-पञ्चवण्णकविसीसगसोहिया अलयापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिया पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। [5] हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती--(द्वारका) नाम की नगरी थी। वह पूर्व-पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, अर्थात् उसकी चौड़ाई नौ योजन और लंबाई बारह योजन की थी। उसका निर्माण स्वयं धनपति (कुबेर) ने अपने मतिकौशल से किया था। स्वर्ण निर्मित श्रेष्ठ प्राकार (परकोटा) और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी / अलकापुरी--इन्द्र की नगरी के समान सुन्दर जान पड़ती थी। उसके निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी। मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी। रैवतक पर्वत 6. तोसे गं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्या-तुङ्ग गयणयलमणुलिहन्तसिहरे नाणाविहरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लया-वल्लीपरिगयाभिरामे हंसमिय-मयूर-कोच-सारस काग-मयणसाल-कोइल-कुलोववेए तडकडगवियरउब्झरपवायपन्भारसिहरपउरे अच्छरगण-देवसंघ-विज्जाहर-मिहुण-संनिचिण्णे निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेल्लोक्कबलयगाणं सोमे सुभए पियवंसणे सुरुवे पासादीए [जाव] पडिरूवे / [6] उस द्वारका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा-ईशान कोण में रैवतक नामक पर्वत था। वह बहुत ऊँचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे / वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनसारिका (मैना) और कोयल आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। उसमें अनेक तट, मैदान और गुफाएँ थीं। झरने, प्रपात, प्रारभार (कुछ-कुछ नमे हुए गिरिप्रदेश) और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के मिथुनों (युगलों) से व्याप्त रहता था। तीनों लोकों में बलशाली माने जाने वाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा वहां नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे। वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम था। नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन 7. तत्थ णं रेवयगस्स पव्ययस्स अदूरसामन्ते एत्थ णं नन्दणवणे नामं उज्जाणे होत्थासध्योउयपुप्फफलसमिद्ध रम्मे नन्दणवणप्पगासे पासादीए जाय दरिसणिज्जे / तस्स णं नन्दणवणे उज्जाणे सुरपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था-चिराईए [जाव] बहुजणो आगम्म प्रच्चेइ सुरप्पियं जक्खाययणं / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [वह्निदशा - से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसण्डेणं सव्वओ समन्ता संपरिविखत्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए / [7] उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप किन्तु यथोचित स्थान पर नन्दनवन नामका एक उद्यान था / वह सर्व ऋतुओं संबन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध, रमणीय नन्दनवन के समान आनन्दप्रद ; दर्शनीय, मनमोहक और मन को आकर्षित करने वाला था। उस नन्दनवन उद्यान के अति मध्य भाग में सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था / वह अति पुरातन था यावत् बहुत से लोग वहाँ अा-अाकर सुरप्रिय यक्षायतन की अर्चना करते थे। यक्षायतन का वर्णन प्रौपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए।' वह सुरप्रिय यक्षायतन पूर्णभद्र चैत्य के समान चारों ओर से एक विशाल वनखंड से पूरी तरह घिरा हुअा था, इत्यादि वर्णन भी औपपातिक सूत्र के समान जान लेना चाहिए / यावत् उस वनखण्ड में एक पृथ्वी शिलापट्ट था। द्वारिका नगरी में कृष्ण वासुदेव, बलदेव 8. तत्थ गं बारवईए नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे राया परिवसइ / से णं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसहं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पञ्चहं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसाहस्सीणं, पज्जुण्णपामोक्खाणं अद्ध द्वाणं कुमारकोडोणं, सम्बपामोक्खाणं सट्ठीए दुद्दन्तसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, रुप्पिणिपामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सीणं, अणङ्गमेणापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सोणं अन्नेसि च बहूणं राईसर जाव सत्थवाहप्पमिईणं बेयड्वगिरिसागरमेरागस्स वाहिणभरहस्स आहेवच्चं जाब विहरइ। तत्थ णं बारवईए नयरीए बलदेवे नामं राया होत्था, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरई / तस्स णं बलदेवस्स रन्नो रेवई नामं देवी होत्था सोमाला जाव विहरइ / तए णं सा रेवई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाय सीहं सुमिणे पासित्ताणं..."", एवं सुमिणसणपरिकहणं, कलाओ जहा महाबलस्स, पन्नासओ दाओ, पन्नासरायकन्नगाणं एगविवसेणं पाणिग्गहणं...""नवरं निसढे नामं, जाव उप्पि पासायं विहरइ / [8] उस द्वारका नगरी में कृष्ण नामक वासुदेव राजा निवास करते थे। वे वहाँ समुद्रविजय आदि दस दसारों का, बलदेव आदि पांच महावीरों का, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं का, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों का, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धानों का, वीरसेन प्रादि इक्कीस हजार वीरों का, रुक्मिणी ग्रादि सोलह हजार रानियों का, अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाओं का तथा इनके अतिरिक्त अन्य बहुत से राजाओं, ईश्वरों यावत् तलवरों, माडविकों, कौटुम्बिकों, इभ्यों, श्रेष्ठियों, सेनापतियों, सार्थवाहों वगैरह का, उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवण समुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का तथा द्वारका नगरी का Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 प्रथम अध्ययन] [105 अधिपतित्व, नेतृत्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व प्राज्ञश्वर्यत्व और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए, उन पर प्रशासन करते हुए विचरते थे। उसी द्वारका नगरी में बलदेव नामक राजा (श्रीकृष्ण वासुदेव के ज्येष्ठ भ्राता) थे। वे महान् थे यावत् राज्य का प्रशासन करते हुए रहते थे। उन बलदेव राजा को रेवती नाम की देवी-पत्नी थी, जो सुकुमाल थी यावत् भोगोपभोग भोगती हई विचरण करती थी। किसी समय रेवती देवी ने अपने शयनागार में औपपातिक सूत्र में वर्णित विशिष्ट प्रकार को शय्या पर सोते हुए यावत् स्वप्न में सिंह को देखा / स्वप्न देखकर वह जागृत हुई। यहाँ स्वप्नदर्शन आदि का कथन करना चाहिए / अर्थात् स्वप्न देख कर वह अपने पति के पास गई / उन्हें स्वप्न देखने का वृत्तान्त कहा। पति बलदेव ने स्वप्न के फल का निर्देश किया। प्रातःकाल स्वप्नपाठकों को आमन्त्रित किया गया। उन्होंने स्वप्नफल कथन की पुष्टि की। यथासमय बालक का जन्म हुआ। वह जब आठ वर्ष का हो गया तो महाबल के समान उसने बहत्तर कलाओं का अध्ययन किया। विवाह के समय उसे पचास वस्तुएँ दहेज में दी गई। एक ही दिन पचास उत्तम राजकन्याओं के साथ ग्रहण हग्रा इत्यादि / विशेषता यह है कि उस बालक का नाम निषध था यावत वह आमोदप्रमोद के साथ प्रासाद में रहकर प्रानन्दपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। अर्हत अरिष्टनेमि का आगमन 9. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिद्वनेमी आइगरे दस धणूइं...."वण्णओ जाव समोसरिए / परिसा निग्गया। तए णं से कण्हे वासुदेवे इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हट्टतुळे कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया, समाए सुहम्माए सामुदाणियं भेरि तालेहि"। तए णं से कोडुम्बियपुरिसे जाव पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाणिया भेरी, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता सामुदाणियं भेरि महया 2 सद्देणं तालेइ / [6] उस काल और उस समय में अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु पधारे। वे धर्म की आदि करने वाले थे, इत्यादि वर्णन भगवान् महावीर के वर्णन के समान यहाँ करना चाहिए / विशेषता यह है कि अर्हत् अरिष्टनेमि दस धनुष की अवगाहना- शरीर की ऊंचाई वाले थे। धर्मदेशना श्रवण करने के लिए परिषद् निकली। तत्पचात् कृष्ण वासुदेव ने यह संवाद सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट होकर कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर सामुदानिक (जिसके बजने पर जनसमूह एकत्रित हो जाए, ऐसी) भेरी को बजाओ। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् कृष्ण वासुदेव की आज्ञा स्वीकार करके जहां सुधर्मा सभा में सामुदानिक भेरी थी वहाँ पाए और आकर उस सामुदानिक भेरी को जोर से बजाया। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [वह्निवशा कृष्ण वासुदेव का दर्शनार्थ गमन 10. तए गं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया 2 सद्देण तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दसारा, देवीओ माणियवाओ, जाव अणङ्गसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा भन्ने य बहवे राईसर जाव सस्थवाहप्पभिईओ व्हाया जाय पायच्छित्ता सवालंकारविभूसिया जहाविभवइड्डीसक्कारसमुदएणं अप्पेगइया हयगया गयगया पायचारविहारेणं वन्दावन्दएहि पुरिसवागुरापरिक्खित्ता जेणेव कण्हे वासुदेवे, तेणेव उवागच्छंति, २त्ता करयल कण्हं वासुदेवं जएण विजएणं वद्धावेन्ति / तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुम्बियपुरिसे एवं वयासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हस्थिरयणं कप्पेह हयगयरहपवर०" जाव पच्चप्पिणन्ति / ___तए णं से कण्हे वासुदेवे मज्जणघरे जाव दुरुढे, अट्ट मङ्गलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरेहि उद्ध ब्वमाणेहि 2 समुद्दविजयपामोक्खेहि दहि दसारेहिं जाव सत्यवाहपभिईहिं सद्धि संपरिबुडे सन्धिड्डीए जाव रवेणं बारवई नरि मज्झमझेणं,..."सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ / [10] उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समुद्रविजय आदि दसार, देवियाँ यावत् अनंगसेना आदि अनेक सहस्र गणिकाएँ तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रति स्नान कर यावत प्रायश्चित्त-मंगलविधान कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ कोई घोड़े पर आरूढ होकर, कोई हाथी पर आरूढ़ होकर और कोई पैदल ही जनसमुदाय को साथ लेकर जहाँ कृष्ण वासुदेव थे, वहाँ उपस्थित हए। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर यावत कृष्ण वासदेव का जय-विजय शब्दों से अभिनन्दन किया। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को यह प्राज्ञा दी-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो और अश्व, गज, रथ एवं पदातियों से युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो, यावत् मेरी यह आज्ञा वापिस लौटायो। ___ तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नानगृह में प्रवेश किया। यावत् स्नान करके, वस्त्रालंकार से विभूषित होकर वे आरूढ़ हुए। प्रस्थान करने पर उनके आगे-आगे आठ मांगलिक द्रव्य चले और कूणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चामरों से विजाते हुए समुद्रविजय आदि दस दसारों यावत् सार्थवाह आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोषों के साथ द्वारवती नगरी के मध्य भाग में से निकले इत्यादि वर्णन समझ लेना चाहिए। यावत् पर्युपासना करने लगे यहाँ तक का शेष समस्त वर्णन कूणिक के समान जानना चाहिए।' निषध कुमार का दर्शनार्थ गमन 11. तए णं तस्स निसहस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरगयस्स तं मया जणसह च.."जहा जमाली, जाव धम्म सोच्चा निसम्म बन्दइ, नमसइ, २त्ता एवं वयासो-"सद्दहामि गं, भंते, निग्गन्थं पाययणं, जहा चित्तो, जाव सावगधम्म पडिवज्जइ, 2 त्ता पडिगए। 1. देखिए औपपातिकसूत्र Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [107 . (11) तब उस उत्तम प्रासाद पर रहे हुए निषधकुमार को उस जन-कोलाहल आदि को सुनकर कौतूहल हुया और वह भी जमालि के समान ऋद्धि वैभव के साथ प्रासाद से निकला यावत् भगवान् के समवसरण में धर्म श्रवण कर और उसे हृदयंगम करके उसने भगवान् को वंदना-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार के उदगार व्यक्त किए-भदन्त ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ इत्यादि / चित्त सारथी के समान यावत् उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया और श्रावकधर्म अंगीकार करके वापिस लौट गया। वरदत्त अनगार को जिज्ञासा : अरिष्टनेमि का समाधान 12. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमिस्स अन्तेवासी वरदत्त नाम अणगारे उराले जाव विहरइ। तए णं से वरदत्ते अणगारे निसढं पासइ, 2 ता जायसढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-"अहो णं, मंते, निसढे कुमारे इठे इटरूवे कन्ते कन्तरूवे, एवं पिए पियरूवे मणुन्नए, मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियवंसणे सुरुवे / निसढेणं भंते ! कुमारेण प्रयमेयारूवे माणुस्सइडी किण्णा लद्धा, किण्णा पत्ता?" पुच्छा जहा सूरियामस्स / एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं तेणं समयेणं इहेब अम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे रोहीडए नामं नयरे होत्था, रिद्ध....."। मेहवणे उज्जाणे / माणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे / तत्थ गं रोहीडए नयरे महब्बले नामं राया। पउमावई नामं देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सीहं सुमिणे.......", एवं जम्मणं भाणियव्वं जहा महाबलस्स, नवरं वीरङ्गयो नाम, बत्तीसप्रो दाओ, बत्तीसाए रायवरकन्नगाण पाणि जाव ओगिज्जमाणे 2 पाउसवरिसारत्तसरयहेमन्तगिम्हवसन्ते छप्पि उऊ जहाविभवे समाणे इठे सद्दफरिसरसरूवगंधे पञ्चविहे माणुस्सगे कामभोए भुञ्जमाणे विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं सिद्धस्था नाम आयरिया जाइसंपन्ना जहा केसी, नवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडए नयरे, जेणेव मेहवण्णे उज्जाणे, जेणेव माणिवत्तस्स जक्खस्स उक्खाययणे, तेणेव उवागए अहापडिरूवं जाव विहरइ / परिसा निग्गया। [12] उस काल और समय में अर्हत् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त नामक अनगार विचरण कर रहे थे। उन वरदत्त अनगार ने निषधकुमार को देखा / देखकर जिज्ञासा हुई यावत् अरिष्टनेमि भगवान् को पर्युपासना करते हुए इस प्रकार निवेदन किया-अहो भगवन् ! यह निषध कुमार इष्ट, इष्ट रूप वाला, कमनीय, कमनीय रूप से सम्पन्न एवं प्रिय, प्रिय रूप बाला, मनोज्ञ, मनोज्ञ रूप वाला, मणाम, मणाम रूपवाला, सौम्य, सौम्य रूपवाला, प्रियदर्शन और सुन्दर है ! भदन्त ! इस निषध कुमार को इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि कैसे उपलब्ध हुई, कैसे प्राप्त हुई ? इत्यादि सूर्याभदेव के विषय में गौतम स्वामी की तरह (वरदत्त मुनि ने) प्रश्न किया। अर्हत् अरिष्टनेमि ने वरदत्त अनगार का समाधान करते हुए कहा-पायुष्मन् वरदत्त ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रोहीतक नाम का नगर था। वह धन धान्य से समद्ध था इत्यादि / वहाँ मेघवन नाम का उद्यान था और मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था। उस रोहीतक नगर के राजा का नाम महाबल था और रानी का नाम पदमावतो था। किसो एक रात Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] হিন্ধিয়া उस पद्मावती ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देखा यावत् महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना चाहिए / विशेषता यह है कि पुत्र का नाम वीरांगद रक्खा गया / यावत् उसे बत्तीस-बत्तीस वस्तुएँ दहेज में दी गई और बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप पावस वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त, इन छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द या वत स्पर्श. रस. रूप और गंध वाले पांच प्रकार के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हए समय व्यतीत करने लगा। उस काल और उस समय जातिसंपन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु बहुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्यपरिवार सहित सिद्धार्थ नामक प्राचार्य जहाँ रोहीतक नगर था, जहाँ उसमें मेघवन उद्यान था, और उसमें भी जहाँ मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर विराजे / दर्शनार्थ परिषद् निकली। 13. तए णं तस्स वीरङ्गयस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरगयस्स तं महया जणसई ...."जहा जमाली, निग्गओ। धम्म सोच्चा.....", जं नवरं देवाणुप्पिया, अम्मापियरो प्रापुच्छामि, जहा जमाली, तहेव निवखन्तो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी। [13] तब उत्तम प्रासाद में वास करने वाले उस वीरांगद कुमार ने महान् जनकोलाहल इत्यादि सुना और (एक ही दिशा में जाता हुआ) जनसमूह देखा। वह भी जमालि की तरह कला। धर्मदेशना श्रवण करके उसने अनगार-दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और उसने भी जमालि की तरह निवेदन किया कि माता-पिता की अनुमति प्राप्त करके दीक्षा ग्रहण करूगा / फिर जमालि की तरह ही प्रवज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया / 14. तए णं से वीरङ्गए प्रणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अन्तिए सामाइयमाइयाइं जाय एपकारस प्रङ्गाई अहिज्जइ, 2 बहूइं जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाइं सामग्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बम्भलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स वि दस सोगरोवमा ठिई पण्णत्ता। [14] तत्पश्चात उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ प्राचार्य से सामायिक से प्रारंभ करके यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के चतुर्थभक्त प्रादि तप:कर्म से प्रात्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भक्तों-भोजनों का अनशन द्वारा छेदनकर, आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर वह ब्रह्मलोक कल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है / वीरांगद देव की भी दस सागरोपम की स्थिति हुई। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [109 15. से णं वीरङ्गए देवे ताओ देवलोगानो आउक्खएणं जाव अनन्तरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए नयरीए बलदेवरस रनो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / तए णं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सणिज्जंसि सुमिणदसणं, जाव उप्पि पासायवरगए विहर।। तं एवं खल वरवत्ता ! निसढेणं कुमारेणं अयमेयारूवे उराले मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया / "पभू णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अन्तिए जाच पब्वइत्तए?" हन्ता, पभू / से एवं मंते ! इह वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तए णं परहा अरिटुनेमी अन्नया कयाइ बारवईओ नयरीनो जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ / निसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ / [15] वह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके इसी द्वारवती नगरी में बलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथासमय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में पाया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषधकुमार विचरण कर रहा है। इस प्रकार, हे वरदत्त ! इस निषधकुमार को यह और ऐसी उत्तम मनुष्य ऋद्धि लब्ध, * प्राप्त और अधिगत हुई है। ___ वरदत्त मुनि ने प्रश्न किया-भगवन् ! क्या निषधकुमार प्राप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रवजित होने के लिए समर्थ है ? भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा-हाँ वरदत्त ! समर्थ है। यह इसी प्रकार है-आपका कथन यथार्थ है भदन्त ! इत्यादि कहकर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इसके बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से निकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे। निषधकुमार जीवाजीव प्रादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया यावत् (सुखपूर्वक) समय विताने लगा। निषध कुमार का मनोरथ 16. तए णं से निसढे कुमारे अन्नया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, 2 ता जाव रामसंथारोवगए विहरइ / तए णं तस्स निसढस्स कुमारस्स पुख्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयाल्वे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-"धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थ णं अरहा अरिटणेमी विहरइ / धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ जे णं परिदृमि वंदन्ति, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [वहिवाशा नमंसन्ति जाव पज्जुवासन्ति / जइ णं अरहा अरिटणेमो पुवाणुपुठिव ... नन्दणवणे विहरेज्जा, तए णं अहं अरहं अरिट्ठमि बन्दिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा / [16] तत्पश्चात् किसी समय जहाँ पौषधशाला थो वहाँ निषधकुमार पाया / प्राकर घास के संस्तारक-प्रासन पर बैठकर पोषधव्रत ग्रहण करके विचरने लगा। तब उस निषधकुमार को रात्रि के पूर्व और अपर समय के संधिकाल में अर्थात् मध्यरात्रि में धार्मिक चिन्तन करते हुए इस प्रकार का प्रांतरिक विचार उत्पन्न हुमा---'वे ग्राम पाकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर (राजकुमार-युवराज) यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वंदना-नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करने का अवसर प्राप्त करते हैं। यदि आहत अरिष्टनेमि पूर्वानपुर्वी से विचरण करते हए, ग्रामानग्राम गमन करते हुए, सुखपूर्वक चलते हुए यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अहत् अरिष्टनेमि प्रभु को वंदनानमस्कार करूगा यावत् पर्युपासना करने का लाभ लूंगा। निषध कुमार को दीक्षा : देवलोकोत्पत्ति 17. तए णं अरहा अरिट्ठनेमो निसढस्स कुमारस्स अयमेयारूवममत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहि समणसहस्सेहिं जाव नन्दणवणे..। परिसा निग्गया। तए णं निसढे कुमारे इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हट० चाउग्घण्टेणं प्रासरहेणं निग्गए जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वहए, अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी। [17] तदनन्तर निषधकुमार के यह और इस प्रकार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् अठारह हजार श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे और साधुओं के योग्य स्थान में प्राज्ञा-अनुमति लेकर विराजे / उनके दर्शन-वंदन आदि करने के लिए परिषद् निकली / तब निषधकुमार भी अरिष्टनेमि अहंत के पदार्पण के वृत्तान्त को जान कर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह अपने वैभव के साथ दर्शनार्थ निकला, यावत् माता-पिता से प्राजा-अनुमति प्राप्त करके प्रवजित हुमा / यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। 18. तए णं से निसढे प्रणगारे अरहो अरिटुगेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अगाई अहिज्जइ, 2 बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहि तबोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुग्णाई नववासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता बायालोसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुल्चोए कालगए / [18] तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त यावत् विचित्र तपःकर्मों (तप साधना) से प्रात्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नो वर्ष तक श्रमम Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [111 पर्याय का पालन किया। वह श्रमण पर्याय को पालन करके बयालीस भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर पालोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ। 19. तए णं से वरदत्ते प्रणगारे निसलं प्रणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव परहा अरिद्रणेमो, तेणेव उवागच्छद, 2 ता जाव एवं क्यासी-"एवं खलु देवाणुपियाणं अन्तेवासी निसढे नाम अणगारे पगइमदए जाव विणीए / से गं भन्ते ! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहि उववन्ने ?" "वरदत्ता" इ अरहा परिढणेमी दरदत्तं अणगारं एवं क्यासी—"एवं खलु, वरदत्ता, ममं भन्तेवासी निसढे नाम अणगारे पगइभद्दे जाब विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एषकारस अङ्गाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामग्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई प्रणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड़ चन्दिमसूरियगहनक्खत्तताराख्वाणं सोहम्मीसाणं जाव प्रचुते तिष्णि य प्रहारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससए बीइवत्ता सम्वदृसिद्धविमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।" [16] तब वरदत्त अनगार निषधकुमार को कालगत जानकर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत इस प्रकार निवेदन किया-देवानप्रिय ! प्रकृति से भद्र यावत विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह कालमास में काल (मरण) को प्राप्त होकर कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने 'वरदत्त !' इस प्रकार से संबोधित-आमंत्रित कर वरदत्त अनगार से कहा-'हे भदन्त ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध नामक अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, नौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय में रहकर, अनशन द्वारा बयालीस भोजनों को त्याग करके आलोचन-प्रतिक्रमण पूर्वक समाधिस्थ हो. मरणावसर पर मरण करके ऊर्वलोक में, चन्द्र -नक्षत्र-तारारूप ज्योतिष्क देव विमानों, सौधर्म-ईशान आदि अच्युत देवलोकों का तथा तीन सौ अठारह गैवेयक विमानों का अतिक्रमण करके अर्थात् इनसे भी ऊपर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है / वहाँ पर देवों की तेतीस सांगरोपम की स्थिति कही गई है। निषधदेव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम की है।' निषध का मुक्तिगमन . 20. "से णं भन्ते निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिहक्खएणं अणन्तरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उवधज्जिहिइ ?" वरदत्ता ! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे महाधिवेहे वासे उन्नाए नगरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / तए णं से उम्मुक्कबालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अन्तिए केवलबोहि बुमिता अगाराओ प्रणगारियं पश्यज्जिहिइ / से णं तस्य प्रणगारे भविस्सइ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [वह्निक्शा इरियासमिए जाव गुत्तबम्भयारी। से गं तत्थ बहूई चउत्थछट्टमवसमदुवालसेहि मासखमासखमणेहि विचित्तेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं मावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, 2 ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिइ, 2 ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेइहिइ, जस्सट्टाए कोरइ नग्गमावे मुण्डभावे अण्हाणए जाव अदन्तवणए अच्छत्तए अणोवाहणाए फलहसेज्जा कटुसेज्जा केसलोए * बम्भचेरवासे परघरपवेसे पिण्डवानो लद्धावलद्ध उच्चावया य गामकण्टगा अहियासिज्जइ, तमटुं आराहिइ, 2 ता चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहि सिज्झिहिइ बुझिहिइ जाव सम्वदुक्खाणं अन्तं काहिइ।" निक्खेवओ-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं वहिवसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बेमि / एवं सेसा वि एक्कारस अज्झयणा नेयव्या संहगणो-अणुसारेण अहोणमइरित्त एक्कारससु वि। ॥पञ्चमो वग्गो समत्तो॥ [20] तदनन्तर वरदत्त अनगार ने पूछा-'भदन्त !' वह निषध देव प्रायुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के पश्चात् वहाँ से च्यवन करके कहाँ जाएगा ? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया--'पायुष्मन् वरदत्त ! इसी जम्बू द्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उन्नाक नगर में विशुद्ध पितृवंश वाले राजकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा ! तब वह बाल्यावस्था के पश्चात समझदार होकर युवावस्था को प्राप्त करके तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर अगार त्याग कर अनगार प्रव्रज्या को अंगीक ज्ञान का प्राप्त कर अगार त्याग कर अनगार प्रव्रज्या को अंगीकार करेगा / वह ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत गुप्त ब्रह्मचारी अनगार होगा। और बहत से चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दसमभक्त, द्वादशभक्त, मासखमण, अर्धमासखमणरूप विचित्र तपसाधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमणावस्था का पालन करेगा / श्रमण साधना का पालन करके मासिक संलेखना द्वारा आत्मा को शुद्ध करेगा, साठ भोजनों का अनशन द्वारा त्याग करेगा और जिस प्रयोजन के लिए नग्नभाव, मुंडभाव, स्नानत्याग यावत् दांत धोने का त्याग, छत्र का त्याग, उपानह (जूता, पादुका आदि) का त्याग तथा पाट पर सोना, काष्ठ तृण आदि पर सोना-बैठना, केशलोंच, ब्रह्मचर्य ग्रहण करना, भिक्षार्थ पर-गह में प्रवेश करना, यथापर्याप्त भोजन की प्राप्ति होना या न होना, ऊँचे-नीचे अर्थात् तीव्र और सामान्य ग्रामकंटकों (कष्टों) को सहन किया जाता है, उस साध्य पाराधना करेगा और आराधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-इस प्रकार हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने वृष्णिदशा (वह्नदशा) के प्रथम अध्ययन का यह प्राशय प्रतिपादित किया है, ऐसा मैं कहता हूँ।' शेष प्रध्ययन-इसी प्रकार से शेष ग्यारह अध्ययनों का प्राशय भी संग्रहणी-गाथा के अनुसार विना किसी हीनाधिकता के जैसा का तैसा जान लेना चाहिए / // पंचम वर्ग समाप्त // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [113 ग्रन्थ को अंतिम प्रशस्ति 21. निरयावलियासुयखन्धो समत्तो / समत्ताणि उवङ्गाणि / निरयावलियाउवङ्गणं एगो सुयखन्धो, पञ्च वग्गो पञ्चसु दिवसेसु उद्दिस्सन्ति / तत्थ चउसु वग्गेसु दस दस उद्देसगा, पञ्चमवग्गे बारस उद्देसगा। ॥निरयावलियासुत्तं समत्तं // [21] निरयावलिका नामक श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। इसके साथ ही (पांच) उपांगों का वर्णन भी पूर्ण हुना। निरयावलिका उपांग में एक श्रुतस्कन्ध है। उसके पांच वर्ग हैं, जिनका पांच दिनों में निरूपण किया जाता है। आदि के चार वर्गों में दस-दस उद्देशक हैं और पांचवें वर्ग में बारह उद्देशक हैं। ॥निरयावलिका सूत्र समाप्त // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 महाबलचरितम 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं हस्थिणापुरे नाम नगरे होत्था, वण्णओ। सहसम्बवणे उज्जाणे, वण्णाम्रो / तत्थ णं हस्थिणापुरे नगरे बले नाम राया होत्था, वण्णओ। तस्स णं बलस्स रन्नो पभावई नामं देवी होत्था, सुकुमाल० वण्णो जाव विहरइ। [1] उस काल और उस समय में हस्तिनापुर नामक नगर था। औपपातिक सूत्र में वणित चंपानगरी के समान उसका वर्णन जानना चाहिए। नगर के ईशान कोण में सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था। उसका वर्णन भी औपपातिक सूत्र के उद्यानवर्णन के समान जान लेना चाहिए। उस हस्तिनापुर नगर में बल नाम का राजा था। वह हिमवन आदि पर्वतों के समान महान् था, इत्यादि वर्णन औषपातिक सूत्र के राजवर्णन के समान समझ लेना चाहिए। उस बल राजा की प्रभावती नाम की देवी-रानी थी। उसकी शारीरिक शोभा आदि का वर्णन औषपातिक सूत्रगत राज्ञीवर्णन के अनुरूप जानना चाहिए यावत् बल राजा के साथ विपुल भोगोपभोगों का अनुभव करती हुई समय व्यतीत करती थी। 2. तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिन्तरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियघटुमठे विचित्तउल्लोगचिल्लियतले मणिरयणपणासियन्धयारे बहुसमसुविभत्तदेसमाए पञ्चवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुजोवयारकलिए कालागरुपवरकुंदुरुक्क-तुरुक्कधूवमघमघेन्तगन्धुद्ध याभिरामे सुगन्धवरगन्धिए गन्धवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए उमनो विबोयणे दुहओ उनए मज्झे नय-गम्भीरे गङ्गापुलिणवालयउद्दालसालिसए उचियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणगल्यबूरनवणीयतूलफासे सुगन्धवरकुसुमचुण्णसयणोवयारकलिए प्रद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी पोहोरमाणी अयमेयारूवं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरियं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा। [2] उस प्रभावती देवी ने किसी समय उत्तम और सुरुचिपूर्ण चित्रों के पालेखन से युक्त भीतरी ' भाग वाले और बाहर से लिपे-पुते, कोमल पाषाण से घिसे जाने से चिकने, उपरिम एवं अधोभाग वाले विविध प्रकार के दीप्यमान चित्रामों से सुशोभित, मणि एवं रत्नों के प्रकाश से अंधकार रहित, बहुसम, सुविभक्त कक्ष और प्रकोष्ठों वाले पंच वर्ण के सरस और सुगंधित पुष्पपुजों से उपचरितसजाए हुए, उत्तम कृष्ण अगर, कुन्दरुष्क, तुरुष्क एवं धूप की सुगंध से महकते, सुरभित पदार्थों से सुवासित एवं सुगंध-गुटिका के समान अनुपम वासगृह (भवन) में स्थित और शरीर प्रमाण लंबी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [115 चौड़ी, सिरहाने और पैहताने दोनों ओर से तकिया युक्त, दोनों ओर से उन्नत, मध्य में कुछ नमी हई. गंगा की तटवर्ती रेती के अवदाल (पर रखने पर धंसती हई) वाल के समान कोमल, क्षोमिकरेशमी दुकूल पट से आच्छादित, राजस्त्राण से ढंकी हुई, रक्तांशुक (मच्छरदानी) से परिवेष्टित, सुरम्य आजिनक (मृगछाला) रुई, बूर, नवनीत, अर्कतूल (पाक की रुई) के समान कोमल स्पर्शवाली, सुगंधित, उत्तम पुष्प-चूर्ण और अन्य शयनोपचार से युक्त पुण्यशालियों के योग्य शैया पर अर्धरात्रि के समय अर्धनिद्रित अवस्था में सोते हुए उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारक, शोभायुक्त महास्वप्न देखा और देखकर जाग्रत 3. हाररययखीरसागरससङ्ककिरणदगरयरययमहासेलपण्डुरतरोरुरमणिज्जपेच्छणिज्जं थिरलट्ठपउट्ठवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिद्धतिक्खदाढाविडम्बियमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइअसोभन्तलट्ठउठें रत्तप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगताविअआवत्तायन्तवट्टतडिविमलसरिसनयणं विसालपोवरोहपडिपुण्णविपुलखन्धं मिउविसदसुहमलक्खणपसत्यवित्थिण्णकेसरसडोवसोमियं ऊसियसुनिम्मितसुजायनप्फोडिलङ गुलं सोमं सोमाकारं लोलायन्तं जम्मायन्तं नहयलामो ओवयमाणं निययवयणमतिवयन्तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / [3] वह प्रभावती रानी मोतियों का हार, रजत (चांदी), क्षीरसमुद्र, चंद्रकिरण, जलबिन्दु, रजत महाशैल (वैताढ्य पर्वत) के समान श्वेत-धवल वर्ण वाले, विशाल, रमणीय, दर्शनीय, स्थिर और सन्दर प्रकोष्ठ वाले, गोल, पृष्ट, सश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढायों से य मूह को फाड़े हुए, संस्कारित उत्तम कमल के रामान सुकोमल, प्रमाणोपेत प्रोष्ठों से अतीव सुशोभित, रक्त कमलपत्र के समान अत्यन्त कोमल तालु और जीभ वाले, मूस में रहे हुए एवं अग्नि में तपाए और पावर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल तथा बिजली के समान निर्मल प्रांखों वाले, विशाल और पुष्ट जंघाओं वाले, परिपूर्ण एवं विपुल स्कंधयुक्त, मृदु विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षणों से युक्त केसर से शोभित, सुन्दर और उन्नत पूछ को पृथ्वी पर फटकारते हुए, सौम्य, सौम्य प्राकार वाले, लीला करते हुए, उवासी (जंभाई) लेते हुई सिंह को आकाश से नीचे उतरकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ देख जाग्रत हुई / 4. तए णं सा पभावई देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव सस्सिरियं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया धाराहयकलम्बपुष्फगं पिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, 2 ता अतुरियमचवलमसंभन्ताए अविलम्बियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रन्नो सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता बलं रायं ताहि इट्टाहि कन्ताहिं पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहि पोरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहिं मङ्गलाहिं सस्सिरीयाहि मियमहुरमञ्जुलाहि गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ, 2 ता बलेणं रना अब्मणुनाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि महासणंसि निसीय इ, 2 त्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहि इटाहि कन्ताहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी [4] तदनन्तर इस प्रकार के उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न को देखकर जाग्रत हुई वह प्रभावती देवी हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय और मेघ की धारा से विकसित कदम्ब पुष्प के Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [महाबल समान रोमांचित होती हुई स्वप्न का स्मरण करने लगी और स्वप्न का स्मरण करती हुई शय्या से उठी एवं शीघ्रता, चपलता, संभ्रम और विलंब के बिना राजहंस के समान उत्तम गति से गमन कर बल राजा के शयनगृह में पाई / आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (मनोहर), उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल, सुन्दर, मित, मधुर और मंजुल वाणी से बोलते हुए बल राजा को जगाया। जागने पर बल राजा की प्राज्ञा-अनमति स्वागतपर्वक विचित्र मणिरत्नों से रचि युक्त भद्रासन पर बैठी। सुखासन पर बैठने के अनन्तर स्वस्थ एवं शांतमना होकर इष्ट, प्रिय यावत् मधुर वाणी से उसने बल राजा से इस प्रकार निवेदन किया 5. "एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिगण० तं चेव जाव नियगवयणमइक्यन्तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / तं णं देवाणुप्पिया! एतस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?" तए णं से बले राया पभावईए देवीए अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ जाव हयहियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमंव चञ्चुमालइयतणयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ईहं पविसइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविनाणेणं तस्स सुविणस्स प्रत्यागहणं करेइ, 2 ता पभावई देवि ताहि इट्टाहि कन्ताहि जाव मङ्गलाहि मियमहरसस्सिरीयाहि वहि. संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी [5] देवानुप्रिय ! बात यह है कि आज मैंने सुख-शय्या पर शयन करते हुए स्वप्न में एक मनोहर सिंह को अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए देखा है / हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याण रूप फल विशेष होगा? तब प्रभावती देवी की इस बात तो सुनकर और विचार कर बल राजा हर्षित, संतुष्ट, विकसितहृदय यावत् मेघधारा के स्पर्श होने पर विकसित सुगंधित कदम्ब-पुष्प के समान रोमांचित शरीर वाला हुआ। उसने स्वप्न का अवग्रह (सामान्य विचार) किया, फिर ईहा (विशेष विचार) की / ईहा करके अपने स्वाभाविक मतिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का अर्थावग्रह-निश्चय किया निश्चय करके इष्ट, कांत, यावत् मंगल, मित, मधुर सश्रीक वाणी से संलाप करते हुए इस प्रकार कहा 6. अोराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे, कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी सुविणे दिठे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ-कल्लाण-मङ्गलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दि→, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलामो देवाणुप्पिए! रज्जलामो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणयराइंबियाणं विइकन्ताणं अम्हं कुलके उं कुलनन्दिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपञ्चिन्दियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कन्तं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसमप्पमं दारगं फ्याहिसि / [6] देवी ! तुमने उदार-उत्तम स्वप्न देखा है, तुमने कल्याणकारक यावत् शोभनीय स्वप्न देखा है / देवी! तुमने प्रारोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष्य-दायक, कल्याण-मंगलकारक स्वप्न देखा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [117 है। देवानुप्रिये ! अर्थलाभ होगा, देवानुप्रिये ! भोगलाभ होगा, देवानुप्रिये ! पुत्रलाभ होगा, देवानुप्रिये ! राज्यलाभ होगा। देवानुप्रिये ! परिपूर्ण नौ मास और साढे सात दिन बीतने पर तुम अपने कुल के ध्वज समान, कुल को पानंद देने वाले, कुल की यशोवृद्धि करने वाले, कुल के लिए आधारभूत, कुल में वृक्ष के समान, कुल-वृद्धिकारक, सुकुमाल हाथ-पैर प्रमाणोपेत अंग-प्रत्यंग एवं परिपूर्ण पंचेन्द्रिय युक्त शरीर वाले यावत् चन्द्र के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त (ओजस्वी) प्रियदर्शन, सुरूप एवं देवकुमारवत् प्रभावाले पुत्र का प्रसव करोगी / 7. से वि य गं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरियणमेत्ते जोव्यणगमणुप्पत्ते सूरे बोरे विक्फन्ते विस्थिग्णविउलबलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ / तं उराले णं तुमे, जाव सुमिणे विट्ठे, आरोग्ग-तुट्टि० जाव मङ्गलकारए गं तुमे देवी! सुविणे दिठेत्ति कटु पभावई देवि ताहि इट्टाहि जाय बग्गूहि दोच्चं पि तच्चं पि अणुबहइ / [7] वह पुत्र भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ एवं परिणत-पुष्ट शरीर हो युवावस्था को प्राप्त करके शूरवीर, पराक्रमी, विस्तीर्ण-विशाल और विपुल बल (सेना) तथा वाहन वाले राज्य का अधिपति-राजा होगा। अतएव तुमने उदार यावत् स्वप्न देखा है, देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टिप्रद, यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार कहकर इष्ट वाणी से इसी बात को दूसरी और तीसरी बार भी प्रभावती देवी से कहा / 8. तए णं सा यमावई देवी बलस्स रन्नो अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ० करयल जाय एवं क्यासी-'एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुम्भे वयह' ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छा, २त्ता बलेणं रना अन्भणुनाया समाणी नाणामणि-रयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुइ, 2 ता प्रतुरियमचवल जाव गईए सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता सयणिज्जंसि निसीयइ, 2 ता एवं वयासी-'मा मे से उत्तमे पहाणे मङ्गल्ले सुविणे अन्नेहि पावसुमिणेहि पडिहम्मिस्सइ' त्ति कटु देवगुरुजणसंबद्धाहि पसत्याहिं मङ्गलाहिं धम्मियाहि कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरह। [8] बल राजा से इस फलकथन को सुनकर और हृदय में धारण कर प्रभावती देवी हृष्टतुष्ट हो यावत् दोनों हाथ जोड़कर अंजलि पूर्वक इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह इसी प्रकार है, देवानुप्रिय ! वह यथार्थ है, देवानुप्रिय ! सत्य है, देवानुप्रिय ! संदेहरहित है देवानुप्रिय ! वह मुझे इच्छित है, देवानुप्रिय ! मुझे स्वीकृत है, देवानुप्रिय ! इच्छित एवं अभिलषित है / वह वैसा ही है, जैसा आपने कहा है। इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के प्राशय (भाव) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। फिर बल राजा से अनुमति लेकर अनेक प्रकार के मणिरत्नों से रचित चित्रामों वाले भद्रासन से उठाकर शीघ्रता एवं चपलता रहित गति से चलकर अपने शयनागार में आई और प्राकर अपनी शैया पर बैठी। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [महाबल शैया पर बैठकर इस प्रकार विचार करने लगी-यह मेरा उत्तम, प्रधान, मंगलरूप स्वप्न अन्य दूसरे पाप-स्वप्नों से प्रतिहत न हो जाए ! ऐसा सोचकर देव-गुरुजन संबन्धी प्रशस्त मांगलिक कथाओं से जागरण करती रही 1 9. तए णं से बले राया कोडुम्बियपुरिसे सहावेह, २त्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव, मो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गन्धोदयसित्तसुइअसंमज्जिवलितं सुगन्धवरपञ्चवण्णपुप्फोक्यारकलियं कालागरुपवरकुदुरुक्क० जाब गन्धवट्टिभूयं करेह य करावेह य, २त्ता सीहासणं रएह, 2 त्ता ममेयं जाव पच्चप्पिणह / तए णं ते कोडुम्बिय० नाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पच्चप्पिणन्ति। [6] तत्पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनको यह प्राज्ञा दी-देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही आज बाहर की उपस्थानशाला (सभाभवन) को विशेष रूप से गंधोदक का छिड़काव करके स्वच्छ करो, लीप-पोतकर शुद्ध करो, सुगंधित और उत्तम पंच वर्ण के पुष्पों से उपचरित करो-सजाओ यावत् काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क और धूप को जलाकर गंधतिका के समान करो और करवाओ। फिर सिंहासन रखो और ऐसा करके आज्ञानुरूप कार्य होने की मुझे सूचना दो। इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् प्रादेश स्वीकर करके शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला को विशेष रूप से स्वच्छ आदि करके आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दी। 10. तए गं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सणिज्जाओ अमुळेइ, २त्ता पायपीढायो पच्चोरुहइ, 2 ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपविसइ, जहा उववाइए, तहेव मज्जणघरे, जाव ससि व्व पियदंसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, 2 त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, २त्ता सोहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयइ, 2 त्ता अप्पणो उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चत्थुथाई सिद्धत्थगकयमङ्गलोक्याराई रयावेह, 2 त्ता प्रप्पणो अदूरसामन्ते नाणामणिरयणमण्डियं अहियपेच्छणिज्जं महग्धवरपट्टणुग्गयं सहपट्टबहुत्तिसयचित्तताणं ईहामियउसभ जाव भत्तिचित्तं अभिन्तरियं जवणियं अञ्छावेइ, 2 त्ता नाणामणिरयणत्तिचित्तं प्रत्थरयमउयमसूरगोत्थयं सेयवत्थपच्चत्युयं अङ्गसुहफासुयं सुमउयं पभावईए देवीए भद्दासणं रयावेइ, 2 ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी [10] तदनन्तर प्रातःकाल होने पर बल राजा अपनी शय्या से उठा और पादपीठ से नीचे उतरा। उतरकर जहाँ व्यायामशाला थी, वहाँ गया। जाकर व्यायामशाला में प्रवेश किया और जैसा औपपातिक सूत्र में व्यायामशाला और स्नानगृह संबन्धी कूणिक राजाकृत कार्यों का वर्णन है, तदनुरूप करके यावत् चन्द्र के समान प्रियदर्शन नरपति स्नानगृह से बाहर निकला। निकलकर जहाँ सभाभवन था, वहाँ आया और आकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ गया / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [119 बैठने के पश्चात् अपने उत्तर-पूर्व दिग्भाग-ईशान कोण में श्वेत वस्त्र से आच्छादित तथा सरसों आदि मांगलिक पदार्थों से उपचरित-संस्कारित पाठ भद्रासन रखवाए। और फिर अपने समीप ही अनेक प्रकार के मणिरत्नों से मंडित अतीव दर्शनीय, महामूल्यवान् उत्तम वस्त्र से निर्मित चिकनी, ईहामृग, वृषभ आदि विविध प्रकार के चित्रामों से चित्र विचित्र एक यवनिका डलवाई और उसके अन्दर प्रभावती देवी के लिए भाँति-भाँति के मणिरत्नों से रचित, विचित्र श्वेत वस्त्र से प्राच्छादित, सुखद स्पर्श वाला सुकोमल, गद्दीयुक्त भद्रासन रखवाया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा 11. 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अट्ठङ्गमहानिमित्तसुत्तत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह / ' तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रन्नो अन्तियाओ पडिनिक्खमइ, सिग्धं तुरियं चबलं चण्डं वेइयं हस्थिणापुर नगरं मझमज्झेणं जेणेव तेसि सुविणलक्खणपाढगाणं गिहाई, तेणेव उवागच्छन्ति, 2 त्ता ते सुविणलक्खणपाढए सद्दावेन्ति / तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रनो कोडुम्बियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हद्वतुट्ठ० व्हाया कय० जाव सरीरा सिद्धत्थगहरियालियकयमङ्गलमुद्धाणा सएहितो गिहेहितो निग्गच्छन्ति, हस्थिणापुरं नगरं मझमझेणं जेणेव बलस्स रन्नो भवणवरडिसए तेणेव उवागच्छन्ति, करयल बलरायं जएणं विजएणं कद्धावेन्ति / तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रना वन्दियपूइप्रसक्कारियसंमाणिया पत्तेयं पत्तेयं पुठवनत्थेसु भद्दासणेसु निसीयन्ति / [11] देवानुप्रियो ! शीघ्र ही सूत्र और अर्थ सहित अष्टांग महानिमित्तों के ज्ञाता, विविधशास्त्रों में प्रवीण स्वप्नलक्षणपाठकों को बुलाओ। तब वे कौटुम्बिक पुरुष प्राज्ञा स्वीकार करके बल राजा के पास से निकले और शीघ्र, त्वरित, चपल और प्रचंड गति से हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होते हुए जहाँ स्वप्नलक्षणपाठकों के घर थे, वहाँ पहुँचे और स्वप्नलक्षणपाठकों को बुलाया। तत्पश्चात् उन बल राजा के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा आमंत्रित किये जाने पर स्वप्नलक्षणपाठक हर्षित एवं संतुष्ट हुए ! स्नान, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त किये हुए यावत् शरीर को अलंकृत कर तथा मस्तक पर सरसों और हरी-दूब से मंगल करके वे अपने-अपने घर से निकले तथा हस्तिनापुर नगर के मध्य भाग से होकर जहाँ बल राजा का श्रेष्ठ राजप्रासाद था, वहाँ आये। आकर दोनों हाथ जोड़ जय-विजय शब्दों से बल राजा को बधाया-उसका अभिवादन किया। तदनन्तर बल राजा द्वारा वंदित, पूजित-सत्कारित और सम्मानित किए हुए वे स्वप्नलक्षणपाठक अपने लिए पहले से रखे हुए भद्रासनों पर बैठे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [महाबल 12. तए णं से बले राया पभावहं देवि जवणियन्तरियं ठावेद, 2 ता पुप्फफलपडिपुग्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-'एवं खल, देवाणुप्पिया! पभावई देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं णं, देवाणुप्पिया! एयस्स पोरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फल वित्तिविसेसे मविस्सइ ? . [12] तब बल राजा ने प्रभावती देवी को बुलाकर यवनिका के पीछे बिठाया और हाथों में पुष्प-फल लेकर अतिशय विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार निवेदन किया-- 'देवानुप्रिय ! अाज तथारूप (पूर्ववणित) वासगृह में शयन करते हुए प्रभावती देवी स्वप्न में सिंह को देखकर जाग्रत हई है, तो हे देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् मंगलरूप स्वप्न का क्या कल्याणकारक फल विशेष होगा ? 13. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रनो अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ तं सुविणं प्रोगिण्हन्ति, ईहं अणुप्पविसन्ति, तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेन्ति, 2 ता अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेन्ति, तस्स सुविणस्स लट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रनो पुरनो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा 2 एवं क्यासी "एवं खलु देवाणुपिया! अम्हं सुविणसस्थसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बायत्तरि सन्त्रसुविणा विट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिया, तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कट्टिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्मन्ति, तं जहा 'गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं शयं कुम्भं / पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च // वासुदेवमायरो वा बासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोदसण्ह महासुविणाणं सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति / बलदेवमायरो बलदेवसि गम्भ वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्ह महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति / मंडलियमायरो मंडलियंसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति / इमे य णं, देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए एगे महासुविणे विठे अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवाणुप्पिए ! पुत्तलामो देवाणुप्पिए ! रज्जलामो देवाणुप्पिए ! एवं खलु देवाणुप्पिए ! पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीइक्कन्ताणं तुम्हं कुलकेउं जाव पयाहिइ / से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भाषियप्पा। तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिठे जाव आरोग्ग तुट्ठि-दोहाउअंकल्लाणं जाव दिळें / [13] राजा के इस प्रश्न को सुनकर और अवधारित कर उन स्वप्नपाठकों ने हृष्ट-तुष्ट स स्वप्न के विषय में सामान्य विचार किया। फिर विशेष विचार किया। स्वप्न के अर्थ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [121 का निश्चय किया। आपस में एक-दूसरे से विचार-परामर्श किया और स्वप्न के अर्थ को स्वयं जानकर एक-दूसरे से पूछकर, जिज्ञासा का समाधान कर और अर्थ का भलीभांति निर्णय करके, स्वप्नशास्त्र के मत को कहते हुए बल राजा से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हमने स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न सब मिलाकर बहत्तर स्वप्न देखे हैं / देवानुप्रिय ! उनमें से तीर्थंकर की माताएँ तथा चक्रवर्ती की माताएँ जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं / यथा 1 हाथी 2 ल 3 सिंह 4 अभिषेक 5 पुष्पमाला 3 चन्द्र 7 सूर्य 8 ध्वजा 6 कलश 10 पद्मसरोवर 11 सागर 12 भवन अथवा विमान 13 रत्नराशि और 14 निर्धूम अग्नि / इन चौदह महास्वप्नों में से वासुदेव की माता जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब कोई भी सात महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं, तब उनकी माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई चार महास्वप्न देखती हैं / मांडलिक राजा के गर्भ में आने पर उसकी माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखती हैं। देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है / देवानुप्रिय ! इससे आपको अर्थलाभ होगा, देवानुप्रिय ! भोगलाभ होगा, देवानुप्रिय ! पुत्रलाभ होगा, देवानुप्रिय ! राज्य का लाभ होगा / देवानुप्रिय ! नौ मास और साढे सात दिन बीतने पर प्रभावती देवी आपके कुल में ध्वज के समान (यावत्) पुत्र को जन्म देगी और वह बालक भी बाल्यावस्था पारकर यावत् राज्याधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। अतएव हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने यह उदार स्वप्न देखा है यावत्, तुष्टि, दीर्घायुष्य और कल्याणकारी स्वप्न देखा है / 14. तए णं से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अन्तिए एयमटु सोच्चा निसम्म हट्टतुटु करयल जाव कटु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं क्यासो-'एवमेयं, देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, २त्ता सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाण-खाइमसाइम-पुप्फ-वत्थ-गन्ध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ संमाणेइ, 2 ता विउलं जोवियारिहं पोइदाणं दलया, 2 ता पडिविसज्जेइ, 2 त्ता सोहासणाओ अम्भुठेइ, 2 ता जेणेव पभावई देवो तेणेव उवागच्छा, 2 त्ता पभावहं देवि ताहि इट्ठाहि कन्ताहिं जाव संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिए तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चेव जाव अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति / इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे विठे, तं अोराले णं तुमे देवो ! सुविणे दिठे, जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे, देवो ! सुविणे दि→' ति कट्ट पभावइं देवि ताहि इटाहिं कन्ताहि जाव दोच्चं पि तच्च पि अणुबूहइ / [14] स्वप्नलक्षणपाठकों से उपर्युक्त स्वप्न-फल सुनकर एवं अवधारित कर बल राजा हृष्ट-तुष्ट हुा / वह हाथ जोड़कर यावत् अंजलि करके उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार बोला Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [महाबल देवानुप्रियो ! जैसा प्रापने स्वप्नफल बताया है, वह उसी प्रकार है। इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के अर्थ को समीचीन रूप में स्वीकार किया और फिर उन स्वप्नलक्षण-पाठकों का विपुल अशन पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से सस्कार-सम्मान किया, सत्कृत सम्मानित करके आजीविका के योग्य पुष्कल प्रीतिदान देकर उन्हें विदा किया। इसके बाद सिंहासन से उठकर जहाँ प्रभावती देवी थी, वहाँ आया। प्राकर इष्ट, कान्त यावत् वार्तालाप करते हुए प्रभादेवी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न सब मिलाकर बहत्तर स्वप्न बताए हैं। उनमें से देवानुप्रिये ! तीर्थकर की माता अथवा चक्रवर्ती की माता चौदह स्वप्न देखती हैं, इत्यादि पूर्वोक्त कथन यहाँ जान लेना चाहिए / देवानुप्रिये ! तुमने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। देवी ! तुमने इनमें से एक उत्तम महास्वप्न देखा है यावत् जन्म लेकर बालक राज्याधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा / देव तुमने श्रेष्ठ स्वप्न को देखा है, इस प्रकार से इष्ट, कान्त यावत मधुर वाणी से दो तीन बार (बारबार) कहकर प्रभावती देवी की प्रशंसा की / 15. तए णं सा पभावई देवी बलस्स रन्नो अन्तियं एयमह्र सोच्चा निसम्म हद्वतुट करयल जाव एवं वयासी—'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, २त्ता बलेणं रम्ना अन्भगुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्त जाव अम्भुठेइ / अतुरियमचवल जाव गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता सयं भवणमणुपविट्ठा। [15] तब प्रभावती देवी बल राजा का कथन सुनकर और हृदयंगत कर हृष्ट-तुष्ट होकर यावत हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! यह ऐसा ही है, जैसा आप कहते हैं यावत उसने स्वप्नफल को भलीभांति ग्रहण किया। बल राजा की अनुमति लेकर अनेक प्रकार के मणिरत्नों के चित्रामों से युक्त भद्रासन से उठी और विना किसी शीघ्रता तथा चपलता के यावत (हंस) गति से चलकर अपने प्रावासगृह में पाई / भवन में प्रविष्ट हुई / 16. तए णं सा पभावई देवी व्हाया कयलिकम्मा जाव सव्वालंकारविभूसिया तं गम्भ माइसीएहि नाइउण्हेहिं नाइतितेहिं नाइक/एहि नाइकसाएहिं नाइमहुरेहि उउभयमाणसुहेहि भोयणच्छायणगन्धमल्लेहि जं तस्स गम्भस्स हियं मियं पत्थं गमपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहि सयणासहिं परिवकसुहाए मणाणुकुलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुग्णदोहला संमाणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला विणीयदोहला क्वगयरोगमोहभयपरित्तासा तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / तए णं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वोइक्कताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुष्णपञ्चिन्दियसरीरं लक्खणवजणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कन्तं पियदसणं सुरुवं दारगं पयाया। [16] तत्पश्चात प्रभावती देवी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत सर्व अलंकारों से विभूषित होकर न अत्यन्त शीतल, न अतीव उष्ण, न अति तिक्त, कटुक, काषायिक, मधुर किन्तु Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [123 प्रत्येक ऋतु के अनुकूल, गर्भ के लिए हितकारी, मित, पथ्य, गर्भ को पोषण करने वाले देश और काल के अनुसार प्रहार करती हई, विविक्त-एकान्त में सकोमल शैया प्रासन पर सोते बैठते अत्यन्त सुखद, मनोनुकूल विहार भूमि में विचरण करते हुए प्रशस्त दोहद, संपन्नदोहद, सम्मानितदोहद, सत्कारितदोहद, विच्छिन्नदोहद, व्यपनीतदोहद वाली होकर तथा राग, मोह, भय, परित्रास रहित होकर उस गर्भ का सुखपूर्वक पोषण करने लगी। __इस प्रकार से परिपूर्ण नौ मास और साढे सात रात्रि-दिन के बीतने पर प्रभावती देवी ने सुकुमाल हाथ-पैर वाले, निर्दोष प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिययुक्त शरीर वाले तथा लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त यावत् चन्द्र के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन, सुरूप पुत्र का प्रसव किया। 17. तए णं तोसे पभावईए देवीए अङ्गपडियारियाओ पभावई देवि पसूर्य जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छन्ति, करयल जाव बलं रायं जएणं विजएणं वद्धान्ति, 2 ता एवं वयासी“एवं खलु, देवाणुप्पिया! पमावईपियट्टयाए पियं निवेदेमो, पियं ते भवउ / ' तए णं से बले रामा अङ्गपडियारियाणं अन्तियं एयम? सोच्चा निसम्म हदुतुटु जाव धाराहयणीव जाव रोमकूवे तासि अङ्गपडियारियाणं मउडवज्जं जहामालियं ओमेयं दलयइ, सेयं रययामयं विमलसलिलपुण्णं भिङ्गारं च गिण्हइ, 2 त्ता मत्थए धोवइ, 2 ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, 2 ता सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेति // [17] तत्पश्चात प्रभावती देवी को अंगपरिचारिकाएँ प्रभावती देवी के पुत्रप्रसव को जानकर जहाँ बल राजा था, वहाँ प्राई। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत जय-विजय शब्दों से बल राजा को बधाई दी। फिर इस प्रकार निवेदन किया--'देवानप्रिय ! प्रभावती देवी की प्रीति के लिए हम प्रिय (समाचार) निवेदन करती हैं। आपको प्रिय हो / ' तब बलराजा ने अंगपरिचारिकामों से इस वृत्तान्त को सुनकर और हृदय में धारण कर हर्षित, संतुष्ट यावत् मेघधारा से सिंचित नीप-कुटज पुष्प के समान रोमांचित हो उन अंगपरिचारिकामों को मुकुट को छोड़कर शेष समस्त धारण किए हुए आभूषण उतारकर पारितोषिक रूप में दे दिए और फिर श्वेत रजतमय निर्मल पानी से भरे हुए भगार-कलश को लिया. लेक उनका मस्तक धोया, अर्थात् उन्हें दासीपन से मुक्त किया। उन्हें जीवननिर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान देकर सत्कारित-समानित कर विदा किया। 18. तए णं से बले राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं वयासी-'खिप्पामेव, भो देवाणुप्पिया! हथिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह, 2 ता माणुम्माणवड्ढणं करेह 2 त्ता हथिणापुरं नगरं सब्भिन्तरबाहिरियं आसियसंमज्जिवलितं जाव करेह कारवेह, 2 ता जूयसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसक्कारं वा उस्सवेह, 2 ता ममेघमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तए गं ते कोडुम्बियपुरिसा बलेणं रन्ना एवं वृत्ता जाव पच्चप्पिणन्ति / तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, तं चेव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ / उस्सुक्कं उक्करं उक्किट्ठ अदिज्जं अभिज्जं अभडप्पवेसं अदण्डकोदण्डिमं अधरिमं Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [महाबल गणियावरनाडइज्जकलियं अणगतालाचराणुचरियं अणु यमुइङ्ग अमिलायमल्लदामं पमुहयपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेइ / तए णं ते बले राया वसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए य साहस्सिए सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावमाणे य, सए य साहस्सिए य लम्भमाणे पडिच्छमाणे पडिच्छावेमाणे एवं विहरइ। __ [18] तत्पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर उनको यह आज्ञा दी-देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में कारागृह से बंदियों को मुक्त करो और मान-उन्मान (मापतोल) की वृद्धि करो। हस्तिनापुर नगर को भीतर और बाहर छिड़काव कर, बुहारकर, साफ-स्वच्छ करो और करवानो / पूजा महिमा और सत्कार के लिए यूप सहस्रों और चक्र सहस्रों को सजानो और मुझे कार्य होने की सूचना दो। तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बल राजा के इस आदेश को सुनकर हर्षित हो यावत् वापस कार्य पूर्ण होने की सूचना दी। तत्पश्चात् बल राजा व्यायामशाला में पाया इत्यादि पूर्ववत् स्नानगृह से निकला / फिर दस दिन तक नि:शुल्क (मूल्य न लेना) कर मुक्त, क्रय-विक्रय, मान-उन्मान का बर्द्धन, ऋण मुक्त धरणा देने का निषेध, घर में सभटों का प्रवेश निषेध कर तथा अनेक गणिकानों के नत्य-गान अनेक तालानुचरों द्वारा निरंतर बजाए जा रहे मृदंगों के साथ अम्लान मालाओं द्वारा नगर को विभूषित करते हुए नगरवासी और देशवासी जनों सहित स्थितिपतिका महोत्सव-पुत्रजन्मोत्सव मनाया। इस दस दिवसीय पुत्र-जन्मोत्सव में बल राजा ने सैकड़ों-हजारों-लाखों रुपये व्यय करते हुए, देते हए. दिलवाते हए एवं इसी प्रकार सैकड़ों हजारों और लाखों रुपयों की भेंट उपहार में लेते और देते हुए समय व्यतीत किया। 19. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेइ, तइए दिबसे चन्दसूरदंसणियं करेइ, छ? दिवसे जागरियं करेइ, एक्कारसमे दिवसे वीइक्कन्ते निव्वुत्ते असुइजायकम्मकरणे, संपत्ते बारसाहदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेन्ति, 2 ता जहा सिवो, जाव खत्तिए य आमन्तेन्ति, 2 ता तओ पच्छा हाया कय० तं चेव जाव सक्कारेन्ति संमाणेन्ति, २त्ता तस्सेव मित्तणाइ जाव राईण य खत्तियाण य पुरओ अज्जयपज्जयपिउपज्जयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढ कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतन्तुवद्धणकरं अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज्ज करेन्ति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रन्नो पुस्ते पभावईए देवीए असए; तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स नामधेज्जं महब्बले / ' तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेन्ति 'महम्बले ति // _ [19] तत्पश्चात् उस दारक के माता-पिता ने पहले दिन स्थितिपतिका की / तीसरे दिन बालक को सूर्य-चन्द्र का दर्शन कराया। छठे दिन जागरणरूप उत्सव विशेष किया और ग्यारह Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [125 दिन व्यतीत होने पर जाम संबन्धी प्रशचि नित्ति का कार्य करके बारहवें दिन विपुल अशन, पान, खाद्य स्वाद्य पदार्थ बनवाए और शिव राजा के समान यावत् मित्रों तथा क्षत्रियों आदि को आमंत्रित किया। तत्पश्चात् स्नान एवं बलि-कर्म किए हुए बल राजा ने भोजन आदि द्वारा उनका सत्कार सम्मान किया। फिर उन्हीं मित्रों, जाति बंधुओं यावत् राजन्यों और क्षत्रियों के समक्ष पितामह, पिता, प्रपितामह आदि से चली आ रही कुलपरंपरा के अनुसार कुलानुरूप, कुलोचित, कुल संतान (परंपरा) की वृद्धि करने वाला इस प्रकार का यह गुण-युक्त और गुण-निष्पन्न नामकरण किया-- क्योंकि हमारा यह बालक बल राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज है, अतएव हमारे इस बालक का नाम 'महाबल' हो। तब उस बालक के माता-पिता ने उसका 'महाबल' यह नामकरण किया। 20. तए णं से महम्बले दारए पञ्चधाईपरिग्गहिए, तं जहा-खीरधाईए, एवं जहा बढपइन्ने, माव निवायनिवाघायंसि सुहं सुहेणं परिवड्ढइ / तए णं तस्स महबलस्स दारगस्स सम्मापियरो अणपुटवणं टिइडियं वा चंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परंगामणं वा पयचंकमणं वा जेमामणं वा पिण्डवचणं वा पज्जपावणं वा कण्णवेहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं वा उवणयणं वा अन्नाणि य बहूणि गम्भाधाणअम्मणमाइयाइं कोउमाई करेन्ति / [20] तत्पश्चात् वह महाबल बालक क्षीरधात्री आदि पांच धाय माताओं द्वारा दृढ़प्रतिज्ञ कुमार के समान पालन किया जाता हुआ निर्वात और निर्याघात स्थान में रहे हुए चंपक वृक्ष के समान सुखपूर्वक परिवधित होने-बढ़ने लगा। इसके बाद उस महादल बालक के माता-पिता ने अनुक्रम से स्थितिपतिका-जन्म दिवस से लेकर चन्द्र-सूर्य दर्शन, जागरण, नामकरण, परंगामण घुटनों चलना, पदचंक्रमण-~-पैरों से चलना, अन्नप्राशन, पिडवर्धन (भोजन की मात्रा बढ़ाना, संभाषण करना, कर्णवेधन, वर्षगांठ, चोलोपनयन (सिरमुडन) उपनयन आदि बहुत से गर्भाधान से लेकर जन्ममहोत्सव आदि तक के कौतुक (संस्कार) किए। 21. तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो साइरेगढवासमं जाणित्ता सोभणसि तिहि-करणमक्खस-मुहत्तंसि, एवं जहा बढप्पइन्नो, जाव अलंभोगसमत्थे जाए यादि होत्था। तए णं तं महम्बलं कुमारं उम्मुक्कबालभावं जाव अलंभोगसमरणं वियाणित्ता अम्मापियरो प्रह पासायडिसए करेन्ति, मसग्गयमूसिए पहसिए इव, वण्णमओ जहा रायपसेणइज्जे, जाब पडिकवे / तेसिं गं पासायडिसगाणं बहुमजसदेसमागे एस्थ णं महेगं मवणं करेन्ति अणेगखम्मसयसंनिविठं, वण्णमो जहा रायपसेणइज्जे, पेच्छाघरमण्डवंसि जाव पडिस्वे। [21] तत्पश्चात् माता-पिता ने उस महाबल कुमार को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मूहूर्त में दृढ़-प्रतिज्ञ कुमार के समान कलाचार्य के पास कलाध्ययन के लिए भेजा यावत् वह भोग भोगने में समर्थ हो गया। इसके बाद उस महाबल कुमार को बाल्यावस्था को पार कर यावत् भोग भोगने के योग्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [महाबल जानकर माता-पिता ने आठ प्रासादावतंसकों का निर्माण कराया। वे प्रासाद अपनी ऊंचाई से आकाश को स्पर्श करते थे इत्यादि जैसा राजप्रश्नीय सूत्र में प्रासादों का वर्णन किया गया है तदनुरूप अतीव मनोहर थे, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ठोक मध्य भाग में एक विशाल भवन का निर्माण कराया / उसमें सैकड़ों खंभे लगे थे, प्रेक्षागृह मंडप बना था। वह अतीव मनोहर था इत्यादि उसका भी वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार करना चाहिए। 22. तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयावि सोभणंसि तिहि-करण-दिवसनक्खत्त-मुहुत्तंसि व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमङ्गलपायच्छित्तं सव्वालकारविभूसियं पमक्खणग-व्हाणगोय-वाइय-पसाहणढङ्गतिलककङ्कण अविहयवहुउवणीयं मङ्गलसुजम्पिएहि य वरकोउयमङ्गलोक्यारकयसन्तिकम्मं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिव्ययाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोवण-गुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउय-मङ्गलपायच्छित्ताणं सरिसरहितो रायकुलेहितो आणिल्लियाणं अट्टण्हं रायवरकन्ना एगविवसेणं पाणि गिण्हाविसु / [22] तत्पश्चात् माता-पिता ने किसी समय शुभ तिथि, करण, दिन, नक्षत्र भोर मुहूर्त में महाबल कुमार को स्नान, बलिकर्म और कौतुक मांगलिक प्रायश्चित्त कराकर सर्व अलंकारों से विभूषित किया / उबटन, स्नान, गीत, वाद्य, प्रसाधन, तिलक प्रादि करके कंकण आदि पहनाए, सौभाग्यवती नारियों ने मंगलगान किया, उत्तम कौतुक, मंगलोपचार और शांतिकर्म किए गए। समान, समान त्वचा, समान वय, समान लावण्य, रूप एवं यौवन गुणसे युक्त विनीत, समान राजकुलों से लाई हुई पाठ उत्तम राजकन्याओं से उसका एक ही दिन में पाणिग्रहण करवाया। 23. तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयाख्वं पीइदाणं दलयन्ति / तं जहा-अट्ठ हिरण कोडीमो, अट्ट सुवण्णकोडोडओ, अट्ठ मउडे मउडप्पवरे, अट्ठ कुण्डलजुए कुण्डलजुयप्पवरे, अट्ट हारे हारप्पवरे, अट्ठ प्रद्धहारे अद्धहारप्पवरे, अट्ठ एगावलीओ एगावलिप्पवरामओ, एवं अट्ठ मुत्तावलीओ, एवं कणगावलोप्रो एवं रयणावलीओ, अट्ठ कडगजोए कडगजोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, प्रट्ट खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई एवं वडगजुयलाइं, एवं पट्टजुयलाई, एवं दुगुल्लजुयलाई, अट्टसिरीओ, अट्ठ हिरोओ, एवं धिईओ, कित्तीओ, बुद्धीओ, लच्छीओ, अट्ठ नन्दाई, अट्ठ भद्दाई, अट्ठ तले तलप्पवरे, सम्वरयणामए, णियगवरभवणकेऊ, अट्ट झए प्रयप्पवरे, अट्ठ वए अयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अट्ठ नाडगाई नाडगष्पवराई बत्तोसबद्धणं नाडएणं, अट्ठ आसे आसप्पयरे, सम्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए, अट्ट हत्थी हस्थिप्पवरे, सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूदए, अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई, अट्ठ जुगाई जुगप्पवराई, एवं सिवियाओ, एवं सन्दमाणीओ, एवं गिल्लोश्रो, थिल्लोप्रो, अट्ठ वियरजाणाई वियडजाणप्पवराई, अट्ठ रहे पारिजाणिए, अट्ठ रहे संगामिए, अट्ठ मासे आसप्पवरे, अढ हत्थी हत्थिप्पवरे, अट्ठ गामे गामप्पवरे, दसकुलसाहस्सिएणं मामेणं, अट्ट दासे दासप्पवरे, एवं चेव दासीओ, एवं किङ्करे, एवं कञ्चुइज्जे, एवं वरिसधरे, एवं महत्तरए, अट्ठ सोवण्णिए ओलम्बणदोवे, अट्ठ 1-2. राजप्रश्नीय सूत्र 50 (आगम प्रकाशन समिति, व्यावर) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] [127 रुप्पामए ओलम्बणदीवे, मट्ठ सुबष्णरुप्पामए ओलम्बणदीवे, पट्ट सोवणिम उपकञ्चणदीधे, अट्ठ पञ्जरदीवे, एवं चेव तिणि वि, अट्ट सोवणिए थाले, रुप्पामए थाले, अटु सुवण्णरुप्पमए थाले, अट्ठ सोवणियाओ पत्तीओ 3, प्र? सोवणियाई थासयाई 3, अट्ठ सोवणियाई मल्लगाइं 3, प्रद सोयपिणयाओ तालियाओ 3, अट्ट सोवणियाओ कावइआओ 3, अट्ट सोवण्णिए प्रवएडए 3, अट्ट सोवणियाओ अवयवकाओ 3. प्रट सोवण्णिए पायपीढए 3, अट्र सोयरिणयाओ मिसियानो 3, प्रद सोवणियानो करोडियानो 3, अट्ट सोवण्णिए पल्लंके 3, अट्ट सोयण्णियाप्रो पडिसेज्जाओ 3, अटू हंसासणाई कोउचासणाई, एवं अट्ठ गर लासणाई, उन्नयासणाई, पणयासणाई, दोहासणाई, भद्दासणाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, अटु पउमासणाई, अट्ट दिसासोवत्थियासणाई, अट्ट तेल्लसमुग्गे, जहा रायप्पसेणइज्जे, जाव भट्ट सरिसवसमुन्गे, अट्ठ खुज्जाओ, जहा उववाइए, जाव अट्ठ पारिसीओ, अट्ठ छत्ते, अट्ठ छत्तधारीओ चेडीओ, अट्ठ चामराश्रो, अट्ठ चामरधारीओ चेडीओ, अट्ठ तालियण्टे, अट्ट तालियष्टधारीयो चेडीओ, भट्ट करोडियाधारीओ चेडीमो, अट्ठ खीरधाईओ, नाव अढ अङ्कधाईओ, अट्ट अङ्गमहियाओ, अट्ठ पहावियाओ, अट्ठ पसाहियाओ, अट्ठ वण्णगपेसीओ, अट्ट चुण्णगपेसीग्रो, अट्ठ कोट्ठागारोमो, अट्ठ देवकारीओ, अट्ठ उवस्थाणियाओ, अट्ठ नाडइज्जाओ, अट्ट कोडुम्बिणीओ, अट्ठ महाणसिणीमो, अट्ठ भाण्डागारिणीओ, अट्ट अज्झाधारिणीथ्रो, अट्ठ पुप्फधारिणीओ, अट्ठ पाणिधारिणीओ, अट्ठ बलिकारीओ, अट्ट सेज्जाकारीओ, अट्ठ अभिन्तरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ वाहिरियानो पडिहारीओ, घटु मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीनो अन्नं वा सुबहुं हिरणं वा कंसं वा दूसंवा विउलघणकणग जाव सन्तसारसावएज्जं, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलधंसाओ पकामं दाउं पकामं मोत्तु पकाम परिभाए। तए णं से महम्बले कुमारे एगमेगाए मज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयइ, एगमेगं सुवण्णकोडि दलयइ, एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलथइ, एवं तं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारि दलयइ, अन्नं वा सुबहुं हिरण्णं वा जाव परिभाएउ / तए णं से महम्बले कुमारे उप्पि पासायवरगए जहा जमाली जाव विहरइ / [23] तब माता-पिता ने उस महाबल कुमार को यह और इस प्रकार प्रीतिदान दिया--- आठ कोटि हिरण्य (चांदी की) मुद्राएं, पाठ कोटि स्वर्ण मुद्राएं, आठ श्रेष्ठ मुकुट, पाठ श्रेष्ठ कुंडलयुगल, पाठ श्रेष्ठ हार, पाठ उत्तम अर्ध हार, पाठ उत्तम एकावली हार, इसी प्रकार पाठ मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, पाठ उत्तम कटक युगल, त्रुटित युगल (बाजूबन्दों की जोड़ी), उत्तम आठ क्षीम युगल (रेशमी वस्त्रों की जोड़ी)। इसी प्रकार वटक युगल (वस्त्र विशेष की जोड़ी) पाठ उत्तम सूती वस्त्र-युगल, आठ दुकूल युगल, पाठ श्री, आठ ह्री, पाठ-आठ घृति, कीर्ति, बुद्धि, एवं लक्ष्मी की प्रतिकृतियाँ, पाठ नन्द, पाठ भद्र, पाठ उत्तम तल ताड़ वृक्ष दिए, जो सभी रत्न निर्मित थे। अपने उत्तम भवन की केतु (चिह्न) रूप पाठ श्रेष्ठ ध्वजा, दस हजार गायों के एक ब्रज के हिसाब से पाठ ब्रज-गोकुल, बत्तीस मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले एक नाटक के हिसाब से पाठ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [महाबल नाटक, आठ उत्तम अश्व (घोड़े) दिए जो सभी रत्नों से बने हुए थे और श्रीगह-कोष के प्रतिरूप थे। आठ उत्तम हाथी दिये / ये भी रत्नों के बने हुए और भांडागार के समान शोभासम्पन्न थे। पाठ यान प्रवर (श्रेष्ठ रथ) पाठ उत्तम युग्य (एक प्रकार का वाहन) इसी प्रकार आठ-आठ शिविकाएँ, स्यन, मानी, गिल्ली, थिल्ली (यान विशेष), विकट यान (खुले रथ) पारियानिक (क्रीड़ा रथ), सांग्रामिक रथ (युद्ध में काम आने वाले रथ), आठ अश्व प्रवर, पाठ श्रेष्ठ हाथो, दस हजार घरों वाले श्रेष्ठ पाठ ग्राम, पाठ श्रेष्ठ दास, ऐसे ही पाठ दासी, पाठ उत्तम किंकर, कंचुकी, वर्षधर (अन्तःपुर रक्षक) महत्तरक, पाठ सोने के, पाठचांदो के, पाठ सोने-चांदी के प्रवलंबन दीप (लटकने वाले दीपक-झाड़फानस) पाठ स्वर्ण के, पाठ चांदी के और पाठ स्वर्ण-चांदी के उत्कंचन दीपक (दंड युक्त दीपक-समाई) इसी तरह तीन प्रकार के पंजर दीप, पाठ स्वर्ण के थाल, पाठ चांदी के थाल, पाठ स्वर्ण-रजतमय थाल, पाठ सोने, चांदी और सोने-चांदी की पात्रियां, पाठ तसलियां, आठ मल्लक (कटोरे) पाठ तलिका (रकावियां) आठ कलाचिका (चमचा-सींका) पाठ अवएज (पात्र-विशेष-तापिका हस्तक-संडासी) आठ अवयक्क (चीमटा) आठ पादपीठ (वाजौठ) आठ भिषिका (आसन विशेष) आठ करोटिका (लोटा) आठ पलंग, आठ प्रतिशैया (खाट) पाठ-पाठ हंसासन, कोचासन, गरुडासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्षासन, मकरासन, दिशासौवस्तिकासन, तथा आठ तेलसमुद्गक आदि राजप्रश्नीय सूत्रगत वर्णन के समान यावत् आठ सर्षपसमुद्गक, आठ कुब्जा दासी, इत्यादि प्रोपपातिक सूत्र के अनुसार यावत् पाठ पारस देश की दासियां, आठ छत्र, आठ छत्रधारिणी चेटिकाएँ, आठ चामर, पाठ चामरधारिणी चेटिकाएँ, आठ पंखे, पाठ पंखाधारिणी चेटिकाएँ, आठ करोटिका धारिणो चेटिकाएँ, पाठ क्षीर धात्रियां (दूध पिलाने वाली धायें ) यावत् पाठ अंकधात्रियां, आठ अंगदिकाएँ, आठ स्नान कराने वालो दासियाँ, आठ प्रसाधन (शृंगार) करने वाली दासियाँ, आठ वर्णक (चंदन आदि विलेपन) पीसने-घिसने वालो दासियां, पाठ चूर्ण पोसने वाली दासियां, आठ कोष्ठागार में काम करने वाली दासियाँ, आठ हास-परिहास करने वालो दासियाँ, पाठ अंगरक्षक दासियाँ, पाठ नृत्य-नाटककारिणी दासियाँ, पाठ कौटुम्बिक दासियाँ (अनुचरी) आठ रसोई बनाने वालो दासियां, पाठ भंडागारिणी (भंडार में काम करने वालो) दासियां, पाठ पुस्तकें आदि पढ़कर सुनाने वाली दासियां, पाठ पुष्पधारिणो दासियां, आठ जल लाने वाली दासियां, पाठ वलिकर्म करने वाली (लौकिक मांगलिक कार्य करने वाली) दासियां, पाठ सेज बिछाने वाली, आठ आभ्यन्तर और पाठ बाह्य प्रतिहारी दासियां, पाठ माला गूथने वालो दासियां, पाठ प्रेषणकारिणी दासियां (संदेशवाहक दासियां) तथा इनके अतिरिक्त बहुत सा हिरण्य, स्वर्ण, वस्त्र और विपुल धन, कनक यावत सारभूत धन-वैभव दिया, जो मात कुलवंश परंपरा तक इच्छानुसार देने, भोग-परिभोग करने के लिए पर्याप्त था / उस महाबल कुमार ने भी अपनी प्रत्येक पत्नी को एक-एक हिरण्य कोटि-स्वर्ण कोटि दी, एक एक उत्तम मुकुट दिया, इस प्रकार पूर्वोक्त सभी वस्तुएं यावत् एक-एक दूती दी तथा बहुत सा हिरण्य-स्वर्ण आदि दिया, जो सात पोढो तक भोगने के लिए पर्याप्त था / 24. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहनो पसोप्पए धम्मघोसे नामं प्रणगारे जाइसंपन्ने, बण्णओ, जहा केसिसामिस्स, जाव पञ्चहि अणगारसहिं सद्धि संपरिवडे पुठवाणुपुन्धि चरमाणे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1] .. [129 गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव हस्थिणापुरे नगरे, जेणेव सहसम्बवणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छह २त्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हइ, २त्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। तए णं हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिय० जाव परिसा पज्जुवासइ / [24] उस काल और उस समय केशी स्वामी के समान जातिसम्पन्न आदि विशेषणों से युक्त अर्हत् विमल के प्रपौत्र शिष्य (शिष्यानुशिष्य) धर्मघोष नामक अनगार यावत् पांच सौ अनगारों के साथ अनुक्रम से विहार करते हुए ग्रामानुग्राम गमन करते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवन उद्यान में पधारे और यथायोग्य अवग्रह लेकर संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तब हस्तिनापुर नगर के शृगाटकों, त्रिकों आदि में उनके आगमन की चर्चा होने लगी यावत् परिषद पर्युपासना करने लगी। 25. तए णं तस्स महब्बलस्त कुमारस्स तं महया जणसई वा जणवहं वा एवं जहा जमाली तहेव चिन्ता, तहेव कञ्चुइज्जपुरिसं सद्दावेइ, कञ्चुइज्जपुरिसो वि तहेव अक्खाइ, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल० जाय निग्गच्छइ / एवं खलु देवाणुप्पिया, विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे नाम अणगारे, सेसं तं चेव जाव सो वि तहेव रहवरेणं निग्गच्छइ / धम्मकहा जहा केसिसामिस्स / सो वि तहेव अम्मापियरो आपुच्छइ, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अन्तियं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पध्वइत्तए। तहेव वृत्तपडिवुत्तया, नवरं इमानो य ते जाया, विउलरायकुलवालियाओ, कला० सेसं तं चेव जाव ताहे अकामाइं चेव महम्बलकुमारं एवं * वयासी-'तं इच्छामो ते, जाया, एगदिवसमावि रज्जसिरि पासित्तए'। तए णं से महब्बले कुमारे अम्मापियराणं वयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ / [25] तत्पश्चात् उस महाबल कुमार ने उस महान् जन-कोलाहल को सुनकर और जनसमूह एक ही दिशा में जाते देखकर जमालिकुमार के समान विचार किया। कंचुकी पुरुषों को बुलाया / कंचुको पुरुषों ने उसी प्रकार कारण बतलाया। किन्तु इतना अन्तर है कि उन कंचुकी पुरुषों ने धर्मघोष अनगार के आगमन के निश्चित समाचार जानकर हाथ जोड़ महाबल कुमार से निवेदन किया--देवानुप्रिय ! अर्हत् विमल प्रभु के प्रपौत्र शिष्य धर्मघोष अनगार यहाँ पधारे हैं, यावत् जनसमूह उनकी उपासना करने जा रहा है। शेष वर्णन उसी प्रकार है यावत् वह महाबल कुमार भी जमाली की तरह उत्तम रथ पर आरूढ़ होकर दर्शन-वंदनार्थ निकला। धर्मघोष अनगार ने केशी स्वामी के समान धर्मोपदेश दिया। उस महाबल कुमार ने भी उसी प्रकार माता-पिता से पूछा किन्तु अन्तर यह है कि धर्मघोष अनगार के पास मुडित होकर अगार त्याग कर अनगार प्रव्रज्या से प्रवजित होना चाहता हूँ, ऐसा कहा / जमालिकुमार के समान महाबल कुमार और उसके माता-पिता के बीच उत्तर-प्रत्युत्तर हुए यावत् उन्होंने कहा हे पुत्र ! यह विपुल धन और उत्तम राज्यकुल में उत्पन्न हुई, कलाओं में कुशल आठ बालाओं को त्याग कर अभी दीक्षा मत लो आदि यावत् जब माता-पिता उसे समझाने में Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [महाबल समर्थ नहीं हुए तब अनिच्छापूर्वक महाबलकुमार से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! एक दिन के लिए ही सही किन्तु हम तुम्हारी राज्यश्री को देखना चाहते हैं।' तब महाबल कुमार माता-पिता को उत्तर न देकर मौन ही रहा / 26. तए णं से बले राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियन्यो, जाव अभिसिञ्चइ / करयलपरिग्गहियं महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वद्धान्ति, 2 त्ता जाव एवं क्यासी--'मण, जाया, कि पयच्छामो,' सेसं जहा जमालिस्त तहेव, जाय / [26] तत्पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / यावत् महाबल कुमार को शिवभद्र के समान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया, इत्यादि वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए। अभिषेक के पश्चात् दोनों हाथ जोड़ जय-विजय शब्दों से महाबल कुमार को बधाया, यावत् इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! बताओ हम तुम्हें क्या दें ? इत्यादि शेष समस्त वर्णन जमालि के समान जानना चाहिए। 27. तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अन्तियं सामाइयाई चोद्दस्स पुन्वाई अहिज्जइ, २त्ता बहूहि चउत्थ जाव विचितहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए आलोइय पडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ड चन्दिमसूरियं जहा अम्मडो, जाव बम्भलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पत्नत्ता, तत्थ णं महब्बलस्स वि दस सागरोक्माई ठिई पन्नत्ता। तत्पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष स्थविर के पास सामायिक से प्रारम्भ कर चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से चतुर्थभक्त (उपवास) यावत् विविध विचित्र तपःकर्म से आत्मा को भावित-शोधित करते हए परिपूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन कि पालन करके एक मास की संलेखना पूर्वक साठ भक्तों का अनशन द्वारा त्याग कर पालोचनाप्रतिक्रमण करते हुए समाधि सहित काल मास में कालप्राप्त हो यावत् अम्बड के समान ऊर्ध्व दिशा में चन्द्र सूर्य प्रादि से बहुत दूर पर ब्रह्मलोक कल्प में देवरूप से उत्पन्न हुए। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति होती है / महाबल देव की भी दस सागर की स्थिति हुई। (हे सुदर्शन ! तुम पूर्वभव में दस सागरोपम पर्यन्त दिव्य भोगोपभोगों को भोगकर आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर इसी वाणिज्यग्राम नगर के श्रेष्ठी कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न हुए हो।) (भगवतीसूत्र शतक 11, उद्देशक 11 से) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 दृढप्रतिज्ञ : (सम्बद्ध अंश) 1. तए णं तं वढपइन्नं दारगं अम्मापियरो साइरेगअट्ठवासजायगं जाणित्ता सोमणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहत्तंसि व्हागं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता महया इडिसक्कारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिन्ति / [1] तत्पश्चात् दृढप्रतिज्ञ बालक को कुछ अधिक आठ वर्ष का होने पर माता-पिता शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में स्नान, बलिकर्म, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्त कराके और अलंकारों से विभूषित कर ऋद्धि-वैभव, सरकार, समारोहपूर्वक कलाशिक्षण के लिए कलाचार्य के पास ले जाएंगे। 2. तए णं से कलायरिए तं दढपइन्नं दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावतरि कलाओ सुत्तओ अत्थानो पसिक्खावेहिइ य सेहावेहिइ य / तं जहा-लेहं गणियं रूवं नटें गोयं वाइयं सरगयं पोक्खरगयं समतालं जयं जणवायं पासगं अट्ठावयं पोरेकच्चं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं अज्जं पहेलियं मागहियं गाहं गोइयं सिलोगं हिरण्णजुत्ति सुवण्णजुत्ति चुण्णजुत्ति प्राभरणविहि तरुणीपडिकम्म इस्थिलकखणं पुरिसलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं कुक्कुडलक्खणं छत्तलखणं दण्डलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागणिलक्खणं वत्थुविज्ज नगरमाणं खन्धवारं चारं पडिचारं हं पडिवूहं चक्कवूहं सगडवूहं जुद्ध नियुद्ध जुद्धाइजुद्ध अटिजुद्ध मुट्ठिजुद्ध बाहुजुद्ध लयाजुद्ध ईसस्थ छरुप्पवायं धणुष्वेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं सुत्तखेड्डं वट्टखेड्डं नालिखाखेड्डं पत्तच्छेज्जं कडगच्छेज्ज सज्जीवं निज्जीवं सउणरुयमिति / [2] तब कलाचार्य उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक को गणित जिनमें प्रधान है, ऐसी लेख (लिपि) आदि शकुनिरुत (पक्षियों की स्वर ध्वनि-बोली) पर्यन्त बहत्तर कलाओं को सूत्र (मूल) से, अर्थ से (विस्तार से व्याख्या करके), ग्रन्थ से (पठन-पाठन) तथा प्रयोग से सिद्ध करायेंगे, अभ्यास कराएंगे। गणित से शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कलानों के नाम इस प्रकार हैं-१. गणित, 2. लेखन 3. रूप सजाने की कला, 4. नाटक अथवा नत्य करने की कला, 5. संगीत, 6. वाद्य बजाना, (ऋषभ, गंधार आदि संगीत स्वरों का ज्ञान), 8. बाद्य सुधारना, 6. गीत और वाद्यों के सुर-ताल की समानता का ज्ञान, 10 चूत–जुमा खेलना, 11. वार्तालाप और वाद-विवाद करने की प्रक्रिया का ज्ञान, 12. पांसों से खेलना, 13. चौपड़ खेलना, 14. तत्काल काव्य-कविता की रचना करना, 15. जल और मिट्टी को मिलाकर वस्तु निर्माण करना, अथवा जल और मिट्टी के गुणों की परीक्षा करना, 16. अन्न उत्पन्न करने अथवा भोजन बनाने की कला, 17. नया पानी उत्पन्न करना अथवा ओषधि आदि के संयोग-संस्कार से पानी को शुद्ध करना, स्वादिष्ट पेय पदार्थों को बनाना, 18. नवीन वस्त्र Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [दृढ़प्रतिज्ञ : सम्बद्ध अंश बनाना, वस्त्रों को रंगना, सोना, 19. विलेपन विधि-शरीर पर लेप करने की विधि, 20. शैया बनाने और शयन करने की विधि, 21. मात्रिक छन्दों को बनाना और पहचानना, 22. पहेलियाँ बनाना, 23. मागधिक-मागधी भाषा में गाथा आदि बनाना, 24. निद्रायिका-नींद में सुलाने की कला, 25. प्राकृत भाषा में माथा आदि बनाना, 26. गीति-छन्द बनाना, 27. श्लोक (अनुष्टुप छन्द) बनाना, 28. हिरण्ययक्ति–चाँदी बनाना और चाँदी शुद्ध करना, 26. स्वर्णयुक्ति-स्वर्ण बनाना और स्वर्ण शुद्ध करना, 30. आभूषण-अलंकार बनाना, 31. तरुणीप्रतिकर्म-स्त्रियों का शृंगार, प्रसाधन करना, 32. स्त्रियों के शुभाशुभ लक्षणों को जानना, 33. पुरुष के लक्षण जानना, 34. अश्व के लक्षण जानना, 35. हाथी के लक्षण जानना, 36. मुर्गों के लक्षण जानना, 37. छत्र के लक्षण जानना, 38. चक्र के लक्षण जानना, 36. दंड-लक्षण जानना, 40. असि (तलवार) लक्षण जानना, 41. मणि-लक्षण जानना, 42. काकणी (रत्न विशेष) लक्षण जानना, 43. वास्तुविद्या--गृह, गृहभूमि के गुण दोषों को जानना, 44. नया नगर बसाने की कला, 45. स्कन्धावार-सेना के पड़ाय की रचना करने की कला, नापने-तोलने के साधनों को जानना, 47. प्रति चार-शत्र सेना के सामने अपनी सेना का संचालन, 48. व्यूह रचना–मोर्चा जमाना, 46. चक्रव्यूह-चक्र के आकार की मोर्चाबन्दी करना, 50. गरुड़व्यूह-गरुड़ के प्राकार की व्यूह रचना करना, 51. शकटव्यूह रचना, 52. सामान्य युद्ध रचना, 53, नियुद्ध-मल्ल युद्ध करना, 54. युद्ध-युद्ध-शत्रु सेना की स्थिति के अनुसार युद्ध विधि बदलने की कला, घमासान युद्ध करना, 55. अट्ठियुद्ध-लकड़ी से युद्ध करना, 56. मुष्ठियुद्ध करना, 57. बाहुयुद्ध करना, 58. लतायुद्ध करना, 56. इक्ष्वस्त्र--नागबाण आदि विशिष्ट वाणों के प्रक्षेपण की विधि, 60. तलवार चलाने की कला, ६१.धनुर्वेद-धनुषवाण सम्बन्धी कौशल, 62. चाँदी का पाक बनाना, 63. सोने का पाक बनाना, 64. मणियों के निर्माण की कला, अथवा मणियों की भस्म आदि औषध बनाना, 65. धातु पाक-औषध के लिए अभ्रक प्रादि की भस्म बनान खेल-रस्सी पर खेल, तमाशे, क्रीड़ा करने को कला, 67, वृत्त खेल-क्रीड़ा विशेष, 68. नालिका खेल-जुमा विशेष, 66. पत्र को छेदने की कला, 70. पर्वतीय भूमि की छेदने-काटने की कला, 71. मूच्छित को होश में लाने और अमूच्छित को मृत तुल्य करने की कला, 72. काक, घूक आदि पक्षियों की बोली और उसके शुभ-अशुभ शकुन का ज्ञान / 3. तए गं से कलायरिए तं दढपइन्नं दारगं लेहाइयाओ गणियप्यहाणाओ सउणरुयपज्जयसाणाओ बावरि कलाओ सुत्तमो य अत्थओ य गन्थओ य करणो य सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ। [3] तत्पश्चात् कलाचार्य गणित, लेखन आदि से लेकर शकुनिरुत पर्यन्त बहत्तर कालानों को सूत्र (मूल पाठ) अर्थ-व्याख्या एवं प्रयोग से सिखला कर, सिद्ध कराकर दृढ़प्रतिज्ञ बालक को मातापिता के पास ले जाएंगे। 4. तए णं तस्स दढपइनस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्सन्ति समाणिस्सन्ति / संमाणित्ता विउलं जीवियारिहं पोइवाणं बलइस्सन्ति / दलइत्ता पडिविसज्जेहिन्ति / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [133 . [4] तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक के माता-पिता विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से कलाचार्य का सत्कार-सम्मान करेंगे और जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान (भेंट) देंगे और देकर ससम्मान विदा करेंगे / 5. तए णं से दढपइन्ने दारए उम्मुक्कबालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते बावत्तरिकलापण्डिए अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए नवङ्गसुत्तपडिबोहए गोयरई गन्धव्बनट्टकुसले सिङ्गारागारचारवेसे संगयगयहसियभणियचिट्ठियविलाससंलावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोहो गयजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी यावि भविस्सइ / [5] इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो विज्ञानयुक्त परिपक्व युवावस्था. सम्पन्न हो जाएगा। बहत्तर कलानों में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जीभ, त्वचा और मन) सुप्त-से अर्थात् अव्यक्त चेतना वाले रहते हैं, वे जागृत हो जाएंगे अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में सक्षम हो जाएंगे / अठारह प्रकार की देशी भाषानों में कुशल हो जाएगा। वह गीत संगीत का अनुरागी और नृत्य में कुशल हो जाएगा / अपने सुन्दर वेष से शृंगार का आगार जैसा प्रतीत होगा / उसको चाल, हास्य, भाषण, शरीर और नेत्र की भावभंगिमाएं आदि सभी संगत होंगी। पारस्परिक पालाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल हो जाएगा। अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपने बाहुबल से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से सम्पन्न हो जाएगा तथा साहसी ऐसा हो जाएगा कि विकालचारी (मध्य रात्रि में इधर-उधर जाना-पाना) होगा और उस समय भयभीत नहीं होगा। 6. तए गं तं दढपइन्नं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाय वियालचारिं च वियाणित्ता विउलेहि अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमन्तेहिन्ति / [6] तब उस दृढप्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर मातापिता विपुल अन्न भोगों, पान भोगों, प्रासाद भोगों, वस्त्र भोगों और शैया भोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिए आमंत्रित करेंगे-भोगोपभोग भोगने का संकेत करेंगे। 7. तए णं से दढपइन्ने दारए तेहि विउलेहि अन्नभोएहि जाव सयणभोगेहि नो सज्जिहिइ नो गिशिहिइ नो मुच्छिहिइ नो अज्झोववन्जिहिइ / से जहानामए पउमुप्पले इ वा पउमे इ वा जाव सयसहस्सपत्ते इ वा पङ्क जाए जले संवुड्ढे नोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव दढपइन्ने वि दारए कामेहि जाए भोगेहि संवढिए नोवलिप्पहिइ मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं / से णं तहारूवाणं थेराणं अन्तिए केवलं बोहि बुज्झिहिइ बुझिहिता मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइस्सइ / से गं प्रणगारे भविस्सइ, ईरियासमिए जाव सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलन्ते / [7] लेकिन वह दृढप्रतिज्ञ बालक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूच्छित नहीं होगा, और अनुरक्त नहीं होगा। नीलकमल, पद्मकमल यावत् शतपत्र और सहस्रपत्र कमल जैसे कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, जल में वृद्धिगत होते हैं, फिर भी वे पंकरज और जलरज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढप्रतिज्ञ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [दृढप्रतिज्ञ : सम्बद्ध अंश दारक भी कामों में उत्पन्न हुअा, भोगों के बीच लालन-पालन किए जाने पर भी उन कामभोगों में एवं मित्रों, ज्ञातिजनों, निजी स्वजन-सम्बन्धियों, परिजनों में अनुरक्त नहीं होगा और तथारूप स्थविरों से केवलबोधि-सम्यग्ज्ञान का लाभ प्राप्त करेगा एवं मुडित होकर, गृहत्याग कर अनगार-प्रव्रज्या अंगीकार कर ईर्यासमिति प्रादि अनगार धर्म का पालन करते हुए सुहुत (अच्छी तरह से होम को गई) हुताशन (अग्नि) की तरह अपने तपस्तेज से चमकेगा, दीप्तिमान् होगा। 8. तस्स णं भगवनो अणुत्तरेणं नाणेणं एवं दंसणेणं चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं खन्तीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजमतवसुचरियफलनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणस्स अणन्ते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे निवाघाए केवलवरनाणदसणे समुपज्जिहिइ / [8] इसके साथ ही अनुत्तर (सर्वोत्तम) ज्ञान, दर्शन, चारित्र अप्रतिबद्ध विहार, प्रार्जव, मार्दव, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति (निर्लोभता), सर्व संयम एवं निर्वाण की प्राप्ति जिसका फल है, ऐसे तपोमार्ग से आत्मा को भावित करते हुए, (उन भगवान् दृढ़प्रतिज्ञ को) अनन्त, अनुत्तर सकल, परिपूर्ण, निरावरण, निर्याघात, अप्रतिहत, सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होगा। ____6. तए णं से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स परियागं जाणिहिइ / तं जहा-आगइं गई ठिई चवणं उववायं तक्कं कडं मणोमाणसियं खइयं भत्तं पडिसेवियं आवोकम्मं रहोकम्म-अरहा अरहस्सभागो, तं तं मणवयजोमे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सम्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ / [] तब वे दृढ़प्रतिज्ञ भगवान् अर्हत जिन केवली हो जाएंगे। जिसमें देव, मनुष्य तथा असुर आदि रहते हैं, ऐसे लोक की समस्त पर्यायों को वे जानेंगे / वे प्रणिमात्र की प्रागति–एक गति से दूसरी गति में प्रागमन को, गति–वर्तमान गति को छोड़कर अन्य गति में गमन को, स्थिति, च्यवन, उपपात (देव या नारक जीवों की उत्पत्ति-जन्म) तर्क (विचार), क्रिया, मनोभावों, क्षय प्राप्त (भोगे जा चुके) प्रतिसेवित (भुज्यमान भोगोपभोग की वस्तुओं), अाविष्कर्म (प्रकट कार्यों), रहः कर्म (एकान्त में किए गुप्त कार्यों) प्रकट और गुप्त रूप से होने वाले उस-उस मन, वचन और काय योग में विद्यमान लोकवर्ती सभी जीवों के सर्वभावों को जानते-देखते हुए विचरण करेंगे / 10. तए णं दढपइन्ने केवली एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाई केवलिपरियागं पाउणित्ता अप्पणो माउसेसं आभोएत्ता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ / पच्चक्खाइत्ता बहूई मत्ताई अणसणाए छइस्सइ / छेइत्ता जस्सट्टाए कोरइ नग्गभावे मुण्डमावे केसलोए बम्भचेरवासे अण्हाणगं अदन्तवणं अणुवहाणगं भूमिसेज्जाओ फलहसेज्जानो परधरपवेसो लद्धावलद्धाई माणावमाणाई परेसि होलणाओ खिसणाश्रो गरहणा उच्चावया विरूवा बावीसं परीसहोवसग्गा गामकण्टगा अहियासिज्जन्ति तमढें आराहेइ / आराहित्ता चरिमेहि उस्सासनिझासेहि सिमिहिइ बुझिहिइ मुच्चिहिइ परिनियाहिइ सव्वदुक्खाणमन्तं करेहिइ। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2] [135 [10] तत्पश्चात् वे दृढप्रतिज्ञ केवली इस प्रकार के विहार से विचरण करते हुए और अनेक वर्षों तक केवलि-पर्याय का पालन कर आयु के अन्त को जानकर, अनेक भक्तों-भोजनों का प्रत्याख्यान व त्याग करेंगे और अनशन द्वारा बहुत से भोजनों का छेदन करेंगे और जिस (साध्य) की सिद्धि के लिए नग्न भाव, केशलोंच, ब्रह्मचर्य धारण, स्नान का त्याग, दंतधावन का त्याग, पादुका का त्याग, भूमि पर शयन करना, काष्ठासन पर सोना, भिक्षार्थ परगृह प्रवेश, लाभ-अलाभ में सम रहना, मानापमान सहना, दूसरों के द्वारा की जाने वाली होलना (तिरस्कार), निन्दा, खिसना (अवर्णवाद), तर्जना (धमकी), ताड़ना, गहरे (धणा) एवं अनुकल-प्रतिकल अनेक प्रकार के बाईस परीषह, उपसर्ग तथा लोकापवाद (गाली-गलौच) सहन किए जाते हैं, उस साध्य-मोक्ष की साधना करके चरम श्वासोच्छ्वास में सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जायेंगे, सकल कर्ममल का क्षय और समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। (राजप्रश्नीय सूत्र से उद्धृत) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3 पृष्ठ सं. ه 47 ه ه 12 01.01 ا व्यक्तिनाम-सूची पृष्ठ सं. नाम 104 दृढ रथ देवेन्द्र देवराज शक्र धति देवी नन्दन नन्दारानी नलिनगुल्म निषध पगया पद्मकुमार पद्मगुल्म पद्मभद्र पद्मसेन पद्मावती प्रदेशी राजा प्रद्युम्न 104 प्रभावती देवी प्रभावती रानी पाश्वनाथ पितृसेन कृष्णकुमार प्रिया पुष्पचुलिका आर्या पूर्णभद्र د ن < 626638 < 26 नाम अग्रसेन अनादत अनंगसेना अभयकुमार प्रानन्द मानन्द--श्रावक इलादेवी अंगति-गाथापति कातिक-श्रेष्ठी कालकुमार कालीरानी कीतिदेवी कूणिक कृष्णकुमार कृष्ण-वासुदेव केशीकुमार-श्रमण गौतम गंगदत्त गंधदेवी चन्द्र चित्त-सारथी चेटक राजा चेलनादेवी जम्बू-अणगार जमालि जितशत्रु-राजा दत्त दशधन्वा दशरथ देवानन्दा दृढप्रतिज्ञ 104 बल 47 KG GOak बलदेव बलराजा 104 107 बहुपुत्रिका 95 बुद्धि देवी 47 बेहल्ल कुमार 102 भद्रकुमार 102 भद्रसार्थवाह भद्रा 44 भूता co0 NACKG Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 3] [137 पृष्ठ सं. 107 OO) W VW ن م ن د 102 104 108 नाम. मणिदत्त यक्ष मणिभद्र महाकाल कुमार महाकृष्ण कुमार महाधन्वा महापद्म महापद्मा महाबल महाबल महावीर महासेनकृष्णकुमार मातलि मानभद्र मेघकुमार यम महाराज युक्ति रस देवी रामकृष्ण कुमार राष्ट्रकूट रुक्मिणी रेवती देवी लक्ष्मी देवी वरदत्त अणगार वरुण महाराज वह वहे वीर कृष्ण कुमार वीरसेन वीरांगद वेश्रमण महाराज 48862 पृष्ठ सं. नाम वेहल्ल कुमार शतधन्वा शाम्ब शिव शिव राजर्षि शुक्र--महाग्रह श्रीदेवी श्रेणिक राजा सप्तधन्वा 107 समुद्रविजय सिद्धार्थ प्राचार्य सुकाल कुमार 102 सुकाली रानी 47 सुकृष्ण कुमार 21 सुदर्शन गाथापति 60 सुधर्मा स्वामी 102 सभद्र 94 सुभद्रा सुभद्रा सुव्रता आर्या 104 सुरप्रिय-यक्ष 105 सुरादेवी सूर्य 107 सूर्याभ देव सेचनक गंधहस्ती 102 श्रेणिक राजा 102 सोमदेव 7 सोम महाराज 104 सोमा 108 सोमिल ब्राह्मण 61 ह्री देवी NIWKK00 66 / 000G G66KMC4GGI Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि ___ दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा–उक्कावाते, दिसिदाधे, गज्जिते, विज्जुते, निग्धाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा—अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पड़ने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। --स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते। कप्पइ निम्गंथाणं वा निग्गंथीण बा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पुव्वण्हे, अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन–यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र. स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। 4. विद्युत्-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल ] गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-बिना बादल के प्राकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो पहर तक अस्वाध्याय काल है / 6. यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त—कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: प्राकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धूध पड़ती है। वह धमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धूध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज-उद्घात–वायु के कारण अाकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11.12-13 हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार पास-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / . इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है / 15. श्मशान-- श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [अनध्यायकाल 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह–समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिक. पूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। .0 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली / सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया. मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोराडया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास ___चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्ध मान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 22. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30 श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, ___गोठी, जोधपुर . बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री आसूमल एण्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38 श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 143 सदस्य-नामावली ] 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सरजकरणजी सुराणा, मद्रास / . दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजो बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, ___ कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजो कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्रीकानमलजी कोठारी. दादिया मेटूपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, भैरूदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 89. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी राजनांदगांव 65. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [ सदस्य-नामावली 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरू दा 126. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी ___एण्ड कं., बैंगलोर 115 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private & Personal use only www.jainelibrary