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________________ 122] [महाबल देवानुप्रियो ! जैसा प्रापने स्वप्नफल बताया है, वह उसी प्रकार है। इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के अर्थ को समीचीन रूप में स्वीकार किया और फिर उन स्वप्नलक्षण-पाठकों का विपुल अशन पान, खादिम, स्वादिम, पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से सस्कार-सम्मान किया, सत्कृत सम्मानित करके आजीविका के योग्य पुष्कल प्रीतिदान देकर उन्हें विदा किया। इसके बाद सिंहासन से उठकर जहाँ प्रभावती देवी थी, वहाँ आया। प्राकर इष्ट, कान्त यावत् वार्तालाप करते हुए प्रभादेवी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न सब मिलाकर बहत्तर स्वप्न बताए हैं। उनमें से देवानुप्रिये ! तीर्थकर की माता अथवा चक्रवर्ती की माता चौदह स्वप्न देखती हैं, इत्यादि पूर्वोक्त कथन यहाँ जान लेना चाहिए / देवानुप्रिये ! तुमने इनमें से एक महास्वप्न देखा है। देवी ! तुमने इनमें से एक उत्तम महास्वप्न देखा है यावत् जन्म लेकर बालक राज्याधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा / देव तुमने श्रेष्ठ स्वप्न को देखा है, इस प्रकार से इष्ट, कान्त यावत मधुर वाणी से दो तीन बार (बारबार) कहकर प्रभावती देवी की प्रशंसा की / 15. तए णं सा पभावई देवी बलस्स रन्नो अन्तियं एयमह्र सोच्चा निसम्म हद्वतुट करयल जाव एवं वयासी—'एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, २त्ता बलेणं रम्ना अन्भगुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्त जाव अम्भुठेइ / अतुरियमचवल जाव गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, २त्ता सयं भवणमणुपविट्ठा। [15] तब प्रभावती देवी बल राजा का कथन सुनकर और हृदयंगत कर हृष्ट-तुष्ट होकर यावत हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! यह ऐसा ही है, जैसा आप कहते हैं यावत उसने स्वप्नफल को भलीभांति ग्रहण किया। बल राजा की अनुमति लेकर अनेक प्रकार के मणिरत्नों के चित्रामों से युक्त भद्रासन से उठी और विना किसी शीघ्रता तथा चपलता के यावत (हंस) गति से चलकर अपने प्रावासगृह में पाई / भवन में प्रविष्ट हुई / 16. तए णं सा पभावई देवी व्हाया कयलिकम्मा जाव सव्वालंकारविभूसिया तं गम्भ माइसीएहि नाइउण्हेहिं नाइतितेहिं नाइक/एहि नाइकसाएहिं नाइमहुरेहि उउभयमाणसुहेहि भोयणच्छायणगन्धमल्लेहि जं तस्स गम्भस्स हियं मियं पत्थं गमपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहि सयणासहिं परिवकसुहाए मणाणुकुलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुग्णदोहला संमाणियदोहला अविमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला विणीयदोहला क्वगयरोगमोहभयपरित्तासा तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / तए णं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणराइंदियाणं वोइक्कताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुष्णपञ्चिन्दियसरीरं लक्खणवजणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कन्तं पियदसणं सुरुवं दारगं पयाया। [16] तत्पश्चात प्रभावती देवी ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत सर्व अलंकारों से विभूषित होकर न अत्यन्त शीतल, न अतीव उष्ण, न अति तिक्त, कटुक, काषायिक, मधुर किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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