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________________ परिशिष्ट 1] [121 का निश्चय किया। आपस में एक-दूसरे से विचार-परामर्श किया और स्वप्न के अर्थ को स्वयं जानकर एक-दूसरे से पूछकर, जिज्ञासा का समाधान कर और अर्थ का भलीभांति निर्णय करके, स्वप्नशास्त्र के मत को कहते हुए बल राजा से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! हमने स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न सब मिलाकर बहत्तर स्वप्न देखे हैं / देवानुप्रिय ! उनमें से तीर्थंकर की माताएँ तथा चक्रवर्ती की माताएँ जब तीर्थंकर या चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागती हैं / यथा 1 हाथी 2 ल 3 सिंह 4 अभिषेक 5 पुष्पमाला 3 चन्द्र 7 सूर्य 8 ध्वजा 6 कलश 10 पद्मसरोवर 11 सागर 12 भवन अथवा विमान 13 रत्नराशि और 14 निर्धूम अग्नि / इन चौदह महास्वप्नों में से वासुदेव की माता जब वासुदेव गर्भ में आते हैं तब कोई भी सात महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं। जब बलदेव गर्भ में आते हैं, तब उनकी माताएँ इन चौदह महास्वप्नों में से कोई चार महास्वप्न देखती हैं / मांडलिक राजा के गर्भ में आने पर उसकी माता इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखती हैं। देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने इनमें से एक महास्वप्न देखा है / देवानुप्रिय ! इससे आपको अर्थलाभ होगा, देवानुप्रिय ! भोगलाभ होगा, देवानुप्रिय ! पुत्रलाभ होगा, देवानुप्रिय ! राज्य का लाभ होगा / देवानुप्रिय ! नौ मास और साढे सात दिन बीतने पर प्रभावती देवी आपके कुल में ध्वज के समान (यावत्) पुत्र को जन्म देगी और वह बालक भी बाल्यावस्था पारकर यावत् राज्याधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। अतएव हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने यह उदार स्वप्न देखा है यावत्, तुष्टि, दीर्घायुष्य और कल्याणकारी स्वप्न देखा है / 14. तए णं से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अन्तिए एयमटु सोच्चा निसम्म हट्टतुटु करयल जाव कटु ते सुविणलक्खणपाढगे एवं क्यासो-'एवमेयं, देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वयह त्ति कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, २त्ता सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाण-खाइमसाइम-पुप्फ-वत्थ-गन्ध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ संमाणेइ, 2 ता विउलं जोवियारिहं पोइदाणं दलया, 2 ता पडिविसज्जेइ, 2 त्ता सोहासणाओ अम्भुठेइ, 2 ता जेणेव पभावई देवो तेणेव उवागच्छा, 2 त्ता पभावहं देवि ताहि इट्ठाहि कन्ताहिं जाव संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिए तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चेव जाव अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति / इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे महासुविणे विठे, तं अोराले णं तुमे देवो ! सुविणे दिठे, जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे, देवो ! सुविणे दि→' ति कट्ट पभावइं देवि ताहि इटाहिं कन्ताहि जाव दोच्चं पि तच्च पि अणुबूहइ / [14] स्वप्नलक्षणपाठकों से उपर्युक्त स्वप्न-फल सुनकर एवं अवधारित कर बल राजा हृष्ट-तुष्ट हुा / वह हाथ जोड़कर यावत् अंजलि करके उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार बोला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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