________________ 120] [महाबल 12. तए णं से बले राया पभावहं देवि जवणियन्तरियं ठावेद, 2 ता पुप्फफलपडिपुग्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-'एवं खल, देवाणुप्पिया! पभावई देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तं णं, देवाणुप्पिया! एयस्स पोरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फल वित्तिविसेसे मविस्सइ ? . [12] तब बल राजा ने प्रभावती देवी को बुलाकर यवनिका के पीछे बिठाया और हाथों में पुष्प-फल लेकर अतिशय विनयपूर्वक उन स्वप्नलक्षणपाठकों से इस प्रकार निवेदन किया-- 'देवानुप्रिय ! अाज तथारूप (पूर्ववणित) वासगृह में शयन करते हुए प्रभावती देवी स्वप्न में सिंह को देखकर जाग्रत हई है, तो हे देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् मंगलरूप स्वप्न का क्या कल्याणकारक फल विशेष होगा ? 13. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रनो अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ तं सुविणं प्रोगिण्हन्ति, ईहं अणुप्पविसन्ति, तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेन्ति, 2 ता अन्नमन्नेणं सद्धि संचालेन्ति, तस्स सुविणस्स लट्ठा पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रनो पुरनो सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा 2 एवं क्यासी "एवं खलु देवाणुपिया! अम्हं सुविणसस्थसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा, बायत्तरि सन्त्रसुविणा विट्ठा। तत्थ णं देवाणुप्पिया, तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कट्टिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्मन्ति, तं जहा 'गय-वसह-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं शयं कुम्भं / पउमसर-सागर-विमाण-भवण-रयणुच्चय-सिहिं च // वासुदेवमायरो वा बासुदेवंसि गम्भं वक्कममाणंसि एएसि चोदसण्ह महासुविणाणं सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति / बलदेवमायरो बलदेवसि गम्भ वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्ह महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति / मंडलियमायरो मंडलियंसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुज्झन्ति / इमे य णं, देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए एगे महासुविणे विठे अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलामो देवाणुप्पिए ! पुत्तलामो देवाणुप्पिए ! रज्जलामो देवाणुप्पिए ! एवं खलु देवाणुप्पिए ! पभावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव वीइक्कन्ताणं तुम्हं कुलकेउं जाव पयाहिइ / से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भाषियप्पा। तं ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावईए देवीए सुविणे दिठे जाव आरोग्ग तुट्ठि-दोहाउअंकल्लाणं जाव दिळें / [13] राजा के इस प्रश्न को सुनकर और अवधारित कर उन स्वप्नपाठकों ने हृष्ट-तुष्ट स स्वप्न के विषय में सामान्य विचार किया। फिर विशेष विचार किया। स्वप्न के अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org