________________ 110] [वहिवाशा नमंसन्ति जाव पज्जुवासन्ति / जइ णं अरहा अरिटणेमो पुवाणुपुठिव ... नन्दणवणे विहरेज्जा, तए णं अहं अरहं अरिट्ठमि बन्दिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा / [16] तत्पश्चात् किसी समय जहाँ पौषधशाला थो वहाँ निषधकुमार पाया / प्राकर घास के संस्तारक-प्रासन पर बैठकर पोषधव्रत ग्रहण करके विचरने लगा। तब उस निषधकुमार को रात्रि के पूर्व और अपर समय के संधिकाल में अर्थात् मध्यरात्रि में धार्मिक चिन्तन करते हुए इस प्रकार का प्रांतरिक विचार उत्पन्न हुमा---'वे ग्राम पाकर यावत् सन्निवेश निवासी धन्य हैं जहाँ अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु विचरण करते हैं तथा वे राजा, ईश्वर (राजकुमार-युवराज) यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो अरिष्टनेमि प्रभु को वंदना-नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करने का अवसर प्राप्त करते हैं। यदि आहत अरिष्टनेमि पूर्वानपुर्वी से विचरण करते हए, ग्रामानग्राम गमन करते हुए, सुखपूर्वक चलते हुए यहाँ नन्दनवन में पधारें तो मैं उन अहत् अरिष्टनेमि प्रभु को वंदनानमस्कार करूगा यावत् पर्युपासना करने का लाभ लूंगा। निषध कुमार को दीक्षा : देवलोकोत्पत्ति 17. तए णं अरहा अरिट्ठनेमो निसढस्स कुमारस्स अयमेयारूवममत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहि समणसहस्सेहिं जाव नन्दणवणे..। परिसा निग्गया। तए णं निसढे कुमारे इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हट० चाउग्घण्टेणं प्रासरहेणं निग्गए जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वहए, अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी। [17] तदनन्तर निषधकुमार के यह और इस प्रकार के मनोगत विचार को जानकर अरिष्टनेमि अर्हत् अठारह हजार श्रमणों के साथ ग्राम-ग्राम आदि में गमन करते हुए यावत् नन्दनवन में पधारे और साधुओं के योग्य स्थान में प्राज्ञा-अनुमति लेकर विराजे / उनके दर्शन-वंदन आदि करने के लिए परिषद् निकली / तब निषधकुमार भी अरिष्टनेमि अहंत के पदार्पण के वृत्तान्त को जान कर हर्षित एवं परितुष्ट होता हुआ चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ होकर जमालि की तरह अपने वैभव के साथ दर्शनार्थ निकला, यावत् माता-पिता से प्राजा-अनुमति प्राप्त करके प्रवजित हुमा / यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया। 18. तए णं से निसढे प्रणगारे अरहो अरिटुगेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अगाई अहिज्जइ, 2 बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहि तबोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुग्णाई नववासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता बायालोसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते आणुपुल्चोए कालगए / [18] तत्पश्चात् उस निषध अनगार ने अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और विविध प्रकार के चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त यावत् विचित्र तपःकर्मों (तप साधना) से प्रात्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नो वर्ष तक श्रमम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org