SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [111 पर्याय का पालन किया। वह श्रमण पर्याय को पालन करके बयालीस भोजनों को अनशन द्वारा त्याग कर पालोचन और प्रतिक्रमण करके समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुआ। 19. तए णं से वरदत्ते प्रणगारे निसलं प्रणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव परहा अरिद्रणेमो, तेणेव उवागच्छद, 2 ता जाव एवं क्यासी-"एवं खलु देवाणुपियाणं अन्तेवासी निसढे नाम अणगारे पगइमदए जाव विणीए / से गं भन्ते ! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहि उववन्ने ?" "वरदत्ता" इ अरहा परिढणेमी दरदत्तं अणगारं एवं क्यासी—"एवं खलु, वरदत्ता, ममं भन्तेवासी निसढे नाम अणगारे पगइभद्दे जाब विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एषकारस अङ्गाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामग्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई प्रणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड़ चन्दिमसूरियगहनक्खत्तताराख्वाणं सोहम्मीसाणं जाव प्रचुते तिष्णि य प्रहारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससए बीइवत्ता सम्वदृसिद्धविमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।" [16] तब वरदत्त अनगार निषधकुमार को कालगत जानकर अर्हत् अरिष्टनेमि प्रभु के पास आए यावत इस प्रकार निवेदन किया-देवानप्रिय ! प्रकृति से भद्र यावत विनीत जो आपका शिष्य निषध अनगार था वह कालमास में काल (मरण) को प्राप्त होकर कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? अर्हत् अरिष्टनेमि ने 'वरदत्त !' इस प्रकार से संबोधित-आमंत्रित कर वरदत्त अनगार से कहा-'हे भदन्त ! प्रकृति से भद्र यावत् विनीत मेरा अन्तेवासी निषध नामक अनगार मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, नौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय में रहकर, अनशन द्वारा बयालीस भोजनों को त्याग करके आलोचन-प्रतिक्रमण पूर्वक समाधिस्थ हो. मरणावसर पर मरण करके ऊर्वलोक में, चन्द्र -नक्षत्र-तारारूप ज्योतिष्क देव विमानों, सौधर्म-ईशान आदि अच्युत देवलोकों का तथा तीन सौ अठारह गैवेयक विमानों का अतिक्रमण करके अर्थात् इनसे भी ऊपर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ है / वहाँ पर देवों की तेतीस सांगरोपम की स्थिति कही गई है। निषधदेव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम की है।' निषध का मुक्तिगमन . 20. "से णं भन्ते निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिहक्खएणं अणन्तरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उवधज्जिहिइ ?" वरदत्ता ! इहेव जम्बुद्दीवे दीवे महाधिवेहे वासे उन्नाए नगरे विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / तए णं से उम्मुक्कबालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अन्तिए केवलबोहि बुमिता अगाराओ प्रणगारियं पश्यज्जिहिइ / से णं तस्य प्रणगारे भविस्सइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy