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________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [109 15. से णं वीरङ्गए देवे ताओ देवलोगानो आउक्खएणं जाव अनन्तरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए नयरीए बलदेवरस रनो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / तए णं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सणिज्जंसि सुमिणदसणं, जाव उप्पि पासायवरगए विहर।। तं एवं खल वरवत्ता ! निसढेणं कुमारेणं अयमेयारूवे उराले मणुयइड्डी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया / "पभू णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अन्तिए जाच पब्वइत्तए?" हन्ता, पभू / से एवं मंते ! इह वरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ / तए णं परहा अरिटुनेमी अन्नया कयाइ बारवईओ नयरीनो जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ / निसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ / [15] वह वीरांगद देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके इसी द्वारवती नगरी में बलदेव राजा की रेवती देवी की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय रेवती देवी ने सुखद शय्या पर सोते हुए स्वप्न देखा, यथासमय बालक का जन्म हुआ, वह तरुणावस्था में पाया, पाणिग्रहण हुआ यावत् उत्तम प्रासाद में भोग भोगते हुए यह निषधकुमार विचरण कर रहा है। इस प्रकार, हे वरदत्त ! इस निषधकुमार को यह और ऐसी उत्तम मनुष्य ऋद्धि लब्ध, * प्राप्त और अधिगत हुई है। ___ वरदत्त मुनि ने प्रश्न किया-भगवन् ! क्या निषधकुमार प्राप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रवजित होने के लिए समर्थ है ? भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा-हाँ वरदत्त ! समर्थ है। यह इसी प्रकार है-आपका कथन यथार्थ है भदन्त ! इत्यादि कहकर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इसके बाद किसी एक समय अर्हत् अरिष्टनेमि द्वारवती नगरी से निकले यावत् बाह्य जनपदों में विचरण करने लगे। निषधकुमार जीवाजीव प्रादि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया यावत् (सुखपूर्वक) समय विताने लगा। निषध कुमार का मनोरथ 16. तए णं से निसढे कुमारे अन्नया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, 2 ता जाव रामसंथारोवगए विहरइ / तए णं तस्स निसढस्स कुमारस्स पुख्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयाल्वे अज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-"धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थ णं अरहा अरिटणेमी विहरइ / धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ जे णं परिदृमि वंदन्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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