________________ 108] হিন্ধিয়া उस पद्मावती ने सुखपूर्वक शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देखा यावत् महाबल के समान पुत्रजन्म का वर्णन जानना चाहिए / विशेषता यह है कि पुत्र का नाम वीरांगद रक्खा गया / यावत् उसे बत्तीस-बत्तीस वस्तुएँ दहेज में दी गई और बत्तीस श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ, यावत् वैभव के अनुरूप पावस वर्षा, शरद्, हेमन्त, ग्रीष्म और बसन्त, इन छहों ऋतुओं के योग्य इष्ट शब्द या वत स्पर्श. रस. रूप और गंध वाले पांच प्रकार के मानवीय कामभोगों का उपभोग करते हए समय व्यतीत करने लगा। उस काल और उस समय जातिसंपन्न इत्यादि विशेषणों वाले केशीश्रमण जैसे किन्तु बहुश्रुत के धनी एवं विशाल शिष्यपरिवार सहित सिद्धार्थ नामक प्राचार्य जहाँ रोहीतक नगर था, जहाँ उसमें मेघवन उद्यान था, और उसमें भी जहाँ मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे और साधुओं के योग्य अवग्रह लेकर विराजे / दर्शनार्थ परिषद् निकली। 13. तए णं तस्स वीरङ्गयस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरगयस्स तं महया जणसई ...."जहा जमाली, निग्गओ। धम्म सोच्चा.....", जं नवरं देवाणुप्पिया, अम्मापियरो प्रापुच्छामि, जहा जमाली, तहेव निवखन्तो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी। [13] तब उत्तम प्रासाद में वास करने वाले उस वीरांगद कुमार ने महान् जनकोलाहल इत्यादि सुना और (एक ही दिशा में जाता हुआ) जनसमूह देखा। वह भी जमालि की तरह कला। धर्मदेशना श्रवण करके उसने अनगार-दीक्षा अंगीकार करने का संकल्प किया और उसने भी जमालि की तरह निवेदन किया कि माता-पिता की अनुमति प्राप्त करके दीक्षा ग्रहण करूगा / फिर जमालि की तरह ही प्रवज्या अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार हो गया / 14. तए णं से वीरङ्गए प्रणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अन्तिए सामाइयमाइयाइं जाय एपकारस प्रङ्गाई अहिज्जइ, 2 बहूइं जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाइं सामग्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बम्भलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दससागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स वि दस सोगरोवमा ठिई पण्णत्ता। [14] तत्पश्चात उस वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ प्राचार्य से सामायिक से प्रारंभ करके यावत् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, यावत् विविध प्रकार के चतुर्थभक्त प्रादि तप:कर्म से प्रात्मा को परिशोधित करते हुए परिपूर्ण पंतालीस वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर द्विमासिक संलेखना से आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भक्तों-भोजनों का अनशन द्वारा छेदनकर, आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक समाधि सहित कालमास में मरण कर वह ब्रह्मलोक कल्प के मनोरम विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है / वीरांगद देव की भी दस सागरोपम की स्थिति हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org