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________________ जैन साहित्य में नरक वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में रणक्षेत्र में मरने वाले व्यक्ति की देवगति मानी है। वीर रस के कवियों ने इस बात को लेकर हजारों कविताएँ लिखी हैं। उन कविताओं का एक ही उद्देश्य था कि योद्धा रणक्षेत्र में पीछे न हटें। यदि योद्धा रणक्षेत्र में पीछे हट गया तो उसकी पराजय निश्चित है। इसलिए उसके सामने स्वर्ग की रंगीन कल्पनाएँ प्रस्तुत की जाती थीं। किन्तु जैन धर्म ने इस प्रकार की रंगीन कल्पना नहीं दी। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि रणक्षेत्र में जो वीर मत्यु को वरण करता है वह नरक, तिर्यच आदि किसी भी गति में पैदा हो सकता है / क्योंकि युद्ध में कषाय की तीव्रता होती है और जहाँ कषाय की तीव्रता होती है, वहाँ जीवों की सुगति सम्भव नहीं है। जैन परम्परा में स्वर्ग और नरक दोनों का ही वर्णन विस्तार के साथ उपलब्ध है। नरक के सात भेद हैं। वे इस प्रकार हैं:-१. रत्नप्रभा 2. शर्कराप्रभा 3. वालुप्रभा 4. पंकप्रभा 5. धूमप्रभा 6. तमःप्रभा 7. महातमःप्रभा (तमतमाप्रभा)।33 नरक शब्द की व्याख्या करते हुए प्राचार्य प्रकलङ्क देव ने लिखा है असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुई शीत व उष्ण आदि की वेदना से जो नरों को-जीवों को-शब्द कराते हैंरुलाते हैं वे नरक कहलाते हैं। प्रथा जो पाप करने वाले प्राणियों को अतिशय दुःख को प्राप्त कराते हैं उन्हें नरक कहा जाता है / 34 नारकों का निवास स्थान अधोलोक में है। ये सातों नरक समवेणि में न होकर एक दूसरे के नीचे हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई समान नहीं है पर नीचे-नीचे की भूमि की लम्बाई-चौड़ाई एक दूसरी से अधिक है। सातवें नरक की लम्बाई-चौड़ाई सबसे अधिक है। ये सातों भूमियों एक दूसरे से सटी हुई नहीं है। एक-दूसरी के बीच अन्तराल है। उस अन्तराल में घनोदधि, धनवात, तनुवात आदि हैं। बौद्ध साहित्य में नरकनिरूपण बौद्ध परम्परा के जातकअट्ठकथा के अनुसार नरक पाठ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं---१. संजीव 2. कालसुत 3. संपात 4. जालौरव 5. धुमरीरव 6. महामवीचि 7. तपन 8. पतापन 131 दिव्यावदान में नरक के यही नाम मिलते हैं पर जालौरव के स्थान पर रौरव और धमरीरव के स्थान पर महारौरव, ये नाम मिलते हैं। संयुक्तनिकाय,३७ अंगुत्तरनिकाय और सुत्तनिपात3 में नरकों के दस नाम आये हैं—१. अव्वुद 2. निरवुद 3. अवब 4. अटट 5. अहह 6. कुमुद 7, सोगन्धिक 8. उप्पल 9. पुण्डरीक 10 पदुम / 33. भगवती सूत्र, शतक 1, उद्देशक 5 34. नरान कायन्तीति नरकाणि / शीतोष्णासवद्योदयापादितवेदनया नरान कायन्ति शब्दायन्त इति नरकाणि, नृणन्तीति वा / अथवा पापकृतः प्राणिनः प्रात्यन्तिकं दुःखं नृणन्ति नयन्तीति नरकाणि / -~-तत्त्वार्थराजवातिक 2150 / 2-3 35. जातक अट्ठकथा, खण्ड 5, पृष्ठ 266-271 36. दिव्यावदान 67 37. संयुक्तनिकाय 6 / 1 / 10 38. अंगुत्तरनिकाय (P.T.S.) खण्ड 5, पृष्ठ 173 39. सुत्तनिपात, महावग्ग, कोकालियसूत्त 3136 [16] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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