________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन] प्रार्य सुधर्मा स्वामी का पदार्पण 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवप्रो महावीरस्स अन्तेवासी अज्जसुहम्मे नामं अणगारे जाइसंपन्ने, जहा केसी [जाव] पञ्चहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडे, पुष्वाणुपुब्धि चरमाणे, जेणेव रायगिहे नयरे, [जाव] प्रहापडिहवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं [तवसा अप्पाणं भावेमाणे] जाव विहरइ / परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। [2] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अंतेवासी (शिष्य) जाति (मातपक्ष) कल (पितपक्ष) इत्यादि से सम्पन्न प्रार्य सधर्मा स्वामी नामक अनगार यावत पांच सो अनगारों के साथ पूर्वानुपूर्वी के क्रम से चलते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ पधारे यावत् यथाप्रतिरूप (साधुमर्यादानुरूप) अवग्रह (वसति) प्राप्त करके संयम एवं तपश्चर्या से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। उनका शेष वर्णन केशीकुमार के समान जानना चाहिए / उनके दर्शनार्थ परिषद् निकली-जनसमूह नगर से आया। आर्य सुधर्मा ने धर्मोपदेश दिया और परिषद् वापिस लौट गई। विवेचन--प्रस्तुत पाठ में तीन विषयों का उल्लेख किया गया है (1) श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मास्वामी का राजगृह नगर में पधारना। उनकी वंदना करने के लिए तथा धर्मदेशना श्रवण करने के लिए राजगृह नगर के जनसमूह का पहुंचना / (2) आर्य सुधर्मा स्वामी द्वारा धर्मदेशना देना और (3) धर्मोपदेश सुनकर जनसमूह का वापिस नगर में लोट जाना। आर्य सुधर्मा स्वामी का परिचय देने के लिए केशीकुमार श्रमण का उल्लेख किया गया है / उसका आशय यह है कि भगवान पार्श्वनाथ की शिष्यपरम्परा के केशीकुमार श्रमण का वर्णन राजप्रशनीय सूत्र में विस्तार से किया गया है। वह समस्त वर्णन, उनके माहात्म्य को प्रदर्शित करने के लिए प्रयुक्त किए गए विशेषण आर्य सुधर्मा स्वामी के लिए भी समझ लेने चाहिए।' जम्बू अनगार की जिज्ञासा 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अन्तेवासी जम्बू नाम अणगारे समचउरससंठाणसंठिए, [जाव] संखित्तविउलतेउलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामन्ते उड्ढंजाणू, [जाव] विहरइ / तए णं से जम्बू जायसवे, [जाब] पज्जुवासमाणे एवं वयासी-- "उवङ्गाणं भन्ते समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नते?"। "एवं खलु, जम्बू, समणेणं भगवया [जाव] संपत्तेणं एवं उवङ्गाणं पञ्च वग्गा पन्नत्ता / तं जहा-निरयावलियासो, कापडिसियाओ, पुफियाओ, पुष्फलियाओ, बहिवसानो॥" "अइ णं, भन्ते ! समणेणं जाव संपत्तेण उवङ्गाणं पञ्च वग्गा पन्नत्ता, तं जहा-निरया 1. देखें-राजप्रश्नीय सूत्र पृ. 136 -आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org