SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [निरयावलिकासूत्र वलियाओ [जाव] वहिवसाओ, पढमस्स गं भन्ते ! वग्गस्स उवङ्गाणं निरयावलियाण समणेणं भगक्या जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पन्नत्ता ?" 3. उस काल और उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी अनगार के शिष्य समचतुरस्त्र संस्थान वाले यावत् अपने अन्तर में विपुल तेजोलेश्या को समाहित किये हुए जम्बू नामक अनगार आर्य सुधर्मा स्वामी के न अति निकट, न अति दूर-थोड़ी दूरी पर ऊपर को घुटने किए हुए अर्थात् उत्तान आसन से बैठे हए और सिर को नमाकर यावत् विचरण कर रहे थे। उस समय जम्बू स्वामी को श्रद्धा-संकल्प-विचार उत्पन्न हुना यावत् पर्युपासना करते हुए उन्होंने इस प्रकार निवेदन किया-- 'भदन्त ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त–निर्वाणप्राप्त भगवान महावीर ने उपांगों का क्या प्राशय प्रतिपादन किया है ?' जिज्ञासा का समाधान करने के लिए सुधर्मा स्वामी ने कहा-'आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपांगों के पाँच वर्ग कहे हैं। उनके नाम ये हैं-१. निरयावलिका (कल्पिका) 2. कल्पावतंसिका 3. पुष्पिका 4. पुष्पचूलिका 5. वृष्णिदशा / ' __भदन्त ! यदि श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान ने निरयावलिका यावत् वृष्णिदशा पर्यन्त उपांगों के पांच वर्ग कहे हैं तो हे भदन्त ! श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान् ने निरयावलिका नामक प्रथम उपांग-वर्ग के कितने अध्ययन प्रतिपादन किए हैं ?' विवेचन- इस गद्यांश में विषय-विवेचन प्रारम्भ करने की एक विशिष्ट प्राचीन साहित्यिक विधा को बताया है कि जिज्ञासु प्रश्न करता है और उत्तर में वक्ता उस विषय का प्रतिपादन करता है। सुधर्मा स्वामी का उत्तर 4. "एवं खलु, जम्बू, समणेणं [जाव] संपत्तेणं उवङ्गाणं पढमस्स बग्गस निरयावलियाणं दस अज्शयणा पन्नत्ता / तं जहा काले सुकाले महाकाले कण्हे सुकण्हे / तहा महाकण्हे वीरकण्हे य बोद्धब्बे / रामकण्हे तहेव य पिउसेणकण्हे नवमे, दसमे महासेणकण्हे उ" / / "जइ णं भन्ते, समणेणं [जाव] संपत्तेणं उवगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस प्रशयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भन्ते, अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं [जाव] संपत्तेणं के अट्ठे पन्नते?" 4. श्रीसुधर्मा स्वामी ने उत्तर में कहा-'पायुष्मन् जम्बू ! उन श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान महावीर ने प्रथम उपांग निरयावलिया-निरयावलिका के दस अध्ययन इस प्रकार से प्रतिपादित किए हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy