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________________ 116] [महाबल समान रोमांचित होती हुई स्वप्न का स्मरण करने लगी और स्वप्न का स्मरण करती हुई शय्या से उठी एवं शीघ्रता, चपलता, संभ्रम और विलंब के बिना राजहंस के समान उत्तम गति से गमन कर बल राजा के शयनगृह में पाई / आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम (मनोहर), उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल, सुन्दर, मित, मधुर और मंजुल वाणी से बोलते हुए बल राजा को जगाया। जागने पर बल राजा की प्राज्ञा-अनमति स्वागतपर्वक विचित्र मणिरत्नों से रचि युक्त भद्रासन पर बैठी। सुखासन पर बैठने के अनन्तर स्वस्थ एवं शांतमना होकर इष्ट, प्रिय यावत् मधुर वाणी से उसने बल राजा से इस प्रकार निवेदन किया 5. "एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिगण० तं चेव जाव नियगवयणमइक्यन्तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / तं णं देवाणुप्पिया! एतस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?" तए णं से बले राया पभावईए देवीए अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ जाव हयहियए धाराहयनीवसुरभिकुसुमंव चञ्चुमालइयतणयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ, ईहं पविसइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविनाणेणं तस्स सुविणस्स प्रत्यागहणं करेइ, 2 ता पभावई देवि ताहि इट्टाहि कन्ताहि जाव मङ्गलाहि मियमहरसस्सिरीयाहि वहि. संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी [5] देवानुप्रिय ! बात यह है कि आज मैंने सुख-शय्या पर शयन करते हुए स्वप्न में एक मनोहर सिंह को अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए देखा है / हे देवानुप्रिय ! इस उदार यावत् महास्वप्न का क्या कल्याण रूप फल विशेष होगा? तब प्रभावती देवी की इस बात तो सुनकर और विचार कर बल राजा हर्षित, संतुष्ट, विकसितहृदय यावत् मेघधारा के स्पर्श होने पर विकसित सुगंधित कदम्ब-पुष्प के समान रोमांचित शरीर वाला हुआ। उसने स्वप्न का अवग्रह (सामान्य विचार) किया, फिर ईहा (विशेष विचार) की / ईहा करके अपने स्वाभाविक मतिविज्ञान से उस स्वप्न के फल का अर्थावग्रह-निश्चय किया निश्चय करके इष्ट, कांत, यावत् मंगल, मित, मधुर सश्रीक वाणी से संलाप करते हुए इस प्रकार कहा 6. अोराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे, कल्लाणे णं तुमे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी सुविणे दिठे, आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ-कल्लाण-मङ्गलकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दि→, अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलामो देवाणुप्पिए! रज्जलामो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणयराइंबियाणं विइकन्ताणं अम्हं कुलके उं कुलनन्दिकरं कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपञ्चिन्दियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कन्तं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसमप्पमं दारगं फ्याहिसि / [6] देवी ! तुमने उदार-उत्तम स्वप्न देखा है, तुमने कल्याणकारक यावत् शोभनीय स्वप्न देखा है / देवी! तुमने प्रारोग्य, तुष्टि, दीर्घायुष्य-दायक, कल्याण-मंगलकारक स्वप्न देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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