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________________ परिशिष्ट 1] [115 चौड़ी, सिरहाने और पैहताने दोनों ओर से तकिया युक्त, दोनों ओर से उन्नत, मध्य में कुछ नमी हई. गंगा की तटवर्ती रेती के अवदाल (पर रखने पर धंसती हई) वाल के समान कोमल, क्षोमिकरेशमी दुकूल पट से आच्छादित, राजस्त्राण से ढंकी हुई, रक्तांशुक (मच्छरदानी) से परिवेष्टित, सुरम्य आजिनक (मृगछाला) रुई, बूर, नवनीत, अर्कतूल (पाक की रुई) के समान कोमल स्पर्शवाली, सुगंधित, उत्तम पुष्प-चूर्ण और अन्य शयनोपचार से युक्त पुण्यशालियों के योग्य शैया पर अर्धरात्रि के समय अर्धनिद्रित अवस्था में सोते हुए उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलकारक, शोभायुक्त महास्वप्न देखा और देखकर जाग्रत 3. हाररययखीरसागरससङ्ककिरणदगरयरययमहासेलपण्डुरतरोरुरमणिज्जपेच्छणिज्जं थिरलट्ठपउट्ठवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिद्धतिक्खदाढाविडम्बियमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइअसोभन्तलट्ठउठें रत्तप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगताविअआवत्तायन्तवट्टतडिविमलसरिसनयणं विसालपोवरोहपडिपुण्णविपुलखन्धं मिउविसदसुहमलक्खणपसत्यवित्थिण्णकेसरसडोवसोमियं ऊसियसुनिम्मितसुजायनप्फोडिलङ गुलं सोमं सोमाकारं लोलायन्तं जम्मायन्तं नहयलामो ओवयमाणं निययवयणमतिवयन्तं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा / [3] वह प्रभावती रानी मोतियों का हार, रजत (चांदी), क्षीरसमुद्र, चंद्रकिरण, जलबिन्दु, रजत महाशैल (वैताढ्य पर्वत) के समान श्वेत-धवल वर्ण वाले, विशाल, रमणीय, दर्शनीय, स्थिर और सन्दर प्रकोष्ठ वाले, गोल, पृष्ट, सश्लिष्ट, विशिष्ट और तीक्ष्ण दाढायों से य मूह को फाड़े हुए, संस्कारित उत्तम कमल के रामान सुकोमल, प्रमाणोपेत प्रोष्ठों से अतीव सुशोभित, रक्त कमलपत्र के समान अत्यन्त कोमल तालु और जीभ वाले, मूस में रहे हुए एवं अग्नि में तपाए और पावर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के समान वर्ण वाले, गोल तथा बिजली के समान निर्मल प्रांखों वाले, विशाल और पुष्ट जंघाओं वाले, परिपूर्ण एवं विपुल स्कंधयुक्त, मृदु विशद, सूक्ष्म एवं प्रशस्त लक्षणों से युक्त केसर से शोभित, सुन्दर और उन्नत पूछ को पृथ्वी पर फटकारते हुए, सौम्य, सौम्य प्राकार वाले, लीला करते हुए, उवासी (जंभाई) लेते हुई सिंह को आकाश से नीचे उतरकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ देख जाग्रत हुई / 4. तए णं सा पभावई देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव सस्सिरियं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया धाराहयकलम्बपुष्फगं पिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, 2 ता अतुरियमचवलमसंभन्ताए अविलम्बियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रन्नो सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता बलं रायं ताहि इट्टाहि कन्ताहिं पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहि पोरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहि धन्नाहिं मङ्गलाहिं सस्सिरीयाहि मियमहुरमञ्जुलाहि गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेइ, 2 ता बलेणं रना अब्मणुनाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि महासणंसि निसीय इ, 2 त्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहि इटाहि कन्ताहिं जाव संलवमाणी संलवमाणी एवं वयासी [4] तदनन्तर इस प्रकार के उदार यावत् सश्रीक महास्वप्न को देखकर जाग्रत हुई वह प्रभावती देवी हर्षित, संतुष्ट यावत् विकसितहृदय और मेघ की धारा से विकसित कदम्ब पुष्प के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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