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________________ 44] [कल्पावतंकसिासूत्र सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई, बहुपडिपुण्णाई पञ्च वासाइं सामग्णपरियाए / मासियाए संलेहणाए सद्धिभत्ताई। आणुपुन्धीए कालगए। थेरा प्रोतिण्णा। भगवं गोयमे पुच्छह, सामी कहेह [जाव] सट्टि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कते उड्ढं चन्दिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / दो सागराइं। “से गं भते, पउमे देवे ताओ देवलोगाओ पाउक्खएणं" / पुच्छा / “गोयमा, महाविदेहे वासे, जहा वढपइन्नो', [जाव] अन्तं काहिइ"। विक्खेवो-तं एवं खलु जम्बू, समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पन्नत्ते त्ति बैंमि / / ॥पढमं अज्मयणं / 2 / 1 // [3] तत्पश्चात् पद्म अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, इत्यादि विविध प्रकार की तप-साधना से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगा। इसके बाद वह पद्म अनगार मेघकुमार के समान उस प्रभावक विपुल-दीर्घकालीन, सश्रीकशोभासंपन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, कल्याणकारी, शिव पक, धन्य, प्रशंसनीय, मांगलिक, उदग्र उत्कट, उदार, उत्तम, महाप्रभावशाली तप-प्राराधना से शुष्क, रूक्ष, अस्थिमात्रावशेष शरीर वाला एवं कृश हो गया। तत्पश्चात किसी समय मध्य रात्रि में धर्म-जागरण करते हए पद्म अनगार को चिन्तन उत्पन्न हुप्रा / मेघकुमार के समान श्रमण भगवान् से पूछकर विपुल पर्वत पर जा कर यावत् पादोपगमन संस्थारा स्वीकार करके तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का श्रवण कर परिपूर्ण पांच वर्ष की श्रमण पर्याय का पालन करके मासिक संलेखना को अंगीकार कर और अनशन द्वारा साठ भक्तों का त्याग करके अर्थात् एक मास की संलेखना करके, अनुक्रम से कालगत हुमा। उसे कालगत जानकर स्थविर भगवान के समीप पाए। भगवान् गौतम ने पद्ममुनि के भविष्य के विषय में प्रश्न किया। स्वामी ने उत्तर दिया कि यावत अनशन द्वारा साठ भोजनों का छेदन कर, आलोचना-प्रतिक्रमण कर सदूर चंद्र आदि ज्योतिष्क विमानों के ऊपर सौधर्मकल्प में देव रूप से उत्पन्न हया है। वहाँ दो सागरोपम की उसकी प्राय है। __ गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-भदन्त ! वह पद्मदेव आयुक्षय (भवक्षय एवं स्थितिक्षय) के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन करके कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया--गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। दृढप्रतिज्ञ के समान यावत् (जन्म-मरण का) अंत करेगा। निक्षेप---इस प्रकार हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। इस प्रकार जैसा मैंने भगवान से श्रवण किया वैसा मैं कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. प्रतिज्ञ के विशेष परिचय के लिए परिशिष्ट देखिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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