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________________ अनुत्तरोपपातिकदशा का उपांग कल्पावतंसिका है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद के उपांग क्रमशः पुष्पिका पुष्पचलिका और वृष्णिदशा है। यदि गहराई से देखा जाय तो ये उपांग अंगों के वास्तविक पूरक नहीं हैं, तथापि इनकी प्रतिष्ठापना किस दृष्टि से की गई है, यह प्राग ममनीषियों के लिये चिन्तनीय और गवेषणीय है। हमारी दृष्टि से वेदों के गम्भीर अर्थ को समझने के लिए वेदांगों की परिकल्पना की गई जो शिक्षा, व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त, ज्योतिष और कल्प के नाम से प्रसिद्ध है। इनके सम्यक् अध्ययन के बिना वेदों के रहस्य को समझना कठिन है और उसे बिना समझे याज्ञिक रूप में उसका क्रियान्वयन सम्भव नहीं। वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्म शास्त्र, ये चार उपांगों की भी कल्पना की गई। और यह कल्पना वेदों के अर्थ को अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिये की गई जिसके फलस्वरूप वेदाध्ययन में अधिक सुगमता हुई। इसी तरह से जैन मनीषियों ने अंग के साथ उपांग की कल्पना की हो और एक-एक अंग के साथ एक-एक उपांग का सम्बन्ध स्थापित किया हो / तर्क-कौशल, वाद-नैपुण्य की दृष्टि से परस्पर तालमेल और संगति बिठाई जा सकती है पर उपांग में पूरकता का जो विशेष गुण होना चाहिये उसका प्रायः इनमें प्रभाव है। नाम बोष निरयावलिया (निरयावलिका) श्रतस्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं, जो इस प्रकार हैं-(१) निरयावलिका या कल्पिका (2) कल्पावतंसिका (3) पुष्पिका (4) पुष्पचूलिका और (5) वृष्णिदशा / विज्ञों का अभिमत है कि ये पांचों उपांग पहले निरयावलिका के नाम से ही थे; फिर 12 उपांगों का 12 अंगों से सम्बन्ध स्थापित करते समय उन्हें पृथक्-पृथक् गिना गया। प्रो. विन्टरनित्ज का भी यही अभिमत है। जिस पागम में नरक में जाने वाले जीवों का पंक्तिबद्ध वर्णन हो वह निरयावलिया है। इस पागम में एक ध तस्कन्ध है, बाबन अध्ययन हैं, पाँच वर्ग हैं, ग्यारह सौ श्लोक प्रमाण मूल पाठ है। निरयावलिया के प्रथम वर्ग के दस अध्ययन हैं। इनमें काल, सुकाल, महाकाल, कण्ह, सुकण्ह, महाकण्ह, वीरकण्ह, रामकण्ह, पिउसेनकण्ह, महासेनकण्ह का वर्णन है। सम्राट् श्रेणिक : एक अध्ययन प्राचीन मगध के इतिहास को जानने के लिये यह उपांग बहुत ही उपयोगी है / इसमें सम्राट् श्रेणिक 2. छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते / ज्योतिषामयनं चक्षनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते / / शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् / तस्मात् सांगमधीत्यव, ब्रह्मलोके महीयते // -पाणिनीय शिक्षा, 41-42 3. (क) संस्कृतहिन्दी कोष : प्राप्टे, पृष्ठ 214 / (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M. Williams, Page 213. (म) पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश / -याज्ञवल्क्य स्मृति, 1-3 [8] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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