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________________ [पुष्पिका __ तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसि अन्तिए दिसापोक्खियत्ताए पब्वइत्तए, पवइए वि य गं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि --कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढे वाहाम्रो पगिािय 2 सूराभिमुहस्स पायावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं [जाव] जलन्ते सुबहुं लोह० [जाव] दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए / पच्वइए चि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिहित्ता पढम छटुक्खमणं उसंपज्जित्ताणं विहरह। [16] इसके बाद पुनः उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय मध्यरात्रि में कौटुम्बिक स्थिति का विचार करते हुए इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् मनःसंकल्प उत्पन्न हुआ-~वाराणसी नगरी वासी मैं सोमिल ब्राह्मण अत्यन्त शुद्ध-प्रसिद्ध ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुमा / मैंने व्रतों का पालन किया, वेदों का अध्ययन प्रादि किया यावत् यूप स्थापित किये और इसके बाद वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से ग्राम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे लगवाए / लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल यावत् तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर बहुत से लोहे के कड़ाह, कुडछी एवं तापसों के योग्य तांबे के पात्रों-बर्तनों को घड़वाकर तथा विपुल मात्रा में प्रशन--पान-खादिम–स्वादिम भोजन बनवाकर मित्रों, जातिबांधवों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचित जनों को आमंत्रित कर उन मित्रों, जातिबंधुनों, स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों का विपुल अशन-पान-खादिमस्वादिम, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकारों से सत्कार-सन्मान करके उन्हीं मित्रों, जाति-बंधुनों स्वजनों, संबन्धियों और परिचितों के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंपकर तथा मित्रों-- जाति-बंधुनों आदि परिचितों और ज्येष्ठपुत्र से पूछकर उन बहत से लोहे के कड़ाहे, कुड़छी आदि तापसों के पात्र लेकर जो गंगातटवासी वानप्रस्थ तापस हैं, जैसे कि होत्रिक (अग्निहोत्री), पोत्रिक (वस्त्रधारी), कौत्रिक (भूमिशायी), याज्ञिक (यज्ञ करने वाले), श्राद्धकिन (श्राद्ध करने वाले), स्थालकिन (पात्र धारण करने वाले), हम्बउ (वानप्रस्थ तापसविशेष), दन्तोदूलिक (दांतों से धान्य को तुषहीन करके खाने वाले), उन्मज्जक (पानी में एक बार डुबकी लगाने वाले), संमज्जक (बार-बार हाथ पैर धोने वाले) निमज्जक (पानी में कुछ देर तक डूबे रहने वाले), संप्रक्षालक (मिट्टी आदि से शरीर को रगड़ कर स्नान करने वाले) दक्षिणकूल (तट) वासी, उत्तरकूल-वासी, शंखध्मा (शंख बजा कर भोजन करने वाले), कूलध्मा (तट पर खड़े होकर आवाज लगाने के पश्चात् भोजन करने वाले), मृगलुब्धक (व्याधों की तरह हिरणों का मांस खाने वाले), हस्तीतापस (हाथी को मारकर उसका मांस खाकर जीवन व्यतीत करने वाले), उद्दण्डक (डंडे को ऊंचा करके चलने वाले), दिशाप्रोक्षिक (जल सींचकर दिशाओं की पूजा करने वाले), वल्कबासी (वृक्ष की छाल पहनने वाले), बिलवासी (भूमि को खोदकर उसमें रहने वाले). जलवासी (जल में रहने वाले), वृक्षमूलिक (वृक्ष के मूल में नीचे रहने वाले), जलभक्षी (जल मात्र का पाहार करने वाले), वायुभक्षी (वायु मात्र से जीवित रहने वाले), शैवालभक्षी (काई को खाने वाले), मूलाहारी (वृक्ष की जड़ें खाने वाले), कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारी, विनष्ट (सड़े हुए)कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प फल को खाने वाले, जलाभिषेक से शरीर कठिन--कड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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