________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] [57 इत्यादि गृहस्थ सम्बन्धी कार्य किये / लेकिन अब मुझे यह उचित है कि कल (अागामी दिन) रात्रि के प्रभात रूप में परिवर्तित हो जाने पर, जब कमल विकसित हो जाएँ, प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण (सुनहरा-सफेद रंग) का हो जाए, लाल अशोक, पलाशपुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्धभाग, बंधुजीवकपुष्प, कबूतर के पैर, कोयल के नेत्र, जसद के पुष्प, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश एवं हिंगुलकसमूह की लालिमा से भी अधिक रक्तिम श्री से सुशोभित सूर्य उदित हो जाए और उसकी किरणों के फैलने से अंधकार विनष्ट हो जाए, सूर्य रूपी कुंकुम से विश्व व्याप्त हो जाए, नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे, सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला सहस्र किरणों से युक्त दिवाकर जाज्वल्यमान तेज से प्रकाशित हो जाए, तब वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम्र-उद्यान (आम के बगीचे) लगवाऊं, इसी प्रकार से मातुलिंग-बिजौरा, बिल्व-बेल, कविट्ठ-कैथ, चिंचा-इमली और फूलों की वाटिकाएँ लगवाऊ !' उसने इस प्रकार विचार किया और विचार करके आगामी दिन यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर वाराणसी नगरी के बाहर बहुत से आम के बगीचे यावत् पुष्पोद्यान लगवाए / तत्पश्चात् वे बहुत से ग्राम के बगीचे यावत् फूलों के बगीचे अनुक्रम से संरक्षण, संगोपनलालन-पालन और संवर्धन किये जाने से दर्शनीय बगीचे बन गये / कृष्णवर्ण-श्यामल, श्यामल आभा वाले यावत् रमणीय महामेघों के समूह के सदृश होकर पत्र, पुष्प, फल एवं अपनी हरी-भरी श्री से अतीव-अतीव शोभायमान हो गये। 16. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अन्नया कयाइ पुव्यरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्मथिए [जाव] समुप्पज्जित्था----"एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे प्रच्चन्तमाहणकुलप्पसूए / तए णं मए बयाई चिण्णाइं [जाव] जूवा निक्खित्ता। तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अम्बारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया / त सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं [जाव] जलन्ते सुबहुं लोहकडाहकडच्छुयं तम्बियं तावसभण्डं घडावेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता मित्तनाइनियमसंबंधिपरिजणं आमन्तेत्ता तं मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगन्धमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणस्स पुरओ जेटुपुत्तं ठवित्ता तं मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता सुबहुं लोहकडाहकडुच्छ्यं तम्बियं तावसभण्डगं गहाय जे इमे गङ्गाकूला वाणपत्था तावसा भवन्ति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सड्ढई थालई हुम्बउट्ठा दन्तुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्षिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हस्थितावसा उद्दण्डा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अम्बुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालमक्खिणो मूलाहारा कन्दाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकन्दमूलतय-पत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगायभूया आयावणाहिं पञ्चम्गितावेहि इङ्गालसोल्लियं कन्दुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरन्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org