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________________ वर्ग 4 : प्रथम अध्ययन] . तए णं ताओ पुष्फचूलामो अज्जाओ भूयं अज्जं एवं बयासी—'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियानो [जाव] गुत्तबम्भचारिणीओ। नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाओसियाणं होत्तए / तुमं च णं, देवाणुप्पिए, सरीरबाओसिया अभिक्खणं 2 हत्थे धोवसि [जाय] निसीहियं चेएसि / तं णं तुम देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स पालोएहि' त्ति / सेसं जहा सुभद्दाए, जाव पाडिएक्कं उबस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं सा भूया अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई अभिक्खणं 2 हत्थे धोवइ जाव चेएइ। (8) कुछ काल के पश्चात् वह भूता आर्यिका शरीरबकुशिका हो गई। वह बारंबार हाथ धोती, पैर धोती, शिर धोती, मुख धोती, स्तानान्तर धोती, कांख धोती, गृह्यान्तर धोती, और जहाँ कहीं भी खड़ी होती, सोती, बैठती अथवा स्वाध्याय करती उस-उस स्थान पर पहले पानी छिड़कती और उसके बाद खड़ी होती, सोतो, बैठती या स्वाध्याय करती। तब पुष्पचलिका आर्या ने भूता आर्या को इस प्रकार समझाया-देवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणी हैं / इसलिए हमें शरीरबकुशिका होना नहीं कल्पता है, किन्तू देवानुप्रिये! तुम शरीरबकुशिका होकर हाथ धोती हो यावत् पानी छिड़ककर बैठती यावत् स्वाध्याय करती हो। देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान-कार्यप्रवृत्ति की आलोचना करो। इत्यादि शेष वर्णन सुभद्रा के समान जानना चाहिये। यावत् (प्रार्या पुष्पचूलिका के समझाने पर भी वह नहीं समझी) और एक दिन उपाश्रय से निकल कर वह बिल्कुल अकेले उपाश्रय में जाकर निवास करने लगी। तत्पश्चात् वह भूता आर्या निरंकुश, विना रोकटोक के स्वच्छन्द-मति होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् स्वाध्याय करने लगी अर्थात् उसने अपना पूर्वोक्त आचार चालू रक्खा / भूता का अवसान और सिद्धि गमन 9. तए णं सा भूया अज्जा बहहिं चउत्थछट्ट० बहूई वासाई सामण्णपरियाणं पाउणिता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिडिसए विमाणे उववायसमाए देवसयणिज्जंसि जाव ओगाहणाए सिरिदेवित्ताए उयवन्ना, पञ्चविहाए पज्जत्तीए जाय भासामणपज्जत्तीए पज्जत्ता। 'एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए एसा दिव्या देविड्डो लद्धा पत्ता / एगं पलिओवमं ठिई। 'सिरी णं भंते, देवी जाव कहिं गच्छिहिई' ? 'महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / ' ॥निक्खेवओ॥ (9) तब वह भूता आर्या विविध प्रकार की चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त आदि तपश्चर्या करके और बहुत वर्षों तक श्रमणोपर्याय का पालन करके एवं अपनी अनुचित अयोग्य कार्यप्रवृत्ति की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना ही मरणसमय में मरण करके सौधर्मकल्प के श्रीअवतंसक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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