________________ परिशिष्ट] [133 . [4] तब उस दृढ़प्रतिज्ञ बालक के माता-पिता विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप चतुर्विध आहार, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से कलाचार्य का सत्कार-सम्मान करेंगे और जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान (भेंट) देंगे और देकर ससम्मान विदा करेंगे / 5. तए णं से दढपइन्ने दारए उम्मुक्कबालभावे विनयपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुपत्ते बावत्तरिकलापण्डिए अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए नवङ्गसुत्तपडिबोहए गोयरई गन्धव्बनट्टकुसले सिङ्गारागारचारवेसे संगयगयहसियभणियचिट्ठियविलाससंलावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोहो गयजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी यावि भविस्सइ / [5] इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ बालक बालभाव से मुक्त हो विज्ञानयुक्त परिपक्व युवावस्था. सम्पन्न हो जाएगा। बहत्तर कलानों में पंडित होगा, बाल्यावस्था के कारण मनुष्य के जो नौ अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जीभ, त्वचा और मन) सुप्त-से अर्थात् अव्यक्त चेतना वाले रहते हैं, वे जागृत हो जाएंगे अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में सक्षम हो जाएंगे / अठारह प्रकार की देशी भाषानों में कुशल हो जाएगा। वह गीत संगीत का अनुरागी और नृत्य में कुशल हो जाएगा / अपने सुन्दर वेष से शृंगार का आगार जैसा प्रतीत होगा / उसको चाल, हास्य, भाषण, शरीर और नेत्र की भावभंगिमाएं आदि सभी संगत होंगी। पारस्परिक पालाप-संलाप एवं व्यवहार में निपुण-कुशल हो जाएगा। अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध करने एवं अपने बाहुबल से विपक्षी का मर्दन करने में सक्षम एवं भोग भोगने की सामर्थ्य से सम्पन्न हो जाएगा तथा साहसी ऐसा हो जाएगा कि विकालचारी (मध्य रात्रि में इधर-उधर जाना-पाना) होगा और उस समय भयभीत नहीं होगा। 6. तए गं तं दढपइन्नं दारगं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं जाय वियालचारिं च वियाणित्ता विउलेहि अन्नभोगेहि य पाणभोगेहि य लेणभोगेहि य वत्थभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमन्तेहिन्ति / [6] तब उस दृढप्रतिज्ञ बालक को बाल्यावस्था से मुक्त यावत् विकालचारी जानकर मातापिता विपुल अन्न भोगों, पान भोगों, प्रासाद भोगों, वस्त्र भोगों और शैया भोगों के योग्य भोगों को भोगने के लिए आमंत्रित करेंगे-भोगोपभोग भोगने का संकेत करेंगे। 7. तए णं से दढपइन्ने दारए तेहि विउलेहि अन्नभोएहि जाव सयणभोगेहि नो सज्जिहिइ नो गिशिहिइ नो मुच्छिहिइ नो अज्झोववन्जिहिइ / से जहानामए पउमुप्पले इ वा पउमे इ वा जाव सयसहस्सपत्ते इ वा पङ्क जाए जले संवुड्ढे नोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव दढपइन्ने वि दारए कामेहि जाए भोगेहि संवढिए नोवलिप्पहिइ मित्तनाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं / से णं तहारूवाणं थेराणं अन्तिए केवलं बोहि बुज्झिहिइ बुझिहिता मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइस्सइ / से गं प्रणगारे भविस्सइ, ईरियासमिए जाव सुहुयहुयासणो इव तेयसा जलन्ते / [7] लेकिन वह दृढप्रतिज्ञ बालक उन विपुल अन्न रूप भोग्य पदार्थों यावत् शयन रूप भोग्य पदार्थों में आसक्त नहीं होगा, गृद्ध नहीं होगा, मूच्छित नहीं होगा, और अनुरक्त नहीं होगा। नीलकमल, पद्मकमल यावत् शतपत्र और सहस्रपत्र कमल जैसे कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, जल में वृद्धिगत होते हैं, फिर भी वे पंकरज और जलरज से लिप्त नहीं होते हैं, इसी प्रकार वह दृढप्रतिज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org