________________ [निरयावलिकासूत्र काली देवी की चिन्ता 7. तए णं तोसे कालोए देवीए अन्नया कयाइ कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए अयमेयाख्वे अज्झथिए [जाव] समुपज्जित्था---'एवं खलु मम पुत्ते कालकुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहि [जाव] प्रोयाए / से मन्ने, कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ ? नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? नो पराजिणिस्सइ ? काले णं कुमारे अहं जोवमाणं पासिज्जा ?' ओहयमण• [जाव] झियाइ // 7. तब एक बार अपने कुटुम्ब-परिवार की स्थिति पर विचार करते हुए काली देवी के मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुअा-'मेरा पुत्र कुमार काल तीन हजार हाथियों आदि को लेकर यावत् रथमूसल संग्राम में प्रवृत्त हुया है। तो क्या वह विजय प्राप्त करेगा अथवा विजय प्राप्त नहीं करेगा? वह जीवित रहेगा अथवा जीवित नहीं रहेगा? शत्र को पराजित करेगा या पराजित नहीं करेगा? क्या मैं काल कुमार को जीवित देख सकूँगी?' इत्यादि विचारों से वह उदास हो गई। निरुत्साहित-सी होती हुई यावत् आर्त ध्यान में मग्न हो गई। चिन्तानिवारण हेतु काली का भगवान के समीप गमन 8. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए। परिसा निग्गया। तए णं तीसे कालीए देवीए इमोसे कहाए लट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए, [जाव] समुप्पज्जित्था'एवं खलु, समणे भगवं पुव्वाणुपुतिय [जाव] विहरइ / तं महाफलं खलु तहारूवाणं [जाय] विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए। तं गच्छामि णं समणं [जाव] पज्जुवासामि, इमं च णं एयारूवं कागरण पुच्छिस्सामि' त्ति कटु एवं संपेहेइ, 2 ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, 2 ता एवं क्यासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह" / उवट्ठवित्ता [जाव] पच्चप्पिणन्ति / तए गं सा काली देवी व्हाया कयबलिकम्मा [जाव] अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहूहि खुज्जाहिं [जाव] महत्तरगविन्दपरिखित्ता अन्तेउराओ निग्गच्छइ, 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, 2 त्ता नियगपरियालसंपरिबुडा चम्पं नार मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, 2 ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, २त्ता छत्ताईए [जाव] धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, 2 ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरहइ, २त्ता बहूहि जाव खुज्जाहि० विन्दपरिक्खित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छद। २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ। ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी नमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पञ्जलिउडा पज्जुवासइ / 8. उसी समय में श्रमण भगवान महावीर का चम्पा नगरी में पदार्पण हुआ। भगवान् को वन्दना-नमस्कार करने एवं धर्मोपदेश सुनने के लिए जन-परिषद् निकली। तब वह काली देवी भी इस संवाद-समाचार को जान कर हर्षित हुई और उसे इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् संकल्प-विचार उत्पन्न हुअा-पूर्वानुपूर्वी क्रम से विहार करते हुए यावत् श्रमण भगवान् महावीर यहाँ विराज रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org