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________________ 60] [कल्पिका तए णं सोमिले माहणरिसी दोच्चं छट्टक्खमणपारणगंसि, तं चेव सव्वं भाणियवं [जाव] आहारं प्राहारेइ / नवरं इमं नाणत्तं--"दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसि, जाणि य तत्थ कन्वाणि य [जाव] अणुजाणउ" त्ति कटु दाहिणं दिसि पसरइ / एवं पच्चत्थिमेणं वरुणे महाराया [जाव] पच्चस्थिमं दिसि पसरइ / उत्तरेणं वेसमणे महाराया [जाव] उत्तरं दिसि पसरइ / पुवदिसागमेणं चत्तारि वि दिसाओ भाणियन्वाओ [जाव] प्राहारं आहारेइ / [17] तत्पश्चात् ऋषि सोमिल ब्राह्मण प्रथम षष्ठक्षपण के पारणे के दिन प्रातापनाभूमि से नीचे उतरा। फिर उसने वल्कल वस्त्र पहने और जहाँ अपनी कुटिया थी, वहाँ आया / पाकर वहाँ से—किढिण बांस की छबड़ी और काबड को लिया, तत्पश्चात पर्वदिशा का पजन-प्रक्षालन किया और कहा-हे पूर्व दिशा के लोकपाल सोम महाराज! प्रस्थान (साधनामार्ग) में प्रस्थित (प्रवृत्त) हुए मुझ सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ (पूर्व दिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पुष्प, फल, बीज और हरी वनस्पतियां (हरित) हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें।' यों कहकर सोमिल ब्रह्मर्षि पूर्व दिशा की ओर गया और वहाँ जो भी कन्द, मूल, यावत् हरी वनस्पति आदि थी उन्हें ग्रहण किया और काबड़ में रखी, बांस की छबड़ी में भर लिया। फिर दर्भ (डाभ), कुश, तथा वृक्ष की शाखाओं को मोड़कर तोड़े हुए पत्ते और समिधाकाष्ठ लिए। लेकर जहाँ अपनी कुटिया थी, वहाँ पाये। काबड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीपकर शुद्ध किया। तदनन्तर डाभ और कलश हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए, ग्राकर गंगा महानदी में अवगाहन किया, और उसके जल से देह शुद्ध की। फिर जलक्रीड़ा की, अपनी देह पर पानी सींचा और आचमन प्रादि करके स्वच्छ और परम शुचिभूत (पवित्र) होकर देव और पितरों संबन्धी कार्य संपन्न करके डाभ सहित कलश को हाथ में लिए गंगा महानदी से बाहर निकले / फिर जहाँ अपनी कुटिया थी वहां आए। कुटिया में आकर डाभ, कुश और बालू से वेदी का निर्माण किया, सर (मथन-काष्ठ) और अरणि तैयार की। फिर मथनकाष्ठ से अरणि काष्ठ को घिसा (रगड़ा), अग्नि सुलगाई। अग्नि धौंकी-प्रज्वलित की। तब उसमें समिधा (लकड़ी) डालकर और अधिक प्रज्वलित की और फिर अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं (अंग) रखीं-(१) सकथ (उपकरण विशेष) (2) वल्कल (3) स्थान (आसन) (4) शैयाभाण्ड (5) कमण्डलु (6) लकड़ी का डंडा और (7) अपना शरीर / फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया तथा नित्य यज्ञ कर्म किया / अतिथिपूजा की (अतिथियों को भोजन कराया) और उसके बाद स्वयं आहार ग्रहण किया। / तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने दूसरा षष्ठक्षपण (बेला) अंगीकार किया। उस दूसरे बेले के पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल वस्त्र पहने इत्यादि प्रथम पारणे में जो विधि की, उसी के अनुसार दूसरे पारणे में भी यावत् पाहार किया तक पूर्ववत् जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा--'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान-साधना के लिए प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षि की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें,' ऐसा कहकर दक्षिण में गमन किया। तदनन्तर उन सोमिल ब्रह्मर्षि ने तृतीय बेला तप अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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