________________ उवयाली (4) पुरिमसेण (5) वारिसेण (6) दोहदन्त (7) लट्ठदन्त (8) वेहल्ल (9) वेहायस (10) अभयकुमार (11) दीहमेण (12) महासेण (13) लट्ठदन्त (14) गूढदन्त (15) शुद्धदन्त (16) हल्ल (17) दुम (18) दुमसेण (19) महादुमसेण (20) सीह (21) सीहसेण (22) महासीहसेण (23) पुण्णसेरण (24) कालकुमार (25) सुकाल कुमार (26) महाकाल कुमार (27) कण्ह कुमार (28) सुकण्ह कुमार (29) महाकण्ह कुमार (30) वीरकण्ह कुमार (31) रामकण्ह कुमार (32) सेणकण्ह कुमार (33) महासेणकण्ह कुमार (34) मेघ कुमार (35) नन्दीसेन और (36) कणिक / ___ इन राजकुमारों में से 23 राजकुमारों ने प्रार्हती दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट संयम की आराधना की वमानों में उत्पन्न हए। मेघ कुमार भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर अन्त में अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए / नन्दीसेन भी श्रमण बनकर साधना के पथ पर आगे बढ़े। इस प्रकार पच्चीस राजकुमारों के दीक्षा लेने का वर्णन है / ग्यारह राजकुमारों ने साधनापथ को स्वीकार नहीं किया और वे मृत्यु को प्राप्त कर नरक में उत्पन्न हुए। निरयावलिया के प्रथम वर्ग में श्रेणिक के दस पुत्रों का नरक में जाने का वर्णन है। श्रेणिक की महारानी चेलना से कणिक का जन्म हुआ। कणिक के सम्बन्ध में हम प्रौपपातिक सूत्र की प्रस्तावना में बहुत विस्तार से लिख चुके हैं, अत: जिज्ञासु पाठक विशेष परिचय के लिये वहाँ देखें / 21 कुणिक के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग प्रस्तुत प्रागम में है। कणिक अपने लघु भ्राता काल कुमार, सुकाल कुमार प्रादि के सहयोग से अपने पिता श्रेणिक को बन्दी बनाकर कारागृह में रखता है। क्योंकि उसके अन्तर्मानस में यह विचार घूम रहे थे कि राजा श्रेणिक के रहते हुए मैं राजसिंहासन पर आरूढ नहीं हो सकता। अत: उसने यह उपक्रम किया था। कूणिक अत्यन्त आह्लादित होता हुआ अपनी माँ को नमस्कार करने पहुंचा, पर माँ अत्यन्त चिन्तित थी। कूणिक ने कहा-माँ ! तुम चिन्ता-सागर में क्यों डुबकी लगा रही हो? मैं तुम्हारा पुत्र हूँ, राजा बन गया हूं, तथापि तुम चिन्तित हो ! मुझे अपनी चिन्ता का कारण बतानो। मां ने कहा--तुझे धिक्कार है। तूने अपने पिता को कारागृह में बन्द किया है। जबकि तेरे पिता का तुझ पर अपार स्नेह था। जब तू मेरे गर्भ में पाया तो मुझे राजा श्रेणिक के उदर का मांस खाने का दोहद पैदा हुआ। दोहद पूर्ण न होने से मैं उदास रहने लगी। मेरी अंगपरिचारिकारों से राजा श्रेणिक को वह बात ज्ञात हो गई तथा महाराजा श्रेणिक ने अभय कुमार के सहयोग से मेरा दोहद पूर्ण किया। मुझे बहुत ही बुरा लगा, मैंने सोचा-जो गर्भ में जीव है वह गर्भ में ही पिता का मांस खाने की इच्छा करता है तो जन्म लेने के बाद पिता को कितना कष्ट देगा! यह कल्पना कर ही मैं सिहर उठी और मैंने गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न किया। पर सफल न हो सकी। तेरे जन्म लेने पर मैंने घूरे (रोड़ी) पर तुझे फिंकवा दिया। पर जब यह बात राजा श्रेणिक को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उन्होंने तुझे तुरन्त मंगवाया। घूरे पर पड़े हुए तेरे असुरक्षित शरीर पर कुक्कुट ने चोंच मार दी जिससे तेरी अंगुली पक गई और उसमें से मवाद निकलने लगा / अपार कष्ट से तू चिल्लाता था। तब तेरी वेदना को शान्त करने के लिये तेरे पिता अंगुली को मुंह में रखकर चूसते, जिससे तेरी वेदना कम होती और तू शान्त हो जाता। ऐसे महान उपकारी पिता को तूने यह कष्ट दिया है ! कणिक के मन में पिता के प्रति प्रेम उबुद्ध हुग्रा। उसे अपनी भूल का परिज्ञान हुअा। वह हाथ में परशु लेकर पिता की हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने के लिये चल पड़ा। राजा श्रेणिक ने दूर से देखा कि कणिक हाथ में परशु लिए पा रहा है तो समझा कि अब मेरा जीवनकाल समाप्त होने वाला है। पुत्र के हाथों मृत्यु प्राप्त हो, इससे तो यही श्रेयस्कर है कि मैं स्वयं कालकट विष खाकर अपने प्राणों का अन्त कर ले। 21. औपपातिक सूत्र, प्रस्तावना, पृष्ठ 20-24 (प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर) [11] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org