________________ एकाकी रहने लगी। वह बिना पालोचना किये प्रायु पूर्ण कर सौधर्म कल्प में बहुपुत्रिका देवी हुई। वहाँ से वह सोमा नामक ब्राह्मणी होगी। उसके सोलह वर्ष के वैवाहिक जीवन में बत्तीस सन्तान होगी, जिससे वह बहुत परेशान होगी। वहाँ पर भी श्रमणधर्म को ग्रहण करेगी। मृत्यु के पश्चात् देव होगी और अन्त में मुक्त होगी। इस प्रकार इस कथा में कौतूहल की प्रधानता है। सांसारिक मोह-ममता का सफल चित्रण हुआ है। कथा के माध्यम से पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धान्त को भी प्रतिपादित किया गया है। स्थानाङ्ग में वर्णन स्थानांग सूत्र के 10 वें स्थान में दीर्घदशा के दश अध्ययन इस प्रकार बताये हैं--१. चन्द्र 2. सूर्य 3. शुक्र 4. श्री देवी 5. प्रभावती 6. द्वीपसमुद्रोपपत्ति 7. बहुपुत्री मन्दरा 8. स्थविर सम्भूतविजय 9, स्थविर पक्ष्म 10. उच्छ्वास-नि:श्वास / 66 प्राचार्य अभयदेव ने दीर्घदशा को स्वरूपतः अज्ञात बतलाया है और दीर्घदशा के अध्ययनों के सम्बन्ध में कुछ सम्भावनायें प्रस्तुत की हैं।६७ नन्दी की आगम-सूची में भी इनका उल्लेख नहीं है। दीर्घदशा में पाये हुए पांच अध्ययनों का नामसाम्य निरयावलिका के साथ है। दीर्घदशा में चन्द्र, सूर्य, शुक्र और श्री देवी अध्ययन हैं, तो निरयावलिका में चन्द्र तीसरे वर्ग का पहला अध्ययन है। सूर्य, तीसरे वर्ग का दूसरा अध्ययन है / शुक्र, तीसरे वर्ग का तीसरा अध्ययन है। श्री देवी चौथे वर्ग का पहला अध्ययन है। दीर्घदशा में बहपुत्री मन्दरा सातवाँ अध्ययन है तो निरयावलिका में बहपूत्रिका, यह तीसरे वगं का चौथा अध्ययन है। प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांग वत्ति में निरयावलिका के नामसाम्य वाले पांच और अन्य दो अध्ययनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। और शेष तीन अध्ययनों को अप्रतीत कहा है। प्राचार्य अभयदेव के अनुसार इन अध्ययनों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है चन्द्र-भगवान महावीर राजगृह में समवसत थे। ज्योतिष्कराज चन्द्र का आगमन, नाट्यविधि का प्रदर्शन / गौतम गणधर की जिज्ञासा पर महावीर ने कहा-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में अंगति नामक श्रावक था / पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हया / श्रामण्य की एक बार बिराधना की, वहाँ से मर कर यह चन्द्र हुआ / सूर्य-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में सुप्रतिष्ठित नाम का श्राबक था। पार्श्वनाथ के पास संयम लिया / विराधना करके सूर्य हुआ / शुक्र---शुक्र ग्रह भगवान को नमस्कार कर लौटा। गौतम की जिज्ञासा पर भगवान ने कहा--यह पूर्वभव में वाराणसी में सोमिल ब्राह्मण था। दिप्रोक्षक तापस बना। विविध तप करने लगा। एक बार उसने यह प्रतिज्ञा की जहाँ कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊँगा, वहीं प्राण छोड़ दूगा। इस प्रतिज्ञा को लेकर काष्ठमुद्रा से मुह को बांध कर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। पहले दिन एक अशोक बक्ष के नीचे होम ग्रादि से निवृत्त होकर बैठा था। उस समय एक देव ने वहाँ प्रकट होकर कहा—अहो सोमिल ब्राह्मण महर्षे ! तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है। पांच दिनों तक भिन्न-भिन्न स्थानों में उसको यही देववाणी सुनाई दी। पांचवें दिन उसने देव से पूछा-. मेरी 66. स्थानाङ्ग 10 सू. 119 67. दीर्घदशा: स्वरूपतोऽवनगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नरकावलिकाश्र तस्कन्धे उपलभ्यन्ते / -स्थानाङ्ग, पत्र 485 68. शेषाणि श्रीण्यप्रतीतानि / - स्थानांगवृत्ति, पत्र 486 [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org