________________ 11. सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले। 12. वल्कल-वस्त्र धारण करने वाले / 13. सदा पानी में रहने वाले। 14. सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले। 15. केवल जल पर निर्वाह करने वाले। 16. जल के ऊपर पाने वाली शैवाल खाकर जीवन चलाने वाले। 17. वायु भक्षण करने वाले। 18. वृक्ष-मूल का ग्राहार करने वाले। 19. वृक्ष के कन्द का प्राहार करने वाले। 20. वृक्ष के पत्तों का प्राहार करने वाले / 21. वृक्ष की छाल का आहार करने वाले / 22. पुष्पों का आहार करने वाले / 23. बीजों का आहार करने वाले / 24. स्वतः टूट कर गिरे पत्रों-पुष्पों और फलों का आहार करने वाले। 25. दूसरों के द्वारा फैके हुए पदार्थों का पाहार करने वाले। 26. सूर्य की प्रातापना लेने वाले। 27. कष्ट सहकर शरीर को पत्थर जैसा कठोर बनाने वाले। 28. पंचाग्नि तापने वाले / 29. गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने बाले / ये तापसों के विविध रूप और साधना के ये विविध प्रकार इस बात के द्योतक हैं कि उस युग में तापसों का ध्यान कायक्लेश और हठयोग की अोर अधिक था। वे सोचते थे—यही मोक्ष का मार्ग है। भगवान् पार्श्वनाथ ने स्पष्ट शब्दों में, इस प्रकार की हठयोग-साधना का खण्डन किया था। भगवान ने कहा-तप के साथ ज्ञान आवश्यक है / अज्ञानियों का तप ताप है। इन तापसों का किन दार्शनिक परम्पराओं से सम्बन्ध था, यह अन्वेषणीय है। हमने औपपातिकसूत्र और ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना में तापसों के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है, अतः विशेष जिज्ञासु उन प्रस्तावनामों का अवलोकन करें। चतुर्थ अध्ययन में बहुत ही सरस और मनोरंजक कथा है। जब भगवान् महावीर राजगृह में थे तब बहुपुत्रिका नाम देवी समवसरण में आती है और वह अपनी दाहिनी भुजा से 108 देवकुमारों को और बाँयी भुजा से 108 देवकुमारियों को निकालती है, तथा अन्य अनेक बालक बालिकाओं को निकालती है और नाटक करती है / गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् उसका पूर्व भव सुनाते हैं-भद्र नाम सार्थवाह की पत्नी सुभद्रा थी। वंध्या होने से वह बहुत खिन्न रहती थी और सदा मन में यह चिन्तन करती थी कि वे माताएँ धन्य हैं जो अपने प्यारे पुत्रों पर बात्सल्य बरसाती हैं और सन्तानजन्य अनुपम प्रानन्द का अनुभव करती है। मैं भाग्यहीन हैं। एक बार वाराणसी में सुव्रता प्रार्या अपनी शिष्याओं के साथ पाई। सन्तानोत्पत्ति के लिए आयिकाओं से सुभद्रा ने उपाय पूछा / प्रायिकानों ने कहा-इस प्रकार का उपाय वगैरह बताना हमारे नियम के प्रतिकूल है। प्रायिकाओं के उपदेश से सुभद्रा श्रमणी बनी पर उसका बालकों के प्रति अत्यन्त स्नेह था। वह बालकों का उबटन करती, श्रृंगार करती, भोजन कराती, जो श्रमणमर्यादाओं के प्रतिकल था। वह सद्गुरुनी की प्राज्ञा की अवहेलना कर [ 22 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org