________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन शीघ्र ही अपने आसन से उठेगी, उठकर सात-पाठ डग उनके सामने आएगी। आकर बंदन-नमस्कार करेगी और फिर विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन से प्रतिलाभित करके इस प्रकार कहेगी----'पार्यायो ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए यावत् मैंने प्रतिवर्ष बालक-युगलों (दो बालकों) को जन्म देकर सोलह वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव किया है। जिससे मैं उन दुर्जन्मा बहुत से बालक-बालिकाओं यावत् बच्चे-बच्चियों में से किसी के उत्तान शयन यावत् मूत्र त्यागने से उन बच्चों के मल-मूत्र-वमन आदि से सनी होने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धित शरीर वाली हो राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोग नहीं भोग पाती हूँ / पार्यायो ! मैं पाप से धर्म सुनना चाहती हूँ। सोमा के इस निवेदन को सुनकर वे आर्याएँ सोमा ब्राह्मणी को विविध प्रकार के यावत् केलिप्ररूपित धर्म का उपदेश सुनाएंगी। सोमा का श्रावकधर्म-ग्रहण 50. तए णं सा सोमा माहणी तासि अज्जाणं अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हियया ताओ अज्जाओ बन्दइ, नमसइ, 2 एवं क्यासी-"सहहामि गं, अज्जाओ, निग्गन्थं पाययणं, जाव अम्भुट्ठमि गं अज्जाओ! निग्गन्थं पावयणं, एवमेयं अज्जाओ! जाव से जहेयं तुझे वयह / जं नवरं, अज्जाओ, रटुकडं आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अन्तिए [जाव] मुण्डा पन्वयामि"। "अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबन्धं... ..." / तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वन्दइ, नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ / [50] तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी उन प्रायिकाओं से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में धारण कर हर्षित और संतुष्ट-यावत् विकसितहृदयपूर्वक उन प्रार्यानों को वंदन-नमस्कार करेगी। वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार कहेगी हे आर्यायो ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ। आर्यायो ! निर्ग्रन्थ प्रवचन इसी प्रकार का है यावत् जैसा आपने प्रतिपादन किया है / किन्तु मैं राष्ट्रकूट से पूछूगी / तत्पश्चात् आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रवजित होऊंगी। ___ इस पर प्रार्याओं ने सोमा ब्राह्मणी से कहा-देवानुप्रियो ! जैसे सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो। - इसके बाद सोमा माहणी उन आर्याओं को वंदन-नमस्कार करेगी और वंदन-नमस्कार करके विदा करेगी। सोमा का राष्ट्रकूट से दीक्षा के लिए पूछना 51. तए णं सा सोमा माहणी जेणेव रटुकडे तेणेव उवागया करयल...." एवं वयासी'एवं खलु भए देवाणुप्पिया, अज्जाणं अन्तिए धम्मे निसन्ते / से वि य णं धम्मे इच्छिए [जाव] अभिरुइए / तए णं अहं, देवाणुप्पिया, तुम्भेहि अब्मणुनाया सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पवइत्तए'। तए णं से रटुडे सोमं माणि एवं क्यासी-“मा णं तुम देवाणुप्पिए ! इयाणि मुण्डा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org