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________________ वर्ग 1 : प्रथम अध्ययन [33 पत्तेयं तिहिं दन्तिसहस्सेहिं एवं तिहि रहसहस्सेहि तिहि आससहस्सेहिं तिहिं मणुस्सकोडीहि सद्धि संपरिवुडा सन्विड्डीए [जाव] सव्वबलेणं सध्वसमुदएणं सव्वायरेणं सध्वभूसाए सव्वविभूईए सव्वसंभमेणं सधपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सवदिश्वतुडियसहसंनिनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगपडुप्पवाइयरवेणं संखपणवपडहभे रिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरयमुइङ्गदुन्दुहिनिम्घोसनाइयरवेणं सहितो 2 नयरेहितो पडिनिक्खमह, 2 ता ममं अन्तियं पाउन्भवह। तए णं ते कालाईया दस कुमारा कूणियस्स रनो एयमढे सोच्चा सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं 2 व्हाया जाव तिहि मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडा सविड्डीए जाव रवेणं सएहितो 2 नयरोहितो पडिनिक्खमन्ति, 2 त्ता जेणेव अङ्गा जणवए, जेणेव चम्पा नयरी, जेणेव कणिए राया, तेणेव उवागया करयल० जाव बद्धावेन्ति / [26] तत्पश्चात् कणिक राजा ने उन काल आदि दस कुमारों से इस प्रकार कहा--- देवानुप्रियो ! आप लोग अपने अपने राज्य में जाओ, और प्रत्येक स्नान यावत् प्रायश्चित्त प्रादि करके श्रेष्ठ हाथी पर आरूढ होकर प्रत्येक अलग-अलग तीन हजार हाथियों, तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों और तीन कोटि मनुष्यों को साथ लेकर समस्त ऋद्धि-वैभव यावत् सब प्रकार के सैन्य, समुदाय एवं आदरपूर्वक सब प्रकार की वेशभूषा से सजकर, सर्व विभूति, सर्व सम्भ्रम-स्नेहपूर्ण उत्सुकता, सब प्रकार के सुगंधित पुष्प, वस्त्र, गंध, माला, अलंकार, सर्व दिव्य वाद्यसमूहों की ध्वनिप्रतिध्वनि, महान् ऋद्धि-विशिष्ट वैभव, महान् द्युति-प्रोज-आभा, महाबल-विशिष्ट सेना, विशिष्ट समुदाय, शंख, ढोल, पटह, भेरी, खरमुखी हुडुक्क, मुरज, मृदंग दुन्दुभि के घोष की ध्वनि के साथ अपने अपने नगरों से प्रस्थान करो और प्रस्थान करके मेरे पास आकर एकत्रित होप्रो। ___ तब वे कालादि दसों कुमार कूणिक राजा के इस विचार-कथन को सुनकर अपने-अपने राज्यों को लौटे / प्रत्येक ने स्नान किया, (तीन-तीन हजार हाथियों, रथों, घोड़ों) यावत् तीन कोटि मनुष्यों-पैदल सैनिकों को साथ लेकर समस्त ऋद्धि यावत् वाद्यघोष-निनादों के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकलकर जहाँ अंग जनपद-प्रान्त था, जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ कणिक राजा था, वहाँ आए और दोनों हाथ जोड़कर यावत् बधाया-उसका अभिनन्दन किया। कूणिक : युद्ध-प्रयाण से पूर्व - 30. तए णं से कूणिए राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं क्यासी-"खिप्पामेव भों देवाणुप्पिया ! प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहजोहचाउरङ्गिणि सेणं संनाहेह, मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह," जाव पच्चप्पिणन्ति / तए णं से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, [जाव] उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ / अणुपविसित्ता मुत्ताजालाभिरामे विचित्तमणिरयणकोट्टिमतले रमणिज्जे हाणमण्डवंसि नाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहनिसण्णे, सुहोदगेहि पुप्फोदगेहि गंधोदएहि सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसएहि बहुविहेहि कल्लाणमपवरमज्जणावसाणे पम्हल . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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