________________ निरयावलिका उपांग का एक ही श्रुतस्कन्ध है। इसके पाँच वर्ग हैं। ये पाँच वर्ग पाँच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं। पहले से चौथे तक के वर्गों में दस-दस अध्ययन हैं और पांचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरवालिका श्रुतस्कन्ध समाप्त हुन्मा / यहां यह चिन्तनीय है कि निरयावलिका के उपसंहार में निरयावलिका की समाप्ति की सूचना दी गई। पुनः वृष्णिदशा के अन्त में भी निरयावलिका के समाप्त होने की सूचना दी गई है। दो बार एक ही बात की सूचना कैसे आई ? इस सूचना में उपांग समाप्त हुए यह भी सूचन किया गया है। इससे यह तो स्पष्ट है ही कि वर्तमान में जो पृथक-पृथक कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचलिका और वृष्णिदशा, ये पांचों उपांग किसी समय एक ही उपांग के रूप में प्रतिष्ठित थे। व्याख्यासाहित्य कथा प्रधान होने के कारण निरयावलिका पर न नियुक्तियाँ लिखी गईं, न भाष्य और न चूर्णियों का ही निर्माण हुआ / केवल श्रीचन्द्रसूरि ने संस्कृत भाषा में निरयावलिका कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचला और वृष्णिदशा पर संक्षिप्त और शब्दार्थस्पर्शी वृत्ति लिखी है। श्रीचन्द्र सूरि का ही अपर नाम पार्श्वदेवगणि था / ये शीलभद्र सूरि के शिष्य थे। उन्होंने विक्रम संवत् 1174 में निशीथचूमि पर दुर्गपद व्याख्या लिखी थी और श्रमणोपासकप्रतिक्रमण, नन्दी, जीतकल्प बृहच्चूणि आदि आगमों पर भी इनकी टीकाएँ हैं। प्रस्तुत प्रागमों की वत्ति के प्रारम्भ में प्राचार्य ने भगवान् पार्श्व को नमस्कार किया पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थवीक्षिता / निरयावलिथ त स्कन्ध-व्याख्या काचित प्रकाश्यते // वत्ति के अन्त में वत्तिकार ने न स्वयं का नाम दिया है, न अपने गुरु का ही निर्देश किया है, न बत्ति के लेखन का समय ही सूचित किया है / ग्रन्थ की जो मुद्रित प्रति है उसमें 'इति श्रीचन्द्रसूरि विरचितं निरयावलिकाश्र तस्कन्धविवरणं समाप्त मिति / श्रीरस्तु / ' इतना उल्लेख है / वृत्ति का ग्रन्थमान 600 श्लोक प्रमाण है। मरी संस्कृत टीका का निर्माण किया है स्थानकवासी जैन परम्परा के प्राचार्य घासीलालजी महाराज ने। उनकी टीका सरल और सुबोध है / इस टीका में राजा कूणिक के पूर्वभव का भी वर्णन है। और भी कई प्रसंग हैं। इन दो संस्कृत टीकाओं के अतिरिक्त इन आगमों पर अन्य कोई संस्कृत टीकाएँ नहीं लिखी गई हैं। सन् 1922 में आगमोदय समिति सूरत ने चन्द्रसूरिकृत बत्ति सहित निरयावलिका का प्रकाशन किया। इससे पूर्व, सन् 1885 में प्रागमसंग्रह बनारस से चन्द्रसूरिकृत वृत्ति, गुजराती विवेचन के साथ, एक संस्करण प्रकाशित हुआ था। सन् 1932 में श्री पी. एल. वैद्य, पूना एवं सन् 1934 में ए. एस. गोपाणी और बी. जे. चोकसी अहमदाबाद द्वारा प्रस्तावना के साथ वृत्ति प्रकाशित की गई। वि. सं. 1890 में मूल व टीका के गुजराती अर्थ के साथ जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर द्वारा एक संस्करण प्रकाशित हुआ। सन् 1934 में गुर्जर ग्रन्थ कार्यालय अहमदाबाद से भावानुवाद निकला। वि. सं. 3445 में हिन्दी अनुवाद के साथ हैदराबाद से प्राचार्य अमोलक ऋषि जी म. ने एक संस्करण निकाला था / सन् 1960 में जैन शास्त्रोद्धारक समिति, राजकोट से प्राचार्य घासीसालजी महाराज ने संस्कृत व्याख्या हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाया। पुष्फभिक्खुजी 70. निरयावलिया, (बहिनदसा), अन्तिम भाग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org