________________ 'वर्ग 1: प्रथम अध्ययन] [17 उयरवलिमसाई गिण्हेइ, २त्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ / २त्ता चेल्लणाए देवीए उवणेइ। तए णं सा चेल्लणा देवो सेणियस्स रन्नो तेहिं उयरवलिमसेहि सोल्लेहिं [जाव] दोहलं विणेई। तए णं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / [14] इधर अभयकुमार स्नान करके यावत् अपने शरीर को अलंकृत करके अपने आवासगृह से बाहर निकला। निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभाभवन) थी और उसमें जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ प्राया / उसने श्रेणिक राजा को निरुत्साहित जैसा देखा, यह देखकर वह बोला--तात ! पहले जब कभी आप मुझे प्राता हुआ देखते थे तो हर्षित यावत् सन्तुष्टहृदय होते थे. किन्त आज ऐसी क्या बात है जो आप उदास यावत् चिन्ता में डूबे हुए हैं हैं ? तात ! यदि मैं इस अर्थ (बात) को सुनने के योग्य हूँ तो आप इस बात को जैसा का तैसा, सत्य एवं बिना किसी संकोच संदेह के कहिए, जिससे मैं उसका अन्तगमन करू अर्थात् हल करने का उपाय करूं / अभयकुमार के इस प्रकार कहने पर श्रेणिक राजा ने अभयकुमार से कहा---पुत्र ! ऐसी तो कोई भी बात नहीं है जिसे सुनने योग्य तुम नहीं हो, लेकिन बात यह है पुत्र ! तुम्हारी विमाता चलना देवी को उस उदार यावत महास्वप्न को देखे तीन मास बीतने पर यावत् ऐसा दोहद उत्पन्न हुअा है कि जो माताएँ मेरी उदरावलि के शूलित आदि मांस से अपने दोहद को पूर्ण करती हैं वे धन्य हैं, आदि / लेकिन चेलना देवी उस दोहद के पूर्ण न हो सकने के कारण शुष्क यावत् चिन्तित हो रही है / इसलिए पुत्र ! उस दोहद की पूर्ति के निमित्त प्रायों (उपायों) यावत स्थिति को समझ नहीं सकने के कारण मैं भग्नमनोरथ यावत चिन्तित हो रहा हूँ। श्रेणिक राजा के इस मनोगत भाव को सुनने के बाद अभयकुमार ने श्रेणिक राजा से इस भाँति कहा-~-'तात ! आप भग्नमनोरथ यावत चिन्तित न हों, मैं ऐसा कोई जतन (उपाय) करूंगा कि जिससे मेरी छोटी माता चेलना देवी के उस दोहद की पूर्ति हो सकेगी। इस प्रकार कहकर श्रेणिक राजा को इष्ट यावत वाणी से सान्त्वना दी-प्राश्वस्त किया। श्रेणिक राजा को आश्वस्त करने के पश्चात अभय कुमार जहाँ अपना भवन था वहाँ पाया / पाकर गुप्त रहस्यों के जानकार प्रान्तरिक विश्वस्त पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा...देवानुप्रियो ! तुम जाओ और सूनागार (वध-स्थान) में जाकर गीला मांस, रुधिर और वस्तिपुटक (पेट का भीतरी भाग, प्रांतें) लामो / ' वे रहस्यज्ञाता पुरुष अभय कुमार की इस बात को सुनकर हर्षित एवं संतुष्ट हुए यावत अभयकुमार के पास से निकले / निकलकर जहाँ वध-स्थल था, वहाँ पहुँचे और उन्होंने वहाँ मे गीला मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को लिया। लेकर जहाँ अभयकुमार था, वहाँ पाये / आकर दोनों हाथ जोड़कर यावत उस मांस, रक्त एवं वस्तिपुटक को रख दिया / तब अभय कुमार ने उस रक्त और मांस में से थोड़ा भाग कैंची से काटा। काटकर जहाँ श्रेणिक राजा था, वहाँ पाया और श्रेणिक राजा को एकान्त में शैया पर चित (ऊपर की ओर मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org