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________________ भ्राता श्रमणधर्म को स्वीकार कर स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए थे। उनकी माताएँ भी श्रमण धर्म को स्वीकार कर मुक्त हुई थीं। पुत्र और माताओं के नाम भी एक सदृश हैं। इस प्रकार निरयावलिका सूत्र यहाँ पर समाप्त होता है।४७ इस उपांग में मगधनरेश श्रेणिक और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन है। कणिक का जीवनपरिचय है। वैशाली गणराज्य के अध्यक्ष चेटक के साथ कुणिक के युद्ध का वर्णन है। पुत्र के प्रति पिता का अपार स्नेह भी इसमें वर्णित है, जिससे यह उपांग बहुत ही आकर्षक बन गया है। कप्पवडंसिया : कल्पावतंसिका कल्प शब्द का प्रयोग सौधर्म ले अच्युत तक जो बारह स्वर्ग हैं, उनके लिए प्रयुक्त हुआ है।४८ देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों का जिसमें वर्णन है वह कल्पावतंसिका है। इस उपांग में दस अध्ययन हैं। उनके नाम पर हैं--१. पउम, 2. महापउम, 3. भट्ट. 4. सभह, 5. पउमभदृ 6. पउमसेन 7. पउमगल्म 8. नलिनीगुल्म 9. आणंद 10. नंदन / निरयावलिका में राजा श्रेणिक के पूत्र कालकूमार, सुकालकुमार आदि दस राजपुत्रों का वर्णन है। उन्हीं दस राजकुमारों के दस पुत्रों का वर्णन कल्पावतंसिका में है। दसों राजकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पावन प्रवचन को सुनकर श्रमण बनते हैं। अंग साहित्य का गहन अध्ययन करते हैं। उग्र तप की साधना कर जीवन की सांध्य बेला में पंडितमरण को वरण करते हैं। सभी स्वर्ग में जाते हैं। इस प्रकार इस उपांग में व्रताचरण से जीवन के शोधन की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। जहाँ पिता कषाय के वशीभूत होकर नरक में जाते हैं वहां उन्हीं के पुत्र सत्कर्मों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं। उत्थान और पतन का दायित्व मानव के स्वयं के कर्मों पर पाधत है। मानव साधना से भगवान् बन सकता है वहीं विराधना से नरक का कोट भी बन जाता है। जैन साहित्य में स्वर्ग भारतीय साहित्य में जहाँ नरक का निरूपण हुआ है वहाँ स्वर्ग का भी वर्णन है। जैन दृष्टि से देवों के मुख्य चार भेद हैं.-१. भवनपति 2. व्यंतर 3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक / इनके अवान्तर भेद निन्यानवे हैं। आगमसाहित्य में उनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है। ये देव कहाँ पर रहते हैं ? उनकी कितनी देवियाँ होती हैं ? किस प्रकार का वैभव होता है ? कितना आयुष्य होता है?४६ प्रादि-यादि सभी प्रश्नों पर बहत ही विस्तार से विवेचन किया गया है। बौद्ध साहित्य में स्वर्ग बौद्धपरम्परा में भी स्वर्ग के सम्बन्ध में वर्णन उपलब्ध है। तथागत बुद्ध से जब कभी कोई जिज्ञासु स्वर्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त करता तो तथामत बुद्ध उन जिज्ञासुओं से कहते-परोक्ष पदार्थों के सम्बन्ध में चिन्ता न करो।५० जो दुःख और दुःख के कारण हैं, उनके निवारण का प्रयत्न करो। जब बौद्धधर्म ने दर्शन का 47. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नायब्वा पढमसरिसा, णबर माताओ सरिसणामा। णिरयावलियानो समत्तायो / -निरयावलिया समाप्तिप्रसंग 48. तत्त्वार्थसूत्र 4-3 49. भगवती, जीवाभिगम, लोकप्रकाश, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, तिलोयपण्णति आदि ग्रन्थ देखें। 50. (क) दीघनिकाय तेविज्जसुत्त (ख) मज्झिमनिकाय चूल मालुक्य सुत्त 63 [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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