________________ वर्ग 3 : चतुर्य अध्ययन] [75 देवाणुप्पियाणं सीसिणिमिक्खंदलयामि / पडिच्छन्तु णं, देवाणुप्पिया ! सोसिणिमिखं / "अहासुह, देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह / " [38] तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह ने विपुल परिमाण में अशन-पान-खादिम-स्वादिम भोजन तयार करवाया और अपने सभी मित्रों, जातिबोधवों, स्वजनों, संबन्धी-परिचितों को आमंत्रित किया। उन्हें भोजन कराया यावत् उन मित्रों आदि का सत्कार-सम्मान किया। फिर स्नान की हुई, कौतुक-मंगल प्रायश्चित्त आदि से युक्त, सभी अलंकारों से विभूषित सुभद्रा सार्थवाही को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने योग्य पालकी में बैठाया और उसके बाद वह सुभद्रा सार्थवाही मित्र-ज्ञातिजन, स्वजन-संबन्धी परिजनों के साथ भव्य ऋद्धि-वैभव यावत् भेरी आदि वाद्यों के घोष के साथ वाराणसी नगरी के बीचों-बीच से होती हुई जहाँ सुव्रता आर्या का उपाश्रय था वहाँ आई / आकर उस पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी को रोका और पालकी से उतरी। तत्पश्चात् भद्र सार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके सुबता आर्या के पास पाया और आकर उसने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-तमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया 'देवानुप्रिये! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यन्त इष्ट और कान्त है यावत् इसको वातपित्त-कफ और सन्निपातजन्य विविध रोग-आतंक आदि स्पर्श न कर सकें. इसके लि करता रहा / लेकिन हे देवानुप्रिये ! अब यह संसार के भय से उद्विग्न होकर एवं जन्म-स्मरण से भयभीत होकर आप देवानुप्रिया के पास मुंडित होकर यावत् प्रवजित होने के लिए तत्पर है / इसलिए हे देवानुप्रिये ! मैं आपको यह शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ। आप देवानुप्रिया इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें।' भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें अनुकूल प्रतीत हो, वैसा करो, किन्तु इस मांगलिक कार्य में विलम्ब मत करो। ___39. तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही सुन्वयाहिं अज्जाहि एवं बुत्ता समाणी हट्ठा० सयमेव प्राभरणमल्लालंकारं ओमुयाह, 2 ता सयमेव पञ्चमुट्ठियं लोयं करेइ, 2 ता जेणेव सुन्वयाओ अज्जाश्रो, तेणेव उवागच्छइ, 2 ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणफ्याहिणेणं वन्दइ नमसइ, 2 त्ता एवं वयासी आलित्ते णं भन्ते ! लोए, पलित्तेणं भंते ! लोए, आलित्त-पलित्तणं भंते ! लोए जराए मरणे णय जहा देवाणन्दा तहा पवइया [जाव] अज्जा जाया गुत्तबम्भयारिणी // सुव्रता आर्या के इस कथन को सुनकर सुभद्रा सार्थवाही हर्षित एवं संतुष्ट हुई और उसने (एक ओर जाकर) स्वयमेव अपने हाथों से वस्त्र, माला और आभूषणों को उतारा / पंचमुष्टिक लोंच किया फिर जहाँ सव्रता प्रार्या थी. वहाँ पाई। प्राकर तीन बार आदक्षिण-दक्षिण दिशा से प्रारम्भ कर प्रद वन्दन-नमस्कार किया। बन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org