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________________ किल्पिका भगवान् ने कहा- गौतम ! वह देव-ऋद्धि आदि उसी के शरीर से निकली थी और उसी के शरीर में समा गई। गौतम ने पुन: पूछा-वह विशाल देव-ऋद्धि उसके शरीर में कैसे विलीन हो गईसमा गई ? उत्तर में भगवान ने बतलाया-गौतम ! जिस प्रकार किसी उत्सव आदि के कारण फैला हुमा जनसमूह वर्षा प्रादि को अाशंका के कारण कुटाकार शाला में समा जाता है, उसी प्रकार देव. कुमार प्रादि देव-ऋद्धि बहुपुत्रिका देवो के शरीर में अन्तहित हो गई-समा गई। गौतम स्वामी ने पुनः पूछा----भदन्त ! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव-ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, और कैसे उसके उपभोग में पाई ? ऐसा पूछने पर भगवान् ने कहा--- गौतम! उस काल और उस समय वाराणसी नाम की नगरी थी। उस नगरी में आम्रशालवन नामक चैत्य था। उस वाराणसी नगरी में भद्र नामक सार्थवाह रहता था, जो धन-धान्यादि से समृद्ध यावत् दूसरों से अपरिभूत था (दूसरों के द्वारा जिसका पराभव या तिरस्कार किया जाना संभव नहीं था / ) उस भद्र सार्थवाह की पत्नी का नाम सुभद्रा था। वह अतीव सुकुमाल अंगोपांग वाली थी, रूपवती थी / किन्तु वन्ध्या होने से उसने एक भी सन्तान को जन्म नहीं दिया। वह केवल जानु और कूपर की माता थी अर्थात् उसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियाँ ही स्पर्श करती थीं, संतान नहीं।। सुभद्रा सार्थवाही को चिन्ता __31. तए गं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाइ पुग्वरत्तावरत्तकाले कुटम्बजागरियं जागरमाणोए इमेयारूवे अज्झथिए पत्थिए चिन्तिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था—“एवं खलु अहं भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयाया। तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, [जाव] सपुष्णाओ गं ताओ अम्मयानो, कयस्थाओ णं तारो अम्मयाओ, सुलद्ध णं तासि अम्मयाणं मणुयजम्मजीवियफले, जासि मन्ने नियकुच्छिसंभूयगाई थणदुखलुद्धगाई महुरसमुल्लाबगाणि मम्मणप्पजम्पियाणि थणमूलकक्खदेसमागं अभिसरमाणगाणि पोहयन्ति, पुणो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिऊणं उच्छङ्गनिवेसियाणि देन्ति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मणप्पणिए / अहं णं अधन्ना अपुण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता।" ओहय० जाब झियाइ / [31] तत्पश्चात् किसो एक समय मध्य रात्रि में पारिवारिक स्थिति का विचार करते हुए सुभद्रा को इस प्रकार का प्रान्तरिक चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ–'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल मानवीय भोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूं, किन्तु ग्राज तक मैंने एक भी बालक या बालिका का प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य धन्य हैं यावत् पुण्यशालिनो हैं, उन्होंने पुण्य का उपार्जन किया है, उन मातानों ने अपने मनुष्यजन्म और जीवन का फल भलीभांति प्राप्त किया है, जो अपनी निज की कुक्षि से उत्पन्न, स्तन के दूध को लोभी, मन को लुभाने वालो वाणी का उच्चारण करने वाली, तोतलो बोलो बोलने वाली, स्तनमूल और कांख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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