________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] [71 के अंतराल में अभिसरण करने वाली सन्तान को दूध पिलाती हैं / फिर कमल के सदृश कोमल हाथों से लेकर उसे गोद में बिठलाती हैं, कानों को प्रिय लगने वाले मधुर-मधुर संलापों से अपन मनोरंजन करती हैं। लेकिन मैं ऐसी भाग्यहीन, पुण्यहीन हूं कि संतान सम्बन्धी एक भी सुख मुझे प्राप्त नहीं है।' इस प्रकार के विचारों से निरुत्साह-भग्नमनोरथ होकर यावत् अार्तध्यान करने लगी। सुवता प्रार्या का प्रागमन 32. तेणं कालेणं तेणं सगएणं सुव्वयाओ णं प्रज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियानो एसणासमियाओ आयाणभण्डमत्तनिक्खेवणासमियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंधाणयारिट्रावणासमियामो मणगुत्तीओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुत्तिन्दियाओ गुत्तबम्भयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवारानो पुव्वाणुपुटिव चरमाणीओ गामाणुगामं दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी, तेणेव उवागयाो। उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरन्ति। [32] उस काल और उस समय में ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणामिति, आदान-भांडमात्रनिक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रस्रवण-श्लेष्म-सिंघाणपरिष्ठापना-समिति से समित, मनोगप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाली (इन्द्रियों का दमन करने वाली) गुप्त ब्रह्मचारिणी बहुश्रुता (बहुत से शास्त्रों में निष्णात),शिष्याओं के बहुत बड़े परिवार वाली सुव्रता नाम की आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम (तीर्थकर परंपरा के अनुरूप)से चलती हुई, ग्रामानुग्राम में विहार करती हुई जहाँ वाराणसी नगरी थी, वहाँ आई / आकर कल्पानुसार यथायोग्य अवग्रह-प्राज्ञा लेकर संयम और तप से प्रात्मा को परिशोधित करती हुई विचरने लगी। सुभद्रा को जिज्ञासा : प्रार्याओं का उत्तर 33. तए णं तासि सुब्बयाणं अज्जाणं एगे संघाउए वाणारसीनयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अउमाणे भद्दस्स सस्थवाहस्स गिहं अणुप्पविठे / तए गं सुभद्दा सत्यवाही ताओ अज्जाम्रो एज्जमाणोओ पासइ, 2 ता हट० खिप्पामेव पासणाओ अम्मठे, २त्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, 2 ता बन्वइ, नमसइ, २त्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेण पडिलाभेत्ता एवं बयासी ‘एवं खलु अहं, प्रज्जाओ, भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा वारिग वा पयायामि / तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, [जाव] एत्ता एगमवि न पत्ता। तं तुम्भे, अज्जाओ, बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागरमगर० [जाव] संनिवेसाई आहिण्डह, बहूर्ण राईसरतलवर० [जाव] सस्थवाहप्पभिईणं गिहाई अनुपविसह, अत्थि से केइ कहिंचि विज्जापओए वा मन्तप्पओए वा वमणं वा विरयेणं वा पत्थिकम्मं वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्ध, जेणं अहं वारगं वा वारिगं वा पयाएज्जा?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org