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________________ 72] [कस्विका [33] तदनन्तर उन सुव्रता आर्या का एक संघाड़ा वाराणसी नगरी के सामान्य, मध्यम, और उच्च कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए परिभ्रमण करता हुया भद्र सार्थवाह के घर में आया। तब उस सुभद्रा सार्थवाही ने उन प्रायिकाओं को प्राते हुए देखा / देखकर वह हर्षित और संतुष्ट होती हुई शीघ्र हो अपने आसन से उठकर खड़ी हुई / खड़ी होकर सात-पाठ डग उनके सामने गई और वन्दन-नमस्कार किया। फिर विपुल प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम पाहार से प्रतिलाभित कर इस प्रकार कहा आर्यायो ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोग रही हूँ, मैंने आज तक एक भी संतान का प्रसव नहीं किया है। वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यशालिनो हैं (जो संतान का सुख भोगती हैं) यावत् मैं अधन्या पुण्यहोना हूँ कि उनमें से एक भी सुख प्राप्त नहीं कर सकी हूँ। देवानुप्रियो ! आप बहुत ज्ञानी हैं, बहुत पढ़ी-लिखी हैं और बहुत से ग्रामों, आकरों, नगरों यावत् देशों में घूमती हैं / अनेक राजा, ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में भिक्षा के लिए प्रवेश करती हैं। तो क्या कहीं कोई विद्याप्रयोग, मंत्रप्रयोग, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषध अथवा भेषज ज्ञात किया है, देखा-पढ़ा है जिससे मैं बालक या बालिका का प्रसव कर सकूँ? ___34. तए णं ताओ अज्जामो सुभई सत्यवाहि एवं बगासी—"अम्हे णं वेवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गन्थीओ इरियासमियाओ [जाव] गुत्तबम्भयारिणीयों। नो खलु कप्पइ अम्हं एयमढ़ कण्णेहि वि निसामेत्तए किमङ्ग पुण उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा ? अम्हे णं देवाणुप्पिए ! नवरं तव विचित्तं केवलिपन्नत्तं धम्म परिकहेमो"। [34] सुभद्रा का कथन सुनकर उन आयिकाओं ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहादेवानुप्रिये ! हम ईर्यासमिति आदि समितियां से समित, तीन गुप्तिओं से गुप्त, इन्द्रियों को वश में करने वालो गुप्त ब्रह्म वारिणा निर्ग्रन्थ-श्रमणिएँ हैं। हमको ऐसी बातों का सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश अथवा आचरण कैसे कर सकती हैं ? किन्तु देवानुप्रिये ! हम तुम्हें केवलिप्ररूपित दान शोल ग्रादि अनेक प्रकार का धर्मोपदेश सुना सकती हैं। प्रार्याओं का उपदेश : सुभद्रा का श्रमणोपासिका व्रत ग्रहण 35. तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तासि अज्जाणं अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुट्टा ताओ अज्जाओ तिक्खुत्तो वन्दइ नमसइ, २त्ता एवं वयासी-"सद्दहामि णं अज्जाओ! निग्गन्थं पावयणं, पत्तियामि रोएमि णं, अज्जायो ! निग्गंथं पाक्यणं"। एवमेयं तहमेयं प्रवितहमेयं," [जाव] सावगधम्म पडिवज्जए। "अहासुह, देवाणुप्पिए, मा पडिबन्धं करेह / " तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही तासि अज्जाणं अन्तिए [जाव] पडिबज्जइ, 2 ता ताओ अज्जामो वन्दइ नमसइ, २त्ता पडिविसज्जेइ / तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही समणोवासिया जाया, जाव विहरइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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