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________________ वर्ग 3 : चतुर्य अध्ययन] [73 - [35] इसके बाद उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर उसे अवधारित कर उस सुभद्रा सार्थवाही ने हृष्ट-तुष्ट हो उन आर्याों को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार करके उसने कहादेवानुप्रियो ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ विश्वास करती हूँ, रुचि करती हूँ। आपने जो उपदेश दिया है, वह तथ्य है, सत्य है, अवितथ है / यावत् मैं श्रावकधर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ। यिकाओं ने उत्तर दिया--देवानुप्रिये ! जैसा तुम्हें अनुकूल हो अथवा जिस प्रकार तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु प्रमाद मत करो। तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही ने उन प्रायिकाओं से श्रावकधर्म अंगीकार किया। अंगीकार करके उन आर्यिकाओं को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उन्हें विदा किया। तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका होकर श्रावकधर्म पालती हुई यावत् विचरने लगी। सुभद्रा की दीक्षा का संकल्प 36. तए णं तोसे सुभदाए समणोवासियाए अन्नया कयाइ पुख्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुम्बजागरियं जागरगमाणीए अयमेयारूवे अच्झस्थिए [जाव] समुप्पज्जित्था-"एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेणं विउलाई भोगभोगाई जाव विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा... / तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव जलन्ते भद्दस्स आपुच्छित्ता सुब्बयाणं अज्जाणं अन्तिए अज्जा भवित्ता अगाराम्रो [जाव] पव्वइत्तए" एवं संपेहेइ / २त्ता जेणेव भद्दे सत्थवाहे तेणेव उवागया, करयल [जाब] एवं वयासी-"एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया ! तुभेहिं सद्धि बहूई वासाई विउलाई भोगभोगाइं [जाव] विहरामि, नो चेव णं वारगं वा दारियं वा पयायामि / तं इच्छामि णं, देवाणुप्पिया! तुम्भेहि अणुनाया समाणी सुव्वयाणं अज्जाणं [जाव] पब्वइत्तए"। [36] इसके बाद उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन मध्यरात्रि के समय कौटुम्बिक स्थिति पर विचार करते हुए इस प्रकार का प्रान्तरिक मनःसंकल्प यावत् विचार समुत्पन्न हुआ'मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोगों को भोगती हुई समय व्यतीत कर रही हूँ किन्तु मैंने अभी तक एक भी दारक या दारिका को जन्म नहीं दिया है। अतएव मुझे यह उचित है कि मैं कल यावत् जाज्वल्यमान तेज सहित सूर्य के प्रकाशित होने पर भद्र सार्थवाह से अनुमति लेकर सुव्रता प्रायिका के पास गृह त्यागकर यावत् प्रवजित हो जाऊँ। उसने इस प्रकार का संकल्प किया-विचार किया। विचार करके जहाँ भद्र सार्थवाह था, वहाँ आई। आकर दोनों हाथ जोड़ यावत् इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से विपुल भोगों को भोगती हुई समय बिता रही हूँ, किन्तु एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दिया है। अब मैं आप देवानुप्रिय की अनुमति प्राप्त करके सुव्रता प्रायिका के पास यावत् प्रवजित-दीक्षित होना चाहती हैं। 37. तए णं से भद्दे सत्यवाहे सुभई सत्थवाहिं एवं वयासी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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