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________________ 78] [कल्पिका वसामि, तया णं अहं अप्यवसा, जप्पमिदं च णं अहं मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पमिइंच णं अहं परवसा पुचि च समणीओ निग्गन्थीओ आन्ति, परिजाणेन्ति, इयाणि नो आढाएन्ति नो परिजाणन्ति, तं सेयं खलु मे कल्लं [जाव] जलन्ते सुब्बयाणं अज्जाणं अन्तियानो पडिनिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उपसंपज्जिताणं विहरित्तए, एवं संपेहेइ, 2 ता कल्लं [जाव] जलन्ते सुब्बयाणं अजाणं अन्तियाओ पडिनिक्खमइ, पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरह / तए णं सा सुभद्दा मज्जा अज्जाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छन्दमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया [जाव] अमङ्गणं च [जाव] नत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ // [43] उन सुव्रता प्रादि निग्रन्थ श्रमणो पार्यायां द्वारा पूर्वोक्त प्रकार से हीलना आदि किए जाने और बार-बार रोकने-निवारण करने पर उस सुभद्रा प्रार्या को इस प्रकार का प्रान्तरिक यावत् मानसिक विचार उत्पन्न हुमा--'जब मैं अपने घर में थो तब मैं स्वाधीन थी, लेकिन जब से मैं मुडित होकर गृह त्याग कर आनगारिक प्रव्रज्या से प्रवजित हुई हूँ, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। पहले जो निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ मेरा अादर करतो थों, मेरे साथ प्रेम-पूर्वक पालाप-संलाप, व्यवहार करती थीं, वे आज न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम से बोलती हैं। इसलिए मुझे कल (आगामी दिन) प्रातःकाल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर इन सुव्रता आर्या से अलग होकर, पृथक् उपाश्रय में जाकर रहना उचित है।' उसने इस प्रकार का संकल्प किया। इस प्रकार का संकल्प करके दूसरे दिन यावत् सूर्योदय होने पर सुव्रता आर्या को छोड़कर वह (सुभद्रा प्रार्या) निकल गई और अलग उपाश्रय में जाकर अकेली ही रहने लगी। ___ तत्पश्चात् वह सुभद्रा प्रार्या, आर्यानों द्वारा नहीं रोके जाने से निरंकुश और स्वच्छन्दमति होकर गृहस्थों के बालकों में आसक्त अनुरक्त होकर यावत्-उनकी तेल-मालिश आदि करती हुई पुत्र-पौत्रादि को लालसापूर्ति का अनुभव करती हुई समय बिताने लगी। बहुपुत्रिका देवी रूप में उत्पत्ति 44. तए णं सा सुभद्दा पासस्था पासस्थविहारी प्रोसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाछन्दा अहाछन्दविहारी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणई, 2 त्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं "तीसं भत्ताई अणसणेणं छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकन्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसन्तरिया अङ्ग लस्स असंखेज्जभागमेताए प्रोगाहणाए बहुपुत्तियदेविताए उबवन्ना / तए णं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमत्ता समाणी पञ्चविहाए पज्जत्तीए "[जाव] भासामणपज्जत्तीए। एवं खलु गोयमा! 'बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्या देविड्डी [जाव] अमिसमन्नागया। [44] तदनन्तर वह सुभद्रा पासस्था-शिथिलाचारी, पासस्थविहारी, अवसन्न (खंडित व्रत वाली) अवसनविहारी, कुशील (आचारभ्रष्ट) कुशीलविहारी, संसक्त (गृहस्थों से संपर्क रखने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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