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________________ वर्ग 3: चतुर्थ अध्ययन] चंदन लगाती, तो किसी को शरीर में सुगन्धित चूर्ण लगाती। किसी को खिलौने देती, किसी को खाने के लिए खाजे आदि मिष्ठान्न देती, किसी को दूध पिलाती, किसी के कंठ में पहनी हुई पुष्प माला को उतारती, किसी को पैरों पर बैठाती तो किसी को जांघों पर बैठाती। किसी को टांगों पर, किसी को गोदी में, किसी को कमर पर, पीठ पर, छाती पर, कन्धों पर, मस्तक पर बैठाती और हथेलियों में लेकर हुल राती-दुलराती, लोरियां गाती हुई, उच्च स्तर में गाती हुई-पुचकारती 'हुई पुत्र की लालसा, पुत्री की वांछा, पोते-पोतियों की लालसा (की पूर्ति) का अनुभव करतो हुई अपना समय बिताने लगी। सुभद्रा का पृथंक आवास 41. तए णं ताओ सुब्वयाओ अज्जाम्रो सुभद्रं अज्जं एवं क्यासी--"अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गन्थोमो इरियासमियानो [जाव] गुत्तबम्भयारिणीओ / नो खलु अम्हें कप्पड़ जातककम्मं करेत्तए / तुमं च णं देवाणुप्पिए ! बहुजणस्स चेडरूवेसु मुच्छिया [जाव] अज्झोववन्ना अभङ्गणं [जाव] नत्तिपिवासं वा पच्चणभवमाणी विहरसि / तं गं तुमं देवाणुप्पिए ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि [जाव] पायच्छित्तं पडिवजाहि / / " [41] उसकी ऐसी वृत्ति-आचारप्रवृत्ति देखकर सुव्रता प्रार्या ने सुभद्रा प्रार्या से कहादेवानुप्रिये ! हम लोग संसार-विषयों से विरक्त, ईर्यासमिति आदि से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थी श्रमणी हैं / अतएव हमें बालकों का लालन-पालन, बालक्रीड़ा आदि करना-कराना नहीं कल्पता है / लेकिन देवानुप्रिये ! तुम गृहस्थों के बालकों में मूच्छित प्रासक्त यावत् अनुरागिणी होकर उनका अभ्यंगन-मालिश आदि करने रूप अकल्पनीय कार्य करती हो यावत् पुत्रपौत्र आदि की लालसापूर्ति का अनुभव करती हो। अतएव देवानुप्रिये ! तुम इस स्थान-अकल्पनीय कार्य की प्रालोचना करो यावत् प्रायश्चित्त लो। 42. तए णं सा सुभद्दा अज्जा सुव्बयाणं अज्जाणं एयम नो आढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ / तए णं ताओ समणीनो निग्गन्थीयो सुभदं अज्ज होलेन्ति, निन्वन्ति, खिसन्ति, गरहन्ति, अभिवखणं 2 एयमटुं निवारेन्ति / / प्रार्या द्वारा इस प्रकार से अकल्पनीय कार्यों से रोकने के लिए समझाए जाने पर भी सुभद्रा प्रार्या ने उन सुव्रता आर्या के कथन का आदर नहीं किया-कथन पर ध्यान नहीं दिया किन्तु उपेक्षा-पूर्वक अस्वीकार कर पूर्ववत् बाल-मनोरंजन करती रही। __ तब निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ इस अयोग्य कार्य के लिए सुभद्रा आर्या की हीलना (तिरस्कार) करतीं, निन्दा करतीं, खिसा करतीं-उपालंभ देतीं, गर्दी करती-भर्त्सना करतीं और ऐसा करने से उसे बार-बार रोकतीं। 43. तए णं तीए सुभद्दाए अज्जाए समणीहिं निग्गन्थोहि होलिज्जमाणीए [जाय] अभिवखणं 2 एयमटुं निवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अजास्थिए [जाव] समुप्पज्जित्या-जया णं प्रहं अगारवासं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003487
Book TitleAgam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages178
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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